चतुर्थी पर वर्जित है चंद्रदर्शन
इतिहास
जिस दिन गणेश तरंगें प्रथम पृथ्वी पर आईं अर्थात जिस दिन गणेशजन्म हुआ, वह दिन था माघ शुक्ल पक्ष चतुर्थी । उसी दिन से गणपति का चतुर्थी से संबंध स्थापित हुआ ।
श्री गणेश जयंती
माघ शुक्ल पक्ष चतुर्थी ‘श्री गणेश जयंती’ के रूप में मनाई जाती है । इस तिथि की विशेषता यह है कि, इस पर अन्य दिनों की तुलना में गणेशतत्त्व १ सहस्र गुना अधिक कार्यरत रहता है ।
आगे दी गई एक अनुभूति से स्पष्ट होगा कि, इस तिथि पर गणेशतत्त्व कैसे जागृत होता है ।
श्री गणेश जयंती’ का भान न होते हुए भी नामजप के समय अपनेआप श्री गणेश का नामजप आरंभ होना : ‘१२.०२.२००५ के दिन श्री गणेश जयंती थी; परंतु मुझे यह ज्ञात नहीं था । सवेरे ७.३० से ८ के बीच जब मैं व्यक्तिगत नामजप कर रहा था, तब अपनेआप श्री गणपति का नामजप आरंभ हो गया । मैंने पुनः अपना व्यक्तिगत नामजप आरंभ किया, तो भी अपनेआप श्री गणपति का ही नामजप आरंभ हो गया । मैंने वही जारी रखा । नामजप पूर्ण होने पर मुझे पता चला कि, ‘उस दिन श्री गणेश जयंती के निमित्त नामजप के समय श्री गणपति का ही नामजप करना है ।’ तब समझ में आया कि, ‘नामजप के समय श्री गणपति का ही नामजप अपनेआप क्यों हो रहा था ।’ गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त हुई ।
१. चतुर्थी का महत्त्व
अ. गणपति के स्पंदन तथा चतुर्थी तिथि पर पृथ्वी के स्पंदन एक समान होने के कारण, वे एक दूसरे के लिए अनुकूल होते हैं; अर्थात उस तिथि पर गणपति के स्पंदन पृथ्वी पर अधिक मात्रा में आ सकते हैं । प्रत्येक महीने की चतुर्थी पर गणेशतत्त्व नित्य की तुलना में पृथ्वी पर १०० गुना अधिक कार्यरत रहता है । इस तिथि पर की गई श्री गणेश की उपासना से गणेशतत्त्व का लाभ अधिक होता है ।
आ. चतुर्थी अर्थात जागृति, स्वप्न एवं सुषुप्ति के परे की तुर्यावस्था । वही साधक का ध्येय है ।
इ. ‘अग्निपुराण’ ग्रंथ में भोग और मोक्ष की प्राप्ति हेतु चतुर्थी के व्रत का विधान बताया गया है ।
ई. चंद्रदर्शन निषेध : इस दिन चंद्र को नहीं देखना चाहिए, क्योंकि चंद्र का प्रभाव मन पर होता है । वह मन को कार्य करने पर प्रवृत्त करता है; परंतु साधक को तो मनोलय करना है । ग्रहमाला में चंद्र चंचल है अर्थात उसका आकार घटता-बढता है । उसी प्रकार शरीर में मन चंचल है । चंद्रदर्शन से मन की चंचलता एक लक्षांश बढ जाती है । यह मन जब उन्मनी (मन के परे की अवस्था) हो जाता है, तब ही तुर्यावस्था प्राप्त होती है । संकष्टी पर दिनभर साधना कर रात्रि के समय चंद्रदर्शन करते हैं । एक प्रकार से चंद्रदर्शन की क्रिया साधना काल के अंत एवं मन के कार्यारंभ की सूचक है ।
पुराणों में इससे संबंधित एक कथा इस प्रकार है – एक दिन चंद्र ने गणपति के डील-डौल का मजाक उडाया, ‘देखो तुुम्हारा इतना बडा पेट, सूप जैसे कान, क्या सूंड और छोटे-छोटे नेत्र !’ इस पर गणपति ने उसे श्राप दिया, ‘अब से कोई भी तुम्हारी ओर नहीं देखेगा । यदि कोई देखे भी तो उस पर चोरी का झूठा आरोप लगेगा ।’ उसके उपरांत चंद्र को न कोई अपने पास आने देता, न ही वह कहीं आ-जा सकता था । उसके लिए अकेले जीना कठिन हो गया । तब चंद्र ने तपश्चर्या कर गणपति को प्रसन्न किया एवं प्रतिशाप की विनती की । गणपति ने मन ही मन सोचा, ‘शाप तो मैं पूर्ण रूप से वापस नहीं ले सकता । उसका कुछ तो प्रभाव रहना ही चाहिए एवं अब प्रतिशाप भी देना पडेगा । कैसे करूं कि, अपना दिया हुआ शाप भी नष्ट न हो और उसे प्रतिशाप भी दे सकूं ?’ ऐसा विचार कर गणपति ने चंद्र को प्रतिशाप दिया, ‘श्री गणेश चतुर्थी के दिन तुम्हारे दर्शन कोई नहीं करेगा; परंतु संकष्टी चतुर्थी के दिन तुम्हारे दर्शन किए बिना कोई भोजन नहीं करेगा ।’
यदि भूल से हो जाए दर्शन तो करें ये उपाय
जाने-अनजाने यदि कोई व्यक्ति गणेश चतुर्थी के दिन चंद्रमा देख ले तो उसे इससे लगने वाले मिथ्या दोष से बचने के लिए निम्नलिखित मंत्र का जाप करना चाहिए
सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मारोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः॥
२. चतुर्थी के प्रकार
शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को ‘विनायकी’ एवं कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को ‘संकष्टी’ कहते हैं ।
अ. विनायकी : इस दिन की पूजाविधि में संकष्टी समान चंद्रदर्शन एवं चंद्रपूजा नहीं होती । दिनभर उपवास रखने के उपरांत अगले दिन व्रत की समाप्ति करते हैं । इस व्रत के देवता ‘श्री सिद्धिविनायक’ हैं एवं सब मंगलमय होने के लिए विनाय की (व्रत) रखते हैं ।
आ. संकष्टी : संकष्ट का अर्थ है संकट । पृथ्वी से प्रक्षेपित ३६० तरंगों से हम घिरे रहते हैं, जिससे हमारे शरीर में होनेवाले प्रवाह में रुकावट आती है । इसी को संकट कहते हैं । कृष्ण पक्ष में ३६० तरंगें अधिक मात्रा में कार्यरत रहती हैं । इससे हमारे शरीर की नाडियों में प्रवाह थम जाता है । इस संकट के निवारण के लिए संकष्टी का अनुपालन करते हैं । श्री गणपति ३६० तरंगों के अधिपति हैं तथा उनकी उपासना करने से इन तरंगोंद्वारा उत्पन्न संकट से छुटकारा मिलता है । इस तिथि पर दिनभर निराहार रहें एवं संध्या होने पर स्नान कर, श्री गणपतिपूजन की सिद्धता (तैयारी) करें । रात्रि चंद्रदर्शन के उपरांत घर में रखी श्री गणेश मूर्ति की एवं यदि मूर्ति न हो तो एक सुपारी को अक्षत के पुंज पर रख, उसे ‘श्री गणपति’ मानकर उसकी षोडशोपचार पूजा करें । अथर्वशीर्ष इक्कीस बार दोहराएं । चंद्र को अर्घ्य अर्पित कर उसकी दिशा में गंध, फूल एवं अक्षत चढाकर उसे नमस्कार करें । चतुर्थी के दिन अर्घ्य ताम्रपात्र में अर्पित करें । अंत में महानैवेद्य चढाकर भोजन करें । इस व्रत के देवता ‘श्री विघ्नविनायक’ हैं ।
इ. अंगारकी : मंगलवार के दिन आनेवाली चतुर्थी को ‘अंगारकी’ कहते हैं । अंगार शब्द का अर्थ है मंगल ग्रह अथवा भूमि । जैसे पृथ्वी पर, वैसे मंगल पर भी गणपति का आधिपत्य है । गणपति एवं मंगल का रंग भी एक है । अंगारकी के दिन गणेश स्पंदन पृथ्वी पर अधिक मात्रा में आते हैं । इसी प्रकार मंगल से भी गणेश स्पंदन पृथ्वी पर आते हैं, जिस कारण चंद्र से प्रसारित तरंगें अधिक मात्रा में नष्ट होती हैं । इसीलिए ‘अंगारिका विनायकी’ तथा ‘अंगारिका संकष्टी’का फल वर्षभर रखी गई क्रमशः सर्व विनायकी एवं संकष्टी समान है । अंगारकी व्रत अन्य व्रतों जैसा अहोरात्रि (दिन-रात रखना) नहीं है । यह व्रत पंचप्रहर रखा जाता है । यह व्रत दिन के चार तथा रात्रि का एक प्रहर अर्थात कुल पंचप्रहर का है । चंद्रोदय होने पर भोजन ग्रहण किया जाता है । यहां पर भोजन करनेकाअर्थ व्रत-समाप्ति नहीं, अपितु यह व्रत के विधान का ही एक महत्त्वपूर्ण भाग है ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘श्री गणपति’