मेवाड़ का अपराजित राजा महाराणा प्रताप

राजपूताने की वह पावन बलिदान-भूमि,
विश्व में इतना पवित्र बलिदान स्थल कोई नहीं ।
इतिहास के पृष्ठ रंगे हैं उस शौर्य एवं तेज़ की भव्य गाथा से ।

भीलों का अपने देश और नरेश के लिये वह अमर बलिदान, राजपूत वीरों की वह तेजस्विता और महाराणा का वह लोकोत्तर पराक्रम— इतिहास का, वीरकाव्य का वह परम उपजीव्य है । मेवाड़ के उष्ण रक्तने श्रावण संवत 1633 वि. में हल्दीघाटी का कण-कण लाल कर दिया । अपार शत्रु सेना के सम्मुख थोड़े–से राजपूत और भील सैनिक कब तक टिकते ? महाराणा को पीछे हटना पड़ा और उनका प्रिय अश्व चेतक-उसने उन्हें निरापद पहुँचाने में इतना श्रम किया कि अन्तमें वह सदा के लिये अपने स्वामी के चरणों में गिर पड़ा ।

महाराणा चित्तौड़ छोड़कर वनवासी हुए । महाराणी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और निर्झर के जलपर किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए । अरावली की गुफ़ाएँ ही आवास थीं और शिला ही शैया थी । दिल्ली का सम्राट सादर सेनापतित्व देने को प्रस्तुत था, उससे भी अधिक- वह केवल चाहता था प्रताप अधीनता स्वीकार कर लें, उसका दम्भ सफल हो जाय । हिंदुत्व पर दीन-इलाही स्वयं विजयी हो जाता । प्रताप-राजपूत की आन का वह सम्राट, हिंदुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग, तप में अम्लान रहा- अडिंग रहा । धर्म के लिये, आन के लिये यह तपस्या अकल्पित है । कहते हैं महाराणाने अकबर को एक बार सन्धि-पत्र भेजा था, पर इतिहासकार इसे सत्य नहीं मानते । यह अबुल फजल की गढ़ी हुई कहानी भर है। अकल्पित सहायता मिली, मेवाड़ के गौरव भामाशाहने महाराणा के चरणों में अपनी समस्त सम्पत्ति रख दी । महाराणा इस प्रचुर सम्पत्ति से पुन: सैन्य-संगठन में लग गये । चित्तौड़ को छोड़कर महाराणाने अपने समस्त दुर्गों का शत्रु से उद्वार कर लिया । उदयपुर उनकी राजधानी बना । अपने 24 वर्षों के शासन काल में उन्होंने मेवाड़ की केशरिया पता का सदा ऊँची रक्खी ।

महाराणा की प्रतिज्ञा

प्रताप को अभूतपूर्व समर्थन मिला । यद्यपि धन और उज्जवल भविष्यने उसके सरदारों को काफ़ी प्रलोभन दिया, परन्तु किसीने भी उसका साथ नहीं छोड़ा । जयमल के पुत्रोंने उसके कार्य के लिये अपना रक्त बहाया, पत्ता के वंशधरोंने भी ऐसा ही किया और सलूम्बर के कुल वालोंने भी चूण्डा की स्वामिभक्ति को जीवित रखा । इनकी वीरता और स्वार्थ-त्याग का वृत्तान्त मेवाड़ के इतिहास में अत्यन्त गौरवमय समझा जाता है । उसने प्रतीज्ञा की थी कि वह ‘माता के पवित्र दूध को कभी कलंकित नहीं करेगा ।’ इस प्रतिज्ञा का पालन उसने पूरी तरह से किया। कभी मैदानी प्रदेशोंपर धावा मारकर जन—स्थानों को उजाड़ना तो कभी एक पर्वत से दूसरे पर्वतपर भागना और इस विपत्ति काल में अपने परिवार का पर्वतीय कन्दमूल फल द्वारा भरण-पोषण करना और अपने पुत्र अमर का जंगली जानवरों और जंगली लोगों के मध्य पालन करना-अत्यन्त कष्टप्राय कार्य था । इन सबके पीछे मूल मंत्र यही था कि बप्पा रावल का वंशज किसी शत्रु अथवा देशद्रोही के सम्मुख शीश झुकाये – यह असम्भव बात थी। क़ायरों के योग्य इस पापमय विचार से ही प्रताप का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता था । तातार वालों को अपनी बहन-बेटी समर्पण कर अनुग्रह प्राप्त करना, प्रताप को किसी भी दशा में स्वीकार्य न था । ‘चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शय्यापर शयन दोनों मेरे लिये वर्जित रहेंगे ।’ महाराणा की प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही और जब वे (वि. सं. 1653 माघ शुक्ल 11) ता. 29 जनवरी सन 1597 में परमधाम की यात्रा करने लगे, उनके परिजनों और सामन्तोंने वही प्रतिज्ञा करके उन्हें आश्वस्त किया । अरावली के कण-कण में महाराणा का जीवन-चरित्र अंकित है । शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिये वह प्रकाश का काम देगा । चित्तौड़ की उस पवित्र भूमि में युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्म का अमर सन्देश झंकृत होता रहेगा ।

माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप ।
अकबर सूतो ओधकै, जाण सिराणै साप ॥

कठोर जीवन निर्वाह

चित्तौड़ के विध्वंस और उसकी दीन दशा को देखकर भट्ट कवियोंने उसको ‘आभूषण रहित विधवा स्त्री- की उपमा दी है । प्रतापने अपनी जन्मभूमि की इस दशा को देखकर सब प्रकार के भोग—विलास को त्याग दिया, भोजन—पान के समय काम में लिये जाने वाले सोने-चाँदी के बर्तनों को त्यागकर वृक्षों के पत्तों को काम में लिया जाने लगा, कोमल शय्या को छोड़ तृण शय्या का उपयोग किया जाने लगा । उसने अकेले ही इस कठिन मार्ग को नहीं अपनाया अपितु अपने वंश वालों के लिये भी इस कठोर नियम का पालन करने के लिये आज्ञा दी थी कि जब तक चित्तौड़ का उद्धार न हो तब तक सिसोदिया राजपूतों को सभी सुख त्याग देने चाहिएँ । चित्तौड़ की मौजूदा दुर्दशा सभी लोगों के हृदय में अंकित हो जाय, इस दृष्टि से उसने यह आदेश भी दिया कि युद्ध के लिये प्रस्थान करते समय जो नगाड़े सेना के आगे—आगे बजाये जाते थे, वे अब सेना के पीछे बजाये जायें । इस आदेश का पालन आज तक किया जा रहा है और युद्ध के नगाड़े सेना के पिछले भाग के साथ ही चलते हैं ।

परिवार की सुरक्षा

इस प्रकार, समय गुज़रता गया और प्रताप की कठिनाइयाँ भयंकर बनती गईं । पर्वत के जितने भी स्थान प्रताप और उसके परिवार को आश्रय प्रदान कर सकते थे, उन सभीपर बादशाह का आधिकार हो गया । राणा को अपनी चिन्ता न थी, चिन्ता थी तो बस अपने परिवार की ओर से छोटे—छोटे बच्चों की । वह किसी भी दिन शत्रु के हाथ में पड़ सकते थे । एक दिन तो उसका परिवार शत्रुओं के पँन्जेमें पहुँच गया था, परन्तु कावा के स्वामिभक्त भीलोंने उसे बचा लिया । भील लोग राणा के बच्चों को टोकरों में छिपाकर जावरा की खानों में ले गये और कई दिनों तक वहींपर उनका पालन—पोषण किया । भील लोग स्वयं भूखे रहकर भी राणा और परिवार के लिए खाने की सामग्री जुटाते रहते थे । जावरा और चावंड के घने जंगल के वृक्षोंपर लोहे के बड़े—बड़े कीले अब तक गड़े हुए मिलते हैं । इन कीलों में बेतोंके बड़े—बड़े टोकरे टाँग कर उनमें राणा के बच्चों को छिपाकर वे भील राणा की सहायता करते थे। इससे बच्चे पहाड़ों के जंगली जानवरों से भी सुरक्षित रहते थे । इस प्रकार की विषम परिस्थिति में भी प्रताप का विश्वास नहीं डिगा ।

पृथ्वीराजद्वारा प्रताप को प्रेरित करना

प्रताप के पत्र को पाकर अकबर की प्रसन्नता की सीमा न रही । उसने इसका अर्थ प्रताप का आत्मसमर्पण समझा और उसने कई प्रकार के सार्वजनिक उत्सव किए । अकबरने उस पत्र को पृथ्वीराज नामक एक श्रेष्ठ एवं स्वाभीमानी राजपूत को दिखलाया । पृथ्वीराज बीकानेर नरेश का छोटा भाई था । बीकानेर नरेशने मुग़ल सत्ता के सामने शीश झुका दिया था । पृथ्वीराज केवल वीर ही नहीं अपितु एक योग्य कवि भी था । वह अपनी कविता से मनुष्य के हृदय को उन्मादित कर देता था । वह सदा से प्रताप की आराधना करता आया था। प्रताप के पत्र को पढ़कर उसका मस्तक चकराने लगा । उसके हृदय में भीषण पीड़ा की अनुभूति हुई । फिर भी, अपने मनोभावोंपर अंकुश रखते हुए उसने अकबर से कहा कि यह पत्र प्रताप का नहीं है । किसी शत्रु ने प्रताप के यश के साथ यह जालसाज़ की है । आपको भी धोखा दिया है । आपके ताज़ के बदले में भी वह आपकी आधीनता स्वीकार नहीं करेगा । सच्चाई को जानने के लिए उसने अकबर से अनुरोध किया कि वह उसका पत्र प्रताप तक पहुँचा दे । अकबरने उसकी बात मान ली और पृथ्वीराजने राजस्थानी शैली में प्रताप को एक पत्र लिख भेजा ।

अकबरने सोचा कि इस पत्र से असलियत का पता चल जायेगा और पत्र था भी ऐसा ही । परन्तु पृथ्वीराजने उस पत्र के द्वारा प्रताप को उस स्वाभीमान का स्मरण कराया जिसकी खातिर उसने अब तक इतनी विपत्तियों को सहन किया था और अपूर्व त्याग व बलिदान के द्वारा अपना मस्तक ऊँचा रखा था । पत्र में इस बात का भी उल्लेख था कि हमारे घरों की स्त्रियों की मर्यादा छिन्नत-भिन्न हो गई है और बाज़ार में वह मर्यादा बेची जा रही है । उसका ख़रीददार केवल अकबर है । उसने सीसोदिया वंश के एक स्वाभिमानी पुत्र को छोड़कर सबको ख़रीद लिया है, परन्तु प्रताप को नहीं ख़रीद पाया है । वह ऐसा राजपूत नहीं जो नौरोजा लिए अपनी मर्यादा का परित्याग कर सकता है । क्या अब चित्तौड़ का स्वाभिमान भी इस बाज़ार में बिक़ेगा ।

भामाशाहद्वारा प्रताप की शक्तियाँ जाग्रत होना

पृथ्वीराज का पत्र पढ़ने के बाद राणा प्रतापने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने का निर्णय कर लिया । परन्तु मौजूदा परिस्थितियों में पर्वतीय स्थानों में रहते हुए मुग़लों का प्रतिरोध करना सम्भव न था । अतः उसने रक्तरंजित चित्तौड़ और मेवाड़ को छोड़कर किसी दूरवर्ती स्थानपर जाने का विचार किया । उसने तैयारियाँ शुरू कीं । सभी सरदार भी उसके साथ चलने को तैयार हो गए । चित्तौड़ के उद्धार की आशा अब उनके हृदय से जाती रही थी । अतः प्रतापने सिंध नदी के किनारेपर स्थित सोगदी राज्य की तरफ़ बढ़ने की योजना बनाई ताकि बीच का मरुस्थल उसके शत्रु को उससे दूर रखे । अरावली को पार कर जब प्रताप मरुस्थल के किनारे पहुँचा ही था कि एक आश्चर्यजनक घटनाने उसे पुनः वापस लौटने के लिए विवश कर दिया । मेवाड़ के वृद्ध मंत्री भामाशाहने अपने जीवनमें काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी । वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुआ और उससे मेवाड़ के उद्धार की याचना की । यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था । भामाशाह का नाम मेवाड़ के उद्धारकर्ताओं के रूप में आज भी सुरक्षित है । भामाशाह के इस अपूर्व त्याग से प्रताप की शक्तियाँ फिर से जागृत हो उठीं ।