१. व्युत्पत्ति एवं अर्थ
दुः + अवम्, इन शब्दों से दूर्वा शब्द बना है । ‘दुः’ अर्थात दूरस्थ एवं ‘अवम्’ अर्थात वह जो पास लाता है । दूर्वा वह है, जो श्री गणेश के दूरस्थ पवित्रकों को पास लाती है ।
२. श्री गणपति को दूर्वा अर्पित किए जाने के कारण
अ. पौराणिक कारण : गणपति से विवाह करने की कामना से एक अप्सराने ध्यानमग्न गणपति का ध्यानभंग किया । जब गणपति विवाह के लिए तैयार नहीं हुए, तब अप्सराने गणपति को श्राप दिया । इससे गणपति के मस्तक में दाह होने लगा, जिसे न्यून (कम) करने के लिए गणपतिने मस्तक पर दूब धारण की; इसलिए श्री गणपति को दूब चढाते हैं ।
आ. आयुर्वेद के अनुसार कारण : आयुर्वेद भी बताता है कि, ‘दूब की रस से शरीर का दाह न्यून होता है ।’
इ. आध्यात्मिक कारण : पूजा का एक उद्देश्य ऐसा भी होता है कि, जिस मूर्ति की हम पूजा करते हैं, उसके देवत्त्व में वृद्धि हो एवं चैतन्य के स्तर पर हमें उसका लाभ हो । इसलिए उस देवता को उनका तत्त्व अधिक से अधिक आकर्षित करनेवाली वस्तुएं चढाना उपयुक्त होता है । दूर्वा में गणेशतत्त्व आकर्षित करने की क्षमता सर्वाधिक होती है, अतः श्री गणेश को दूर्वा चढाते हैं ।
३. दूर्वा कैसी हो ?
गणपति को चढाई जानेवाली दूर्वा कोमल हो । इसे ‘बालतृणम्’ कहते हैं । जीर्ण होने पर वे एक प्रकार की घास जैसी हो जाती हैं । दूर्वा की पत्तियां ३, ५, ७ की विषम संख्या में हों ।
४. दूर्वा की लंबाई कितनी हो ?
पूर्वकाल में गणपति की मूर्ति की ऊंचाई लगभग एक मीटर होती थी, इसलिए समिधा की लंबाई जितनी दूर्वा अर्पण करते थे । मूर्ति यदि समिधा जितनी लंबी हो, तो लघु आकार की दूर्वा अर्पण करें; परंतु मूर्ति बहुत बडी हो, तो समिधा के आकार की ही दूर्वा चढाएं । जैसे समिधा एकत्र बांधते हैं, उसी प्रकार दूर्वा को भी बांधते हैं । ऐसे बांधने से उनकी सुगंध अधिक समय टिकी रहती है । उसे अधिक समय चैतन्यमय (ताजा) रखने के लिए जल में भिगोकर चढाते हैं । इन दोनों कारणों से गणपति के पवित्रक बहुत समयतक मूर्ति में रहते हैं ।
५. दूर्वा की संख्या कितनी होनी चाहिए ?
विषम संख्याएं शक्ति से संबंधित होती हैं । दूर्वा अधिकतर विषम संख्या में (न्यूनतम ३ अथवा ५, ७, २१ आदि) अर्पण करते हैं । विषम संख्या के कारण मूर्ति में अधिक शक्ति आती है । गणपति को विशेषतः २१ दूर्वा अर्पण करते हैं । संख्याशास्त्रानुसार २१ अंक २ + १ = ३, इस प्रकार है । श्री गणपति ३ की संख्या से संबंधित है । ३ का अंक कर्ता, धर्ता एवं हर्ता भी होने के नाते उस शक्तिद्वारा ३६० तरंगों को नष्ट करना संभव हो जाता है । सम संख्या में दूर्वा चढाने से अधिकाधिक ३६० तरंगें आकर्षित होती हैं एवं तदुपरांत १०८ तरंगें भी आकर्षित होती हैं । (रावण प्रतिदिन ३६० + १०८ = ४६८ दूर्वा अर्पण करता था ।)
६. दूर्वा अर्पण करने की पद्धति
मुख को छोडकर, संपूर्ण गणपति को दूर्वा से ढक देना चाहिए । उससे मूर्ति के आसपास दूर्वा की सुगंध फैलने लगती है । गणपति को दूर्वा से ढकने पर यह सुगंध गणपति के आकार में संचारित होती है; इसलिए गणपति के पवित्रकों के आकार का इस आकार की ओर आना सरल हो जाता है । यह है ‘मूर्ति का समाकारिकत्व ग्रहण करना ।’ इसी को ‘मूर्ति जागृत हुई’ भी कहते हैं । मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा इसलिए करते हैं कि, उसमें आए पवित्रक निकल न जाएं उसी में रहें । जबतक सुगंध होती है, पवित्रक अधिक मात्रा में रहते हैं । पवित्रक टिके रहें, इस हेतु से दिन में तीन बार (पहले चढाई हुई दूर्वा को हटाकर) चढाते हैं एवं उसके लिए दिन में तीन बार पूजा करते हैं ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘श्री गणपति’