संस्कृत का उद्भव

१. संस्कृत,यह भाषा ईश्वरनिर्मित है !..

हमारी वैदिक परंपराने स्वयं में विश्व संरचना से लेकर साद्यंत(संपूर्ण) इतिहास जतन कर रखा है । पहले सर्वत्र शून्य था; तत्पश्चात् आकाश में ‘ॐ’ ध्वनिका निनाद हुआ एवं शेषशायी श्रीविष्णु प्रकट हुए । उनकी नाभिसे ब्रह्मदेव प्रकट हुए; तदुपरांत प्रजापति, मातृका, धन्वंतरी, गंधर्व, विश्वकर्मा इत्यादि प्रकट हुए । उसी समय ईश्वरने ऐसे वेद उपलब्ध किए जिसमें समस्त विश्व का ज्ञानभांडार समाया हुआ है । वेद संस्कृत भाषा में है । संस्कृत ‘देववाणी’ है । जिस प्रकार वेद अपौरुषेय यानी ईश्वरप्रणीत है, उसी प्रकार संस्कृत भाषा भी ईश्वर की रचना है । उसकी रचना और लिपि ईश्वरद्वारा रचित है, अत: उस लिपिको भी ‘देवनागरी’ कहते है । संस्कृत भाषा के सारे संबोधन भी देवभाषा में हैं ऐसा स्पष्ट है, उदा. ‘गीर्वाणभारती’ उसमें का ‘गीर्वाण’ शब्द का अर्थ है ‘देव’ ।

इस सृष्टि की संरचना ईश्वरीय संकल्प से हुई है । मनुष्य की रचना के पश्चात् मनुष्य को आवश्यकतानुसार सब कुछ उस ईश्वरने ही दिया । इतना ही नहीं, मानव को कालानुसार आगे जिस वस्तु की भी आवश्यकता होगी वह देने की व्यवस्था भी उस परमपिता परमेश्वरने की है । सृष्टि की संरचना से पूर्व ही ईश्वरने मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति के लिए उपयोगी तथा चैतन्य से ओतप्रोत (भरी हुई) ऐसी एक भाषा तैयार की… जिसका नाम है ‘संस्कृत’ !

आद्यमानव मनु तथा शतरूपा को ब्रह्मदेवने संस्कृत सिखाई । ब्रह्मदेवने अपने मानसपुत्र अत्री, वसिष्ठ, गौतमादि ऋषियों को भी वेद एवं संस्कृत भाषा सिखाई ।

२. दत्तगुरुने संस्कृत भाषा की पुनर्रचना की !

त्रेतायुग में जीव की शब्दातीत ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता क्षीण हो गई ; शब्दों के माध्यम से जीव को ज्ञान प्राप्त होकर मोक्ष प्राप्ति सुलभता से हो, इसके लिए दत्तगुरुने संस्कृत भाषा की पुनर्रचना की ।

३. द्वापारयुगतक संस्कृत विश्वभाषा रही !..

सत्य, त्रेता और द्वापर इन तीनों युगों में संस्कृत ही विश्वभाषा थी । इसीलिए इस भाषा को ‘विश्ववाणी’ भी कहते हैं । कौरव – पांडवों के समयतक संस्कृत ही विश्व की एकमेव भाषा थी !