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क्या, मंगलुरू (कर्नाटक) के श्री सुब्रह्मण्यम मंदिर में ब्राह्मणोंके जूठे पत्तलोंपर लोटने की प्रथा धर्मसम्मत है ?

मंगलुरू (कर्नाटक) के श्री सुब्रह्मण्यम मंदिर में ब्राह्मणोंके जूठे पत्तलोंपर लोटने की प्रथा

मंगलुरू का कुक्के श्री सुब्रह्मण्यम मंदिर

मंगलुरू के कुक्के श्री सुब्रह्मण्यम मंदिर में प्रतिवर्ष कार्तिक कृ. षष्ठी को उत्सव मनाया जाता है।

इस दिन देवतापूजन के पश्चात प्रथम ब्राह्मणभोजन किया जाता है। इस अवसर पर ब्राह्मणोंद्वारा भोजन किए गए केले के जूठे पत्तलोंपर भक्तोंके लोटने की प्रथा है। भक्तोंकी श्रद्धा है कि, इससे त्वचारोग अच्छे होते हैं। कल यह प्रथा संपन्न होने के पश्चात कर्नाटक के पुरोगामियोंद्वारा ऐसी आवाज उठाई गई है कि, यह प्रथा बहुजनोंको हीन मानने का एक प्रकरण है !

इस प्रथा को अंधश्रद्धा सिद्ध कर अंधश्रद्धा निर्मूलनवादियोंने विरोध किया है !
परात्पर गुरु डॉ. आठवले

इस संदर्भ में सनातन का दृष्टिकोण आगे, प्रस्तुत कर रहें हैं . . .

१. मंगलुरू के श्री सुब्रह्मण्यम मंदिर में ब्राह्मणोंद्वारा भोजन किए गए केले के जूठे पत्तलोंपर भक्तोंके लोटने की प्रथा, एक रूढि है। यह रूढि धर्मशास्त्र सम्मत नहीं है; अर्थात धर्मशास्त्र में इसका कोई आधार नहीं है।

२. ‘शास्त्रात् रूढिर्बलीयसी ।’ अर्थात रूढि शास्त्र से अधिक प्रभावशाली होती है ! इस विषय में प्राचीन एवं आधुनिक, ऐसे सभी विधि शास्त्रज्ञोंके विषय में एकमत है। रूढि प्रभावी होने का एकमात्र कारण है उस विषय की समाजमन में रहनेवाली ‘श्रद्धा’ !

३. ब्राह्मणोंके जूठे पत्तलोंपर भक्तोंके लोटने से त्वचारोग अच्छे होने के पीछे भी भक्तोंकी श्रद्धा कारणभूत होती है !

‘श्रीगुरुचरित्र’ में कहा गया है कि ….

‘‘मंत्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे भेषजे गुरौ । यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी’’ ॥
– श्रीगुरुचरित्र, अध्याय ९, श्लोक ४८

अर्थ : मंत्र, तीर्थस्नान, ब्राह्मण, देव, भविष्यवेत्ता, वैद्य एवं गुरु के संदर्भ में जिस की जैसी श्रद्धा होगी, वैसी उसे फल प्राप्ती मिलती है। इसके अनुसार ब्राह्मणोंके विषय में श्रद्धा रखनेवालोंको इस प्रकार की अनुभूति आती है !

४. इस प्रथा से समाज अथवा व्यक्ति की किसी प्रकार की शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक हानि नहीं होती; इसके विपरीत अनेक लोगोंने इस प्रथा से त्वचारोग अच्छे होने की अनुभूति ली है।

इसलिए इस प्रथा के विरुद्ध शोर मचाना अव्यावहारिक है !

तब भी पुरोगामी एवं अंधश्रद्धा निर्मूलनवाले, माध्यमोंको हाथ में लेकर इसका विरोध करते हैं।

इसके विपरीत धार्मिक उत्सव में होनेवाली अनेक अनुचित घटनाओंके कारण व्यक्ति एवं समाज की शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक हानि होती है। इन अनुचित घटनाओंके विरुद्ध ये लोग एक शब्द भी नहीं बोलते। आध्यात्मिक संस्था अथवा धर्माचार्यद्वारा इन अनुचित घटनाओंका विरोध किया गया, तो ये माध्यम ही लोकानुनय हेतु विरोध करते हैं !

क्या, ये माध्यम एवं पुरोगामियोंकी दोहरी नीति नहीं है ?’

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

स्त्रोत : दैनिक सनातन प्रभात

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