सुभाषित – १

यादृशै: सन्निविशते यादृशांश्चोपसेवते ।
यादृगिच्छेच्च भवितुं तादृग्भवति पूरूष: ।।

अर्थ : मनुष्य जिस प्रकार के लोगों के साथ रहता है , जिस प्रकार के लोगों की सेवा करता है , जिनके जैसा बनने की इच्छा करता है , वैसा वह होता है ।

पदाहतं सदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति ।
स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: ।।

अर्थ : जो पैरों से कुचलने पर भी उपर उठता है ऐसा मिट्टी का कण अपमान किए जाने पर भी चुप बैठनेवाले व्यक्ति से श्रेष्ठ है ।

सा भार्या या प्रियं बू्रते स पुत्रो यत्र निवृति: ।
तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते ।।

अर्थ : जो मीठी वाणी में बोले वही अच्छी पत्नी है, जिससे सुख तथा समाधान प्राप्त होता है वही वास्तव में पुत्र है, जिसपर हम बिना झिझ के संपूर्ण विश्वास कर सकते है वही अपना सच्चा मित्र है तथा जहांपर हम काम करके अपना पेट भर सकते हैं वही अपना देश है ।

विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वाfन्त निर्धने स्नेहम् ।
विरला: परकार्यरता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला: ।।

अर्थ : दूसरों के गुण पहचाननेवाले थोडे ही है । निर्धन से नाता रखनेवाले भी थोडे है । दूसरों के काम में मग्न होनेवाले थोडे हैं तथा दूसरों का दु:ख देखकर दु:खी होनेवाले भी थोडे है ।

आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म ।
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ।।

अर्थ : आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनों से मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दूसरे के ऊपर निर्भर न होना यह सब धन नहीं होते हुए भी पुरूषों का एश्वर्य है ।

कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्
इति ते संशयो मा भूत् राजा कालस्य कारणं ।

अर्थ : काल राजा का कारण है कि राजा काल का इस मे थोडी भी दुविधा नहीं कि राजा ही काल का कारण है ।

आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते ।
नीयते तद् वृथा येन प्रामाद: सुमहानहो ।।

अर्थ : सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नहीं मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निरर्थक ही खर्च कर रहे हैं वे कितनी बडी गलती कर रहे है ।

योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका ।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति ।।

अर्थ : यदि चींटी चल पडी तो धीरे धीरे वह एक हजार योजनाएं भी चल सकती हैं । परन्तु यदि गरूड जगह से नहीं हिला तो वह एक पग भी आगे नहीं बढ सकता ।

शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरूष: स विद्वान् ।
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ।।

अर्थ : शास्त्रोंका अध्ययन करने के बाद भी लोग मूर्ख रहते हैं । परन्तु जो कृतिशील हैं वही सही अर्थ में विद्वान हैं । किसी रोगी के प्रति केवल अच्छी भावना से निश्चित किया गया औषध रोगी को स्वस्थ नहीं कर सकता । वह औषध नियमानुसार लेनेपर ही वह रोगी स्वस्थ हो सकता है ।

वृत्तं यत्नेन संरक्ष्येद् वित्तमेति च याति च ।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हत: ।।

अर्थ : सदाचार की मनुष्य ने प्रयत्नपूर्व रक्षा करनी चाहिए, वित्त तो आता जाता रहता है । धन से क्षीण मनुष्य वस्तुत: क्षीण नहीं , बल्कि सद्वर्तनहींन मनुष्य हीन है ।

परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम्
धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित् सुमहात्मन:

अर्थ : दूसरों को उपदेश देकर अपना पांडित्य दिखाना बहुत सरल है। परंतु केवल महान व्यक्ति ही उस तरह से (धर्मानुसार)अपना बर्ताव रख सकता है।

इंद्रियाणि पराण्याहु: इंद्रियेभ्य: परं मन: ।
मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु स: ।।
गीता ३।४२

अर्थ : इंद्रियों के परे मन है मन के परे बुद्धि है और बुद्धि के भी परे आत्मा है ।

उष्ट्राणां च विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा:
परस्परं प्रशंसन्ति अहो रुपमहो ध्वनि:

अर्थ : ऊंटो के विवाह मे गधे गाना गा रहे हैं। दोनो एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं वाह क्या रूप है (ऊंट का), वाह क्या आवाज है (गधे की)। वास्तव में देखा जाए तो ऊंटों में सौंदर्य के कोई लक्षण नहीं होते, न कि गधों मे अच्छे स्वर के । परन्तु कुछ लोगोंने कभी उत्तम क्या है यही देखा नहीं होता । ऐसे लोग इस तरह से जो प्रशंसा करने योग्य नहीं है, उसकी प्रशंसा करते हैं ।

आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।।
– गीता २।७०

अर्थ : जो व्यक्ति समय समय पर मन में उत्पन्न हुई आशाओं से अविचलित रहता है जैसे अनेक नदियां सागर में मिलनेपर भी सागर का जल नहीं बढता, वह शांत ही रहता है ऐसे ही व्यक्ति सुखी हो सकते हैं ।

मैत्री करूणा मुदितोपेक्षाणां।
सुख दु:ख पुण्यापुण्य विषयाणां।
भावनातश्चित्तप्रासादनम्।
– पातञ्जल योग १।३३

अर्थ : आनंदमयता, दूसरे का दु:ख देखकर मन में करूणा, दूसरे का पुण्य तथा अच्छे कर्म समाज सेवा आदि देखकर आनंद का भाव, तथा किसीने पाप कर्म किया तो मन में उपेक्षा का भाव ‘किया होगा छोडो’ आदि प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होनी चाहिए।