समाजव्यवस्था उत्तम रखना, प्रत्येक प्राणिमात्रकी ऐहिक और पारलौकिक उन्नति होना, ये बातें जिससे साध्य होती हैं, वह धर्म है’, ऐसी धर्मकी व्याख्या आदि शंकराचार्यजीने की है । धर्म केवल समझनेका विषय नहीं है, अपितु आचरणमें लानेका विषय है; क्योंकि धर्मके आचरणसे ही धर्मकी अनुभूति होती है ।
१. धर्मका भविष्य
जगतमें अनेक संस्कृतियां और पन्थ नष्ट हुए, अनन्त प्रकारके संकट धर्मपर आए हैं, तब भी धर्म आज सुरक्षित है । लाखों वर्षोंके कालकी परीक्षामें धर्म अब भी टिका हुआ है । धर्म मृत्युंजय है, क्योंकि धर्म सत्य है । काल केवल असत्यको नष्ट कर सकता है । अनादि धर्म ही अनन्त कालतक टिक पाता है । धर्म ईश्वरका ही गुणधर्म है, इसलिए ईश्वरके समान धर्म भी नित्य स्थायी रहेगा । हिन्दुओंकी निष्क्रियताके कारण कदाचित पृथ्वीपर हिन्दू न बचें; तब भी ग्रन्थरूपमें हिन्दू धर्म अवश्य रहेगा !
अ. अन्य पन्थोंद्वारा आक्रमण होते हुए भी धर्मका टिके रहना
बौद्ध, मुहम्मदी और ईसाई धर्मों (पन्थों)ने कई देशोंको अपने पक्षमें कर लिया, तब यह आर्यदेश कैसे टिक पाया ?
१. ये तीनों धर्म (अंशतः) अधिकारानुसार हमारे ही धर्मके स्वरूप हैं; यह भविष्यपुराणद्वारा आर्योंको ज्ञात है ।
२. अन्य धर्मोंमें (पन्थोंमें) जो नहीं, वह आर्य धर्ममें है । अन्य धर्मोंमें जो है, वह आर्य धर्ममें भी है; परन्तु जो आर्य धर्ममें नहीं है, वह अन्य धर्मोंमें (पन्थोंमें) कहीं नहीं । यह बात आर्योंके सान्निध्यके कारण अन्य धर्मियोंको (पन्थियोंको) ज्ञात हो रही है ।
३. अन्य धर्मियोंने (पन्थियोंने) आर्य धर्मको नष्ट करनेके प्रयत्न किए, तब भी आर्याेंकी धर्मभेद सहिष्णुताके कारण कई विद्वानोंको आर्याेंके विनाशकी बात उचित नहीं लगी ।
२. धर्म एवं भारत का महत्त्व
अ. युगानुसार धर्मपर अधिष्ठित भाग अल्प होते हुए, अब केवल भारतमें ही धर्मका रह जाना
हमारे पूर्वजोंका इतिहास रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, पुराण आदि धर्मग्रन्थोंमें वर्णित है । इनसे ज्ञात होगा कि समुद्रवलयित पृथ्वीपर
राज्य करनेका अधिकार केवल साधकोंको ही है । सत्ययुगके अन्तमें ‘सोऽहं’ भाव घटता गया, इसलिए धर्मके चार पादोंमेंसे एक पाद नष्ट हुआ और उसी अनुपातमें पृथ्वीके एक चौथाई भागसे धर्माचरण लुप्त हो गया, तीन चौथाई भागमें ही धर्म रह गया । उसी समय त्रेतायुग आरम्भ हुआ । पुनः धर्मका एक पाद क्षीण होनेसे द्वापरयुग आरम्भ हुआ । इस कालमें केवल आधी पृथ्वीपर ही कुछ लोग धर्माचरणी रह गए । द्वापरयुगके अन्तमें धर्मके तीन पाद क्षीण हुए तथा पृथ्वीके एक चौथाई भागमें ही धर्माचरणी रह गए । तब कलियुगका आरम्भ हुआ । पाण्डवोेंके वंशज, अर्जुनके नाती राजा परीक्षित कलियुगके पहले राजा थे । कलियुगके उस कालमें भी सर्पयज्ञ करनेका सामर्थ्य ब्राह्मणोंमें था । आगे चलकर अन्यत्र स्थानोंपर सत्त्वप्रधान वृत्तिकी अवनति हुई तथा भारतमें ही केवल साधनाभूमि रह गई, यही पुण्यभूमि बच गई । इसलिए ‘पंचखण्ड भूमण्डलोंमें भरतखण्डी पुण्य बहुत’, ऐसा श्री गुरुचरित्रमें कहा गया है ।
आ. ‘भारत’ देशके नामका इतिहास
‘वर्तमानकालमें हमारे देशके लिए भारत तथा हिन्दुस्थान, ये दोनों शब्द एकार्थक माने जाते हैं; यद्यपि कालकी आवश्यकता अनुसार, ‘हिन्दुस्थान’ शब्दका प्रयोग ही हमारे देशके लिए इष्ट है । सृष्टिके उत्पत्तिकालमें सत्ययुग था और देशका नाम ‘धर्म’ था । आगे चलकर मनुष्यकी वृत्ति अवनत हुई, इसलिए त्रेतायुगमें समाज तथा राष्ट्र में सत्त्वप्रधान वृत्ति जागृत रहनेकी दृष्टिसे देशका नाम ‘वेदधर्म’ रखा गया । इसके उपरान्त द्वापरयुगमें ‘भारत’ नाम पड गया । कलियुगके आरम्भमें देशका नाम ‘आर्यावर्त’ था; परन्तु कालकी आवश्यकतानुसार इसी भूमिको धर्मवेत्ताओंने ‘हिन्दुस्थान’ नाम दिया । यह नाम कलियुगके अन्ततक रहे, ऐसा उनका मनोभाव था । पहले धर्म, तत्पश्चात वेदधर्म, उसके उपरान्त भारत, फिर आर्यधर्म और तत्पश्चात हिन्दू धर्म, ये सब समानार्थी शब्द हैं ।’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, जनपद पुणे, महाराष्ट्र.
इ. धर्मग्रन्थ एवं सन्तों द्वारा भारतका गुणगान
‘हमारे पूर्वज राजा समस्त पृथ्वीपर राज्य करते थे; परन्तु उनकी राजधानी वर्तमान भारतमें ही थी, जिसे इन्द्रप्रस्थ कहा जाता था । इसलिए यदि इस जगतमें सुख-शान्ति स्थापित करनी हो, तो उसका आरम्भ भारतसे ही होना चाहिए; क्योंकि अब केवल भारत ही एक धर्मक्षेत्र रह गया है । स्वामी विवेकानंदने कहा है, ‘जब-जब भारतके नैतिक पतनकी चरम सीमा होगी, उस समय जगतका विनाश होगा ।’
रोगके कारण हमारे शरीरके सर्व भाग सूख भी जाएं, हृदयमें जबतक धडकन रहेगी, तबतक हम जीवित रहेंगे । समस्त विश्वकी अवस्था व्याधिग्रस्त शरीर समान हो चुकी है । इसीको ‘धर्मग्लानि’ कहते हैं । वर्तमान भारत इस विश्वदेहके हृदय स्थलपर विराजमान है । कुछ धडकनें अर्थात सन्त और उनके अन्तरंग शिष्य अब भी इस भूमिपर उपस्थित हैं । इस विश्वरूपी शरीरके हृद्रोगका निवारण, उन धर्मनिष्ठोंके
मार्गदर्शनानुसार अपनी वृत्तिको अधिकाधिक सत्त्वप्रधान बनानेसे ही होगा और विश्वरूपी देहका स्वास्थ्य सुधरेगा । ‘भारत’ शब्द ‘भा’ + ‘रत’के जोडसे बना है । ‘भा’का अर्थ है आत्मा और ‘रत’का अर्थ है मग्न । जो सदैव आत्मभावमें रत रहे, वही है ‘भारत’ । – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, जनपद पुणे, महाराष्ट्र.
ई. पाश्चात्योंद्वारा वर्णित भारतकी महत्ता
‘पं. दीनदयाल उपाध्याय की मान्यता थी कि हिन्दू राष्ट्रका अपना एक वैश्विक मिशन है – विनाश की कगारपर खडी मनुष्यजातिको सुरक्षा, सुख और समृद्धि का मार्ग दिखाना । यह ऐतिहासिक दायित्व नियतिने हिन्दू राष्ट्रको ही सौंपा है । इस दृष्टिसे हिन्दू राष्ट्रमें वैचारिक सामर्थ्य निर्माण करना, यहांकी ऋषिसंस्थाका उत्तरदायित्व है । हिन्दू राष्ट्रके इस वैश्विक मिशनका स्वरूप स्वामी विवेकानंद, योगी अरविंद और पू. गोळवलकर गुरुजीने निःसन्दिग्ध शब्दोंमें घोषित किया है । इतना ही नहीं; अपितु भविष्यमें झांकनेवाले कुछ पाश्चात्य विद्वानोंने इस राष्ट्रक जीवन-कार्यके सम्बन्धमें अपनी कल्पनाएं तथा अपेक्षाएं लगभग इन्हीं शब्दोंमें प्रकट की हैं । उसके कुछ उदाहरण यहां दे रहे हैं ।
१. ‘यहां (भारतमें) हमें एक ऐसी मनोधारणा एवं चेतना दिखाई देती है जिसके आधारपर मानवजातिको एक परिवारके रूपमें अपना विकास कर पाना सम्भव है । वर्तमान परमाणुयुगमें यदि अपने सर्वनाशको आमन्त्रित न करना हो, तो इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है ।
आज हम मानवीय इतिहासके एक संक्रमणयुग (एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें जानेके युग) में जी रहे हैं । यद्यपि इस युगका प्रारम्भ पश्चिमसे हुआ हो, इसकी समाप्ति भारतसे करनी पडेगी । मानवजातिके आत्मविनाशसे होनेवाले इस युगके अन्तसे बचना हो, तो ! वर्तमान युगमें पाश्चात्य तन्त्रज्ञानने समूचे जगतको भौतिक स्तरपर एकत्रित कर दिया है । इस पाश्चात्य तन्त्रज्ञानने ‘अन्तर’ को केवल नष्ट ही नहीं किया; अपितु जगतके देश एक-दूसरेके बहुत निकट जब आए, तो उन्हें अत्यन्त विनाशकारी शस्त्रोंसे सुसज्ज भी किया । आजतक वे एक-दूसरेको जानना अथवा एक-दूसरेके प्रति प्रेम रखना नहीं सीख पाए ! मानवीय इतिहासमें घोर संकटके क्षणमें मानवजातिके बचावका यदि एकमात्र मार्ग है, तो वह है भारतीय तत्त्वज्ञानका मार्ग ।
मैं मुख्यतः तीन बातोंकी ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं । पहली यह कि भारतका स्थान जगतमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और सदैव ऐसे ही रहा है । दूसरी बात यह कि भारत वर्तमान जगतका सारभूत स्वरूप ही है । समस्त जगतको भयभीत करनेवाले अनेक प्रमुख प्रश्न बडी तीव्रतासे आज भारत के समक्ष खडे हैं तथा भारतीय जनता और भारत शासन उनके समाधानके लिए प्रयत्नरत हैं । तीसरी बात यह कि भारतमें जीवनके प्रति एक ऐसा दृष्टिकोण है और मानवीय व्यवहार सम्भालनेकी एक ऐसी भूमिका है, जो वर्तमान स्थितिमें अत्यन्त उपकारक (लाभकारी) सिद्ध होगी; वह भी केवल भारतके लिए नहीं; अपितु सम्पूर्ण जगतके लिए !
अतिसुन्दर और इसलिए अत्यन्त परिश्रमद्वारा साध्य होनेवाले इस आदर्श अनुसार (जो आदर्श आपकी भारतीय परम्पराका उत्तराधिकार है), जीवनको उन्नत करनेमें यदि भारत कभी असफल हो जाए, तो सम्पूर्ण मनुष्यजातिका भावी कल्याण बाधित होगा । भारतपर इतना महान आध्यात्मिक दायित्व है ।’ – सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ अर्नाल्ड टॉयन्बी
२. ‘यदि मुझे बताना हो कि सम्पत्ति, शक्ति एवं प्राकृतिक सौंदर्य, इन सबसे परिपूर्ण देश कौनसा है, तो मैं भारतका नाम लूंगा । मुझे कोई प्रश्न पूछे कि किस देशके मनुष्योंने उत्कृष्ट ईश्वरीय देनको पूर्णरूपसे विकसित किया है, जीवनकी जटिल समस्याओंपर गहन चिन्तन कर उनपर उपाय निकाले हैं और जो प्लेटोे तथा कान्ट द्वारा दी गई शिक्षाके अभ्यासियोंका भी ध्यान आकर्षित करनेमें सक्षम है, तो मैं उत्तर दूंगा ‘भारत’ । हम यूरोपियन लोग अपने जीवनमें ग्रीक, रोमन तथा यहूदी लोगोंकी विचारधाराओंका अनुकरण करते हैं । इस जीवनको अधिक सफल, परिपूर्ण, वास्तविक रूपसे मानवतावादी और शाश्वत बनाना हो, तो कौनसे साहित्यका आधार लिया जाए, यदि ऐसा प्रश्न कोई पूछे, तो मैं इसके उत्तरमें भी ‘भारतीय’ ही कहूंगा । – एक प्रकाण्ड विद्वान प्राध्यापक मैक्सम्यूलर (महारानी विक्टोरियाको १८५८ में प्रोफेसर मैक्सम्यूलरद्वारा भेजे गए एक पत्रका अंश)
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘धर्मका आचरण एवं रक्षण’