मन चंगा तो कठौती मे गंगा !

समर्थ रामदासजी ने एक गृहिणी का अहंकारी चित्त शुद्ध चित्त में कैसे परिवर्तन किया, वह समझने योग्य है । `ओम भवती पक्ष की रक्षा करें’, ऐसा कहनेवाले रामदास स्वामी गांव गांव में संपन्न घर के सामने जाकर खडे होकर कहते, `ओम भवती भिक्षां देहि’, कहीं अपमान होता था कहीं स्वागत, तो कहीं उस गृहस्थ अथवा गृहिणी का राजस अहंकार प्रकट होता था । वह देखकर समर्थ निर्ममता से आगे निकल जाते । एक गांव में ऐसा हुआ कि स्वामीजी को बिलकुल भिक्षा नहीं मिली; किंतु समर्थ जरा भी गुस्सा नहीं हुए । उन्होंने कहा, ‘आनंद !’ रघुराम का नाम लिया ! यह भी ईश्वर की देन है ! उसका क्या दुख मनाना ! उसका क्या कष्ट ! समर्थ उठकर अगले गांव में गए । वहां जानेपर उन्होंने देखा कि गांव में चार खंडोंवाला एक बहुत बडा घर था । किंतु उस घर में रहनेवाले सभी जन राजस अहंकारवाले थे । समर्थ वहां भिक्षा हेतु गए । `ओम भवती भिक्षां देहि’ ऐसा स्वर सुननेपर गृहिणी ने उत्तम भिक्षा लाकर दी । किंतु उस देने में ऐसा भाव होता था कि कैसे मैं गुसाई को देती हूं ! पेट के लिए कैसे प्रतिदिन चुपचाप भिक्षा लेता है ! ऐसा एक घमंडी अहंकार उसके मन में छुपा था । समर्थ यह बात जानते थे । मन ही मन में हंसकर समर्थ कहते थे,`रघुराया, इस गृहिणी को सुबुदि्ध दो’, तथा उसके पश्चात भिक्षा को स्वीकार करते थे । समर्थ की विशेष बात यह थी कि वे खाने से रस सेवन ही नहीं करते थे, भिक्षा प्राप्त होनेपर नदी के पानी में उसे धो डालते थे । मीठा, तीखा, खट्टा कुछ भी नहीं चाहिए ! साति्वक खाना ही लेते थे । रस चाहिए ही नहीं ! अर्थात मसालोंवाले व्यंजन, उनके स्वाद भी नहीं चाहिए । भिक्षा की झोली पानी में डुबोते थे, जबतक उसका पूरा स्वाद न चला जाए ! तदुपरांत उसे खाते थे !

तत्पश्चात उस स्त्री ने सोचा कि इतने दिनों से समर्थ यहां आ रहे हैं, और मैं उन्हें भिक्षा दे रही हूं ! अब उन्हें मुझे कुछ तो उपदेश देना चाहिए । लेनदेन ! लोग जहां भगवान के साथ लेनदेन करते हैं, वहां संतों के साथ किया तो कोई आश्चर्य नहीं ! हे भगवान, मैंने तुझे यह दिया, तू मुझे वह दे । यह तो लेनदेन ही हुआ ! क्या भगवान राजनीतिज्ञ हैं ? जो कहें कि हमारे पक्षमें आओ, अथवा हस्ताक्षर मुहीम में समि्मलित हो जाओ ! फिर तुमको साढेतीन कोटि देता हूं ! क्या भगवान ऐसा करते हैं ? किंतु उस स्त्री ने सोचा कि यह सौदा करने में कोई अडचन नहीं ! इतनी बार हमारे घर खाना खाकर गए हैं ! समर्थ से यह बात करने में अब कोई अडचन नहीं । समर्थ से उस गृहिणी ने कहा, `समर्थ, आज भिक्षा दे रही हूं, किंतु एक विनती है ‘, `क्या?’ `मुझे उपदेश दीजिए’ समर्थ हंसे, तथा कहा, `समय आनेपर दूंगा ।’ उस महिला को अपमान लगा । समर्थ हररोज भिक्षा लेकर जाते हैं, और अब `समय आनेपर’ क्या अर्थ है ? मेरा तो अधिकार बनता है । मेरे चरणों में बैठकर चुपचाप मुझे उपदेश दें । (अर्थात उलटा ही सही ! ) मैं उनके चरणों में नहीं बैठुंगी ! उपदेश तो लेना है । इन्हें संत कहते है किंतु इन्हें ही मेरे चरणों में बैठकर, मुझे उपदेश देना चाहिए । समर्थने कहा, `नहीं ! समय आनेपर दूंगा ।’ उस स्त्री ने बडा हठ किया । तब उन्होंने कहा, `माताजी, अब दोपहर का समय हो गया है । मेरे भोजन का भी समय हो गया है । मैं आप को कल उपदेश दूंगा ।’ उसने कहा, `ठीक है’ । उसे बहुत आनंद हुआ । घर में सब को बताया । कैसे गुसाई को झुकाया, कैसे उससे चुपचाप मनवाया ।

दूसरे दिन समर्थ ने एक अनोखी बात की, उन्होंने अपने कटोरे में गंदगी भर दी । वैसे ही वह कटोरा लेकर वे उस बडे मकान के आंगन में खडे रहे तथा आवाज लगाई, `जय जय रघुवीर समर्थ ! माउली भिक्षा दो ! ओम भवती भिक्षां देहि !’ वह गृहिणी बाहर आई । आज उपदेश प्राप्त होगा इसलिए बहुत प्रसन्न थी । आज पायस (खीर) बनाया था । बादाम, किशमिश, मुनक्के, केसर आदि डालकर उसने वह पायस (खीर) बहुत स्वादिष्ट एवं पौषि्टक बनाई थी । समर्थ आगे आए तथा उन्होंने अपना कटोरा आगे किया । गृहिणीने देखा तो कटोरे में गंदगी ! कीचड, गोबरसे भरा । गृहिणी ने कहा, `अरे यह क्या ? इस कटोरे में गंदगी है, मेरी खीर व्यर्थ जाएगी ।’ इसपर समर्थ ने कहा, ‘चलेगा, डालो,’ ऐसा एक, दो बार नहीं दस बार हुआ । तब गृाहिणी ने कहा, `ऐसे क्या करते हैं ?’ उन्होंने खीर का वह बर्तन बाजू में रखा । समर्थ के हाथ से कटोरा छीन लिया, और कहा, `इस गंदगी में कैसे परोसूं ? यह कटोरा लीजिए । इसे शुद्ध कर के लाईए । आप पहले जाकर इसे धोकर लाईए ।’ समर्थ गए ! कटोरा साफ करके लाए और गृहिणी के सामने किया । वह पायस परोसने ही वाली थी, इतने में उन्होंने कटोरा पीछे लिया । उन्होंने कहा , `उपदेश चाहिए ना ?’ इसपर गृहिणी को बहुत आनंद हुआ । समर्थ ने कहा,`देखो तो ! इस कटोरे में बहुत गंदगी थी; अत: तुम उसमें पायस परोस ने हेतु तैयार नहीं थी । तुम्हारे चित्त में अहंकार की, `मैं’ पनकी इतनी गंदगी है कि जबतक वह बाहर नहीं निकलती, मैं उपदेशरूपी पायस तुम्हारे चित्त में कैसे डालू ?’

बस ! यह सुनते ही वह स्त्री कांप उठी । अंधेरे में जैसी बिजली कौंध गई । शरीर में बिजली दौड गई, पांव कांपने लगे । दोनों आंखों से आंसू बहने लगे ! उसने समर्थ को एकदम साष्टांग प्रणाम किया । उसने कहा, `महाराज, मुझसे चूक हो गई ।’ सारी राजस उद्दंडता एवं अहंकार उन आंसुओं के साथ बह गया । जिनका राजस अहंकार आंसुओं के साथ धुल जाता, उस कालखंड में ऐसे लोग थे ! संतों के वचन ह्रदयतक पहुंचकर मनुष्य में परिवर्तन होता था । `मन चंगा तो कठौती मे गंगा’ यह बात समर्थ ने सब को दिखा दी ! यह सही है ! अत: समर्थ ने कहा, `माई, चित्त थोडा शुद्ध करो ! जरा उस अहंकार को हटाओ ! मेरा उपदेश चित्त में समाए, पहले इतना स्थान अपने अंतःकरण में बनाओ ! तब उपदेश दूंगा !’

इस प्रकार समर्थ रामदासजी ने उस स्‍त्री का अहंकारी चित्त को शुद्ध चित्त में परिवर्तित किया और ‘मन चंगा तो कठौती मे गंगा’ यह बात सब को दिखा दी !

बालमित्रो इस कहानी से हमने क्‍या सीखा ?, हमने सीखा कि भगवान और संतों को अहंकार नहीं भाता । जब हमारे मन में अहंकार नहीं होगा अर्थात हमारा मनरूपी पात्र स्‍वच्‍छ होगा तब ही भगवान अथवा संत हमें उपदेश देंगे ।