‘श्री गणेशाय नमः ।’ में ‘श्री’ अर्थात ‘श्रीं’ है तथा वह बीजमंत्र है । ‘गणेशाय’ मूल बीज की संकल्पना है, जबकि ‘नमः’ पल्लव है ।
देवताओं से प्रक्षेपित स्पंदन मुख्यतः निर्गुण तत्त्व से संबंधित होते हैं । देवताओं को अर्पित पुष्प तत्त्व ग्रहण कर पूजक को प्रदान करते हैं, जिससे पुष्प में आकर्षित स्पंदन भी पूजक को मिलते हैं ।
‘दुः’ अर्थात दूरस्थ एवं ‘अवम्’ अर्थात वह जो पास लाता है । दूर्वा वह है, जो श्री गणेश के दूरस्थ पवित्रकों को पास लाती है ।
नित्य उपासना में भाव अथवा सगुण तत्वकी, तथापि गणेशाेत्सव में गणेशतत्त्व आकर्षित करनेवाली आनंद अथवा निर्गुण तत्त्वकी कैनसी रंगोलियां बनाएं ये जानकारी इस लेख में दी है ।
देवता से संबंधित अध्यात्मशास्त्र का ज्ञान होने से उस देवता के प्रति हमारी श्रद्धा बढती है । श्रद्धा से धार्मिक विधि में भाव उत्पन्न होता है और भावसहित पूजा करना अधिक लाभकारी है । इस लेख में श्रीगणेशजी के मूर्तिविज्ञान, उनकी प्रतिमा की विविधताएं तथा मूर्ति के विभिन्न भागों का भावार्थ बताया गया है ।
अन्य देवता किसी भी दिशा से श्री गणेश की अनुमति के बिना पूजास्थान पर नहीं आ सकते । इसलिए मंगलकार्य अथवा अन्य किसी भी देवतापूजन के समय प्रथम श्री गणपतिपूजन करते हैं । श्री गणेशद्वारा दिशाएं मुक्त किए जानेपर, जिस देवता की हम पूजा कर रहे हैं, वे वहां पर पधार सकते हैं ।
आजकल धर्मशास्त्र का विचार न कर, अपनी-अपनी अभिरुचि व कल्पनानुसार विभिन्न आकारों एवं विविध रूपों में श्री गणेश की मूर्तियां (उदा. गरुड पर बैठे हुए श्री गणेश, श्रीकृष्ण के वेश में श्री गणेश एवं नृत्य करनेवाले श्री गणेश) पूजी जाती हैं ।
अष्टविनायक महाराष्ट्र के प्रसिद्ध तीर्थस्थल हैं । अष्टसिद्धि गणपति की पत्नियां हैं । अष्टविनायक एक-एक सिद्धि के निर्देशक के रूप में प्रसिद्ध हुए होंगे । अष्टविनायकों का संबंध अष्टदिशाओं से भी होता है ।
श्री गणपति के कुछ अन्य नाम एवं उनका आध्यात्मिक अर्थ इस लेख में दिया गया है ।
प्रत्येक देवता एक तत्त्व है आैर यह तत्त्व युगों-युगों से है । यह तत्त्व विशिष्ट काल के लिए आवश्यक सगुण रूप में प्रगट होता है । श्री गणपति के कालानुसार विभिन्न अवतार कौन से हुए हैं, यह इस लेख में पढें ।