‘नकल’ शिक्षणक्षेत्र को दीर्घकाल लगा हुआ ‘कर्करोग’ है।

वार्षिक परीक्षा में केवल सामान्य बुद्धिमत्तावाले ही नहीं अपितु बुद्धिमान छात्र भी ‘नकल’ की कुप्रथा में फंसते हैं, यह सभी स्थानों का अनुभव है । परीक्षा में अत्यधिक गुण मिलने के लिए यह सब प्रयास होता है । उत्तरपुस्तिका लिखते समय ‘नकल’ करते हुए छात्र के पकडे जाने पर कुछ छात्रों का वर्ष व्यर्थ होता है एवं कुछ छात्रों का जीवन उद्ध्वस्त होता है । व्यावहारिक दृष्टि से इस कुप्रथा का अर्थ है भ्रष्टाचार ! इस भ्रष्टाचार की ओर संकेत करने वाला यह लेख…

१. शिक्षा के क्षेत्र में नकल केवल दसवीं अथवा बारहवीं की परीक्षाओं में ही नहीं बल्कि विधि की परीक्षा में भी होती है । इसका अर्थ यह की विधि के रक्षणकर्ताओंद्वारा ही चौर्यकर्म होता है !

ऐसा कहा जाता है कि ‘नकल’ शिक्षा के क्षेत्र को लगा हुआ ‘कर्करोग’ है । सच देखा जाए तो हमारे शिक्षा-क्षेत्र को अभी इतने असाध्य रोगोंने पछाडा है कि उसके आगे ‘नकल’ जैसा रोग छोटा प्रतीत होता है । तथापि इसे अनदेखा नहीं कर सकते । दसवीं एवं बारहवीं की परीक्षाओं में नकल होती है साथ ही ऐसा ध्यान में आया है कि सांप्रत काल में प्रत्यक्ष विधि की परीक्षा में भी‘नकल’ होती है । इसका अर्थ यह है कि कल जो विधि के रक्षणकर्ता होंगे वे ही यह चौर्यकर्म कर रहे हैं ।

२. ग्रामीण भाग में पाठशालाओं का स्तर संजोए रखने के लिए संस्था-चालक एवं गुरुजनों की परीक्षार्थी को अंदरुनी सहायता एवं पोषक वातावरण की निर्मिति करना !

ग्रामीण भाग में पाठशालाओं का स्तर टिकाए रखने के लिए संस्था-चालक एवं गुरुजनों द्वारा परीक्षार्थी को अंदरुनी सहायता की जाती है एवं नकल जैसे कुप्रथाओं हेतु पोषक वातावरण निर्माण किया जाता है। अनेक स्वार्थी पालकों को इसकी अपेक्षा होती है क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके बालक परीक्षा के कक्ष से बिना किसी झंझट के बाहर निकल जाएं । ऐसे समय में संबंधित सभी व्यक्ति स्वयं को सुरक्षित रखने हेतु चुप्पी साधे लेते हैं । प्रधान अध्यापक को अपनी कुर्सी बचानी होती है एवं संस्था-चालक को विद्यालय चलाना होता है । अधिकांशतः शिक्षक ऐसे वरिष्ठों का ही पक्ष लेते हैं जिसके कारण नकल का प्रसार होने में विलंब नहीं होता । कुछ केंद्रों पर ऐसे अघोषित नकल के प्रकार इतने बढ गए हैं कि बिना नकल किए सरल मार्ग से उत्तीर्ण होने की आकांक्षा रखने वाले अनगिनत परीक्षार्थींयों को इसका कष्ट सहना पडता है । इससे मानसिक कष्ट भी होता है । आजकल यह सब होगा ही, यह ध्यान में रखकर ही उन्हें परीक्षा देनी पडती है ।

३. नकल करनेवाला परीक्षार्थी ही मात्र इस रोग की जड नहीं अपितु अनगिनत प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष घटक इस में सम्मिलित हैं !

इस कारण हम नकल करने वालों को कानून का भय बताकर नकल करने से किस प्रकार रोक सकते हैं अथवा नकल का समूल नाश कैसे करेंगे यह कठिन समस्या है । छात्र नकल करते हैं, उन्हें विरोध करने पर शिक्षकों को धमकियां देना, अपशब्द बोलना जैसे अश्लाघ्य वर्तन करते हैं । कर्तव्यवान शिक्षक इस दुष्प्रकार से स्वयं को मुक्त कराने के लिए प्रयास करते हैं एवं नकल करने वालों को खुला मार्ग मिलता है । अतः नकल करने वाला परीक्षार्थी ही इस रोग की जड नहीं अपितु अनगिनत प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कारण हैं ।

४. ‘तुम अनुत्तीर्ण हुए तो कोई बात नहीं परंतु नकल कर के उत्तीर्ण होने की आवश्यकता नहीं’ ऐसा दृढतापूर्वक कहनेवाले अभिभावक आज दिखाई नहीं देते  एवं ‘नकल नहीं करुंगा’, यह दृढता छात्रों में आए इस हेतु संस्कारों की आवश्यकता है !

वास्तव में देखा जाए तो‘तुम अनुत्तीर्ण हुए तो कोई बात नहीं परंतु नकल कर के उत्तीर्ण होने की आवश्यकता नहीं’ यह दृढतापूर्वक कहने वाले अभिभावक आज लुप्त हो गए हैं । ऐसे शिक्षक तो हैं ही नहीं, जो होगे वे अपवाद हैं । नकल रोकना शिक्षकों का नैतिक दायित्व है ।शिक्षकों ने यदि परीक्षा की उत्तम सिद्धता (तैयारी) करवाकर परीक्षार्थियों को उत्तीर्ण होने का आत्मविश्वास जगाया तो नकल की ओर बच्चे आकर्षित नहीं होंगे । इससे यह स्पष्ट है कि शिक्षकों के पढाने से छात्रों का समाधान नहीं होता है । अपने बच्चों का एवं छात्रों की मानसिकता ऐसी तैयार करानी चाहिए कि उन्हें लगे कि‘मैं नकल नहीं करुंगा’ । इसके लिए अच्छे संस्कारों का सिखाना महत्त्वपूर्ण मार्ग है ।’

– श्री. वैजनाथ महाजन (संदर्भ : दै. तरुण भारत, १६.१.२०११)