१. स्वधर्मपालन का महत्त्व
अ. चातुर्वर्णियोंके लिए विहित वर्णाश्रमानुसार उचित आचरणको ही धर्माचरण कहा जाता है । भगवान श्रीकृष्णने कहा है –
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ३५
अर्थ : आचरणमें सरल परधर्मकी अपेक्षा स्वधर्म ही श्रेष्ठ है, भले ही वह सदोष क्यों न हो । स्वधर्ममें रहते हुए मृत्युको प्राप्त होना अच्छा है, (क्योंकि) परधर्मको स्वीकार करनेमें बडा भय होता है ।
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्णने द्वापरयुगमें जब यह बात अर्जुनको बताई, तब सर्वत्र हिन्दू धर्म ही था । उनका कथन वर्तमानकालके ‘धर्मांतरण’के सन्दर्भमें नहीं था । यथार्थ रूपमें श्रीकृष्ण कहते हैं कि वर्णाश्रमपर आधारित जिसका जो धर्म है, उसका पालन उसे करना चाहिए ।
आ. समर्थ रामदासस्वामीने दासबोधमें कहा है कि ‘धर्ममें धर्म यही । स्वरूपमें स्थित रहना स्वधर्म है ॥’
इ. वेदोंद्वारा प्रतिपादित स्वधर्मस्थितिके परिपालनसे, विषयों के प्रति विरक्ति उत्पन्न होती है, जिसके फलस्वरूप प्राणी मोक्ष पाते हैं, यही मेरी वेदोक्ति है । (एकनाथी भागवत, अध्याय २१, ओवी २१० का अनुवाद) संक्षेपमें, स्वधर्मानुष्ठान आत्मप्राप्ति का निश्चित और सरल मार्ग है ।
र्इ. शरीरस्य विनाशेन धर्म एव विशिष्यते ।
– महाभारत, आदिपर्व, अध्याय २१३, श्लोक २०
अर्थ : अपने प्राणोंको त्यागकर भी धर्मका पालन करना अधिक श्रेयस्कर है ।
२. धर्माचरण करना कौनसे सूत्रोंपर निर्भर करता है ?
अ. सामाजिक वातावरण
‘मोक्ष मनुष्यका अन्तिम ध्येय होना चाहिए, यह महाभारतकारोंको भी मान्य है; परन्तु मोक्ष अत्यन्त उन्नत अवस्था है, जो समाजकी प्रगत तथा परिपक्व अवस्थामें ही सम्भव है । जिस समाजमें लोगोंके आचार शुचिर्भूत (शुद्ध) तथा विचार परिपक्व और पवित्र हों, जहां साम्राज्यव्यवस्था
उत्तम हो, जहां लोकव्यवहार उत्तम रीतिसे चलते हों, जो समाज विद्यासम्पन्न और पराक्रमी होते हुए बाह्य आक्रमणोंसे अपना संरक्षण करनेमें समर्थ हो, उसी समाजमें मोक्षसाधनाके प्रयत्न तथा परिणति कर पाना सम्भव होता है, ऐसा भारतीय तत्त्ववेत्ताओंका सिद्धान्त है ।
३. धर्माचरण न होना – क्षम्य तथा अक्षम्य
धर्माचरण न होनेके दो कारण हैं – अन्तस्थ तथा बाह्य । अन्तस्थ अर्थात जहां योगाचरण करते हुए अपना देहभान भूल जानेके कारण धर्माचरण न हो पाए । बाह्य अर्थात जो यात्रा, व्याधि अथवा किसी प्रकारके आपातकालमें हो जाए । इन दोनों प्रसंगोंमें यदि धर्माचरण न हो पाए, तो साधारण लोगोंको वेद क्षमा करते हैं । अन्य कारण हों, तो वे अक्षम्य होते हैं ।
४. धर्माचरणके अभावका दुष्परिणाम
१. दर्पो नाम श्रियः पुत्रो जज्ञेऽधर्मादिति श्रुतिः ।
– महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय ९१, श्लोक २४
अर्थ : दर्प लक्ष्मीका पुत्र है; कहते हैं कि वह लक्ष्मीको अधर्मद्वारा प्राप्त हुआ ।
५. धर्माचरण करवाना
‘केवल उपदेशसे मनुष्य धर्मकी ओर नहीं मुडता । धर्मकी ओर उन्मुख होनेके लिए पारितोषिकका लोभ अथवा दण्डका भय आवश्यक
है । धर्मशास्त्रोंमें अथवा पुराणोंमें विभिन्न धार्मिक कृत्योंकी फलश्रुति प्रतिपादित की गई है, जिसमें वर्णित विशेष वस्तुओंके लोभसे मनुष्य धर्माचरण करते हुए दिखाई देते हैं । दुष्प्रवृत्तिवाले लोगोंपर उपदेश अथवा फलश्रुति का कोई प्रभाव नहीं पडता । ऐसे लोगोंको केवल दण्ड देकर ही धर्मके मार्गपर लाना पडता है । दण्ड तथा पारितोषिकके बिना, धर्मका अनुशासन नहीं हो सकता ।
६. धर्मका अर्थ समझकर किया गया धर्माचरण ही खरा धर्माचरण !
यस्य धर्मो हि धर्मार्थं क्लेशभाङ्न स पण्डितः ।
न स धर्मस्य वेदार्थं सूर्यस्यान्धः प्रभामिव ॥
– महाभारत, वनपर्व, अध्याय ३४, श्लोक २३
अर्थ : (तत्त्वको बिना समझे) केवल धर्मके लिए जो धर्माचरण करे, वह समझदार नहीं, दुःखका भागी होता है । जिस प्रकार अन्धेको सूर्यकी प्रभाका पता नहीं चलता, उसी प्रकार तत्त्वको न जाननेवाला, धर्मके अर्थसे अनभिज्ञ होता है ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘धर्मका आचरण एवं रक्षण’