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भगवान श्रीगणेशजी के अन्य नाम एवं उनके अर्थ

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मुद्गल ऋषि ने ‘गणेशसहस्रनाम’ लिखा है । उसमें गणपति के १ सहस्र (हजार) नाम दिए गए हैं । द्वादशनाम स्तोत्र में श्री गणपति के १२ नाम इस प्रकार हैं ।

प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम् ।
तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ॥
लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च ।
सप्तमं विघ्नराजेन्द्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम् ॥
नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् ।
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ॥

उपरोक्त बारह नाम तथा श्री गणपति के कुछ अन्य नाम एवं उनका आध्यात्मिक अर्थ आगे दिया गया है ।

१. वक्रतुंड

सामान्यतः ‘वक्रतुंड’का अर्थ ‘वक्र मुंह अथवा सूंडवाला’ लगाया जाता है; परंतु यह अर्थ उचित नहीं है । ‘वक्रान् तुण्डयति इति वक्रतुण्डः ।’, अर्थात ‘वक्र (बुरे) मार्ग पर चलनेवालों एवं बोलनेवालों को दंड देकर सीधे मार्ग पर लानेवाले को वक्रतुंड कहते हैं ।’ तिर्यक (रज-तम) एवं विस्फुटित (तम-रज) अर्थात वह जो ३६० टेढी रज-तमात्मक तरंगों को अपनी सूंड के माध्यम से १०८ तरंगों के समान सीधा एवं सात्त्विक बनाता है ।

२. एकदंत अथवा एकशृंग

यह नाम इसलिए कि, गणपति का एक ही दंत अखंड है (दूसरा टूटा हुआ है) । दो दंतों में से दाहिना दंत अखंड होता है, बायां दंत टूटा हुआ होता है ।

अ. दाहिनी बाजू सूर्यनाडी की होती है । सूर्यनाडी तेजस्वी होती है, इसलिए ऐसे तेजस्वी भाग का दंत कभी भी खंडित नहीं हो सकता ।

आ. ‘एक’ ब्रह्म का निर्देशक है, एकदंत ।

इ. ‘दंत’ शब्द दृ-दर्शयति (अर्थात दिखाना) धातु से बना है । इसका यह भी अर्थ है कि, एकदंत वह है जो ‘एक’ ब्रह्म की अनुभूति पाने की दिशा दिखाता है ।

ई. मेधा तथा श्रद्धा, दो दंत हैं । मेधा अर्थात बुद्धि, धारणशक्ति । मेधा अपूर्ण (खंडित) दंत तथा श्रद्धा पूर्ण दंत है ।

३. कृष्णपिंगाक्ष

कृष्ण + पिंग + अक्ष, इस प्रकार यह शब्द बना है । कृष्ण अर्थात सांवला, पिंग अर्थात धूमवर्ण (धुएं समान) एवं अक्ष अर्थात नेत्र । सांवला पृथ्वी के संदर्भ में है, धूमवर्ण मेघ के संदर्भ में है । ‘पृथ्वी एवं मेघ जिसके नेत्र हैं अर्थात वह जो पृथ्वी एवं मेघ के मध्य में जो कुछ भी है, उसे संपूर्ण रूप से देख सकता है ।’

४. गजवक्त्र

अ. गज अर्थात मेघ । इसे द्यु (देव) लोक का प्रतिनिधि मानते हैं । वक्त्र अर्थात मुंह । गजवक्त्र अर्थात वह जिसका मुंह द्युलोक समान (विराट) है । यदि ‘ॐ’ को निचे दिये गये प्रकार से खडा किया जाए, तब वहां गजवदन की प्रतीति होती है ।

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गजवदन की प्रतीति

आ. ग = वह तत्त्व जिसमें सबका लय होता है और ज = वह तत्त्व जिससे सबका जन्म होता है; अतः गज अर्थात ‘ब्रह्म’ । (मुद्गलपुराण)

५. लंबोदर

यह शब्द लंब (अर्थात बडा) तथा उदर के मेल से बना है ।

अ. लंबोदर शब्द का अर्थ संत एकनाथ महाराज ने कुछ ऐसा दिया है – ‘चराचर सृष्टि आपके उदर में विचरती है, इसलिए आपको लंबोदर कहते हैं ।’ – एकनाथी भागवत, आरंभ, पंक्ति ३

आ. गणपतितंत्रानुसार, भगवान शिव जी ने डमरू बजाया । डमरू के गंभीर नाद से (ध्वनि से) श्री गणेश ने वेदविद्या ग्रहण की । प्रतिदिन तांडवनृत्य देखकर श्री गणेश ने नृत्यकला सीखी । माता पार्वती के नूपुर की झंंकार से उन्होंने संगीत सीखा । इतने विविध प्रकार का ज्ञान उन्होंने आत्मसात अर्थात उदरस्थ किया; इसलिए उनका उदर बडा हो गया ।

६. विकट

वि + कृत + अकत (आकुति) । वि अर्थात विशेषतः, कृत अर्थात किया हुआ एवं अकत अर्थात मोक्ष; इसीलिए विकट अर्थात वह ‘जो विशेष पद्धति से तरंगें उत्पन्न कर मोक्ष प्रदान करता है ।’

७. विघ्नेश

विघ्न + ईश = विघ्नेश । विघ्न शब्द ‘विशेषेण घ्नन्तीति विघ्नानि ।’ (विघ्न वे हैं, जो विशेषकर हिंसा करते हैं, कष्ट देते हैं ।) से बना है । विघ्नों के, संकटों के ईश को अर्थात उनका नियमन एवं नाश करनेवाले को कहते हैं विघ्नेश । विघ्न अर्थात ३६० (रज-तम) तथा १०८ (सत्त्व) तरंगों सेे घिरा होना । यह त्रिगुणातीत होने के ध्येय के विपरीत है । ईश शब्द ई + श से बना है । ई-ईक्षते अर्थात देखना एवं श-शमयते अर्थात शांत करना; इसलिए ईश अर्थात इन ३६० एवं १०८ तरंगों पर ध्यान देकर उनकी तपिश को लुप्त करनेवाला, उन्हें नष्ट करनेवाला । गणपति का एक नाम ‘विघ्नहर्ता’ भी है । श्री गणपति विघ्नहर्ता हैं, इसलिए किसी भी धार्मिक मंगलविधि से पूर्व श्री गणेशपूजन होता है ।

८. धूम्रवर्ण

धूम्र अर्थात धुआं । धुआं घनीकरण के समय की प्राथमिक अवस्था है । घनरूप में सगुण एवं निर्गुण के बीच की अवस्था है धुआं । जो ऐसे धूम्रवर्ण का है, इसलिए यह नाम । ‘जहां धुआं है, वहां अग्नि है’, इस नियमानुसार श्री गणपति में अग्नितत्त्व (अंगार) है ही ।

९. भालचंद्र

भाल अर्थात भौहों के ऊपर मस्तक का भाग । प्रजापति, ब्रह्मा, शिव, श्रीविष्णु तथा मीनाक्षी से प्रसारित तरंगों के एक-दूसरे में मिश्रित होने पर, उनसे सहस्रों तरंगों के कई समूह निर्मित होते हैं । प्रजापति, ब्रह्मा, शिव, श्रीविष्णु तथा मीनाक्षी निर्गुण हैं; परंतु उनकी तरंगें गुणमय हैं । उनमें से तीन तरंगें अर्थात ममता, क्षमाशीलता व वात्सल्य की (आह्लादकी) तरंगें जहां से निकलती हैं, उसे चंद्र कहते हैं । ऐसे ‘चंद्र’ को जिसने अपने भाल (मस्तक)पर धारण किया है, उसे भालचंद्र कहते हैं । मूलतः यह नाम भगवान शिव का है; परंतु शिवपुत्र होने के नाते गणपति का भी यह नाम पड गया ।

१०. विनायक

‘विशेषरूपेण नायकः ।’से यह शब्द आया है । इसका अर्थ कुछ इस प्रकार है – जिसमें नायक की अर्थात, नेता की समस्त विशेषताएं विद्यमान हैं । ‘यह सर्वमान्य है कि, कुल छः विनायकगण हैं । मानवगृह्यसूत्र तथा बौधायनगृह्यसूत्र में विनायकगणों के संदर्भ में जानकारी दी गई है, जिसका सारांश यह है कि, विनायकगण विघ्नकारी, उपद्रवकारी तथा क्रूर होते हैं । एक बार उनका उपद्रव आरंभ हो जाए, तो मनुष्य का आचरण विक्षिप्त हो जाता है । उन्हें भयानक स्वप्न आते हैं और वे सदैव भयभीत रहते हैं । इन विनायकगणों की बाधा नष्ट होने हेतु धर्मशास्त्र में अनेक शांतिविधियां बताई गई हैं । श्री गणपति विनायक हैं अर्थात सर्व विनायकगणों के अधिपति हैं । शिवजी ने गणपति से कहा, ‘विनायकगण तुम्हारे सेवक होंगे । यज्ञ आदि कार्य में तुम्हारी पूजा प्रथम होगी । जो व्यक्ति ऐसा न करे, उसकी कार्यसिद्धि में विघ्न आएंगें ।’ तब से कार्यारंभ में श्री गणपतिपूजन होने लगा । विनायकगण विघ्नरूप थे; परंतु विनायक विघ्नहर्ता हो गए । भक्तों को अभीष्टसिद्धियां प्राप्त करवानेवाले वे सिद्धिविनायक बन गए ।’

११. श्री गणपति

गण + पति = गणपति । संस्कृतकोशानुसार ‘गण’ अर्थात पवित्रक । पवित्रक अर्थात सूक्ष्मातिसूक्ष्म चैतन्यकण । ‘पति’ अर्थात स्वामी । ‘गणपति’ अर्थात पवित्रकों के स्वामी ।

१२. गजानन

गज अर्थात ‘हाथी’ एवं आनन अर्थात ‘मुख’ । वह जिसका मुख (चेहरा) हाथी के मुख समान है (तथा देह है संपूर्ण विश्‍व) ।

१३. व्रातपति

‘श्री गणपत्यथर्वशीर्ष में गणपति को ‘नमो व्रातपतये’, ऐसे नमन किया है ।

१४. चिंतामणि

‘यह गणपति का अन्य एक नाम है । चित्त की पांच अवस्थाएं होती हैं – क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध । जो इन अवस्थाओं को प्रकाशित करता है, वह चिंतामणि कहलाता है । चिंतामणि के भजन से चित्त की पांचों अवस्थाओं का नाश होता है तथा पूर्ण शांति का लाभ होता है ।’ – मुद्गलपुराण (३)

१५. मंगलमूर्ति

मङ्गं सुखं लाति इति मङ्गलम् । मंग अर्थात सुख प्राप्त करवाता है, वह मंगल । ऐसी मंगलकारी मूर्ति को ‘मंगलमूर्ति’ कहते हैं ।

१६. उमाफल

उमा अर्थात पार्वती । पार्वती का फल अर्थात ‘पुत्र’ के अर्थ से श्री गणपति का यह एक नाम है । उमाफल का दूसरा अर्थ है ज्ञान । श्री गणपति ज्ञान के देवता हैं; इसलिए यह नाम दोनों अर्थों से श्री गणपति के लिए लागू होता है ।

१७. विद्यापति

१. शिक्षा, २. कल्प, ३. व्याकरण, ४. निरुक्त, ५. ज्योतिष, ६. छंद, ७. ऋग्वेद, ८. यजुर्वेद, ९. सामवेद, १०. अथर्ववेद, ११. पूर्व-उत्तरमीमांसा, १२. न्याय, १३. पुराण, १४. धर्मशास्त्र, १५. आयुर्वेद, १६. धनुर्वेद, १७. गांधर्ववेद और १८. नीतिशास्त्र इन १८ विद्याओं के अधिपति श्री गणेश हैं; इसलिए विद्याओं का अध्ययन आरंभ करने से पहले अथवा विद्यांर्तगत पाठ्यक्रम में श्री गणेशपूजन महत्त्वपूर्ण है ।

१८. ब्रह्मणस्पति

वेदों को ‘ब्रह्म’ कहते हैं । ‘वेदब्रह्म’, ऐसा शब्दप्रयोग करते हैं । इन वेदों के मंत्रों के अधिपति श्री गणेश हैं; इसलिए उन्हें ‘ब्रह्मणस्पति’ कहते हैं ।

१९. भूभाग के अनुसार विविध नाम

विभिन्न प्रांतों में श्री गणेश के विभिन्न नाम प्रचलित हैं । दक्षिण हिंदुस्थान में श्री गणेश को ‘राजमुख’ अथवा ‘मुरुगन’ संबोधित किया जाता है । नेपाल में वह ‘सूर्यगणपति’, म्यानमार में (पहले का ब्रह्मदेश) ‘महापिनी’, मंगोलिया में ‘धोतकार’, तिब्बत में ‘एकदंत’, कंबोडिया में ‘प्रदगणेश’, जावा द्वीप पर ‘कलांतक’, चीन में ‘क्वान्शिटियिक’ तथा जापान में ‘विनायकशा’ के नामों से प्रचलित हैं ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘श्री गणपति