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श्री गणेशजी की विविध मूर्तियां

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देवता से संबंधित अध्यात्मशास्त्र का ज्ञान होने से उस देवता के प्रति हमारी श्रद्धा बढती है । श्रद्धा से धार्मिक विधि में भाव उत्पन्न होता है और भावसहित पूजा करना अधिक लाभकारी है । इस लेख में श्रीगणेशजी के मूर्तिविज्ञान, उनकी प्रतिमा की विविधताएं तथा मूर्ति के विभिन्न भागों का भावार्थ बताया गया है ।

१. सर्वसामान्य मूर्ति

‘श्री गणपति अथर्वशीर्ष’ में श्री गणेश का मूर्तिविज्ञान (रूप) इस प्रकार दिया हुआ है – ‘एकदन्तं चतुर्हस्तं…।’ अर्थात ‘एकदंत, चतुर्भुज, पाश एवं अंकुश धारण करनेवाला, जिसके एक हाथ में (टूटा हुआ) दांत है तथा दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है, जिसका ध्वज मूषकचिह्नांकित है, रक्त (लाल) वर्ण, लंबोदर, सूप जैसे कान हैं, जिसने रक्त (लाल) वस्त्र धारण किए हैं, शरीरको रक्तचंदन का अनुलेप लगाया है तथा जिसका पूजन रक्त (लाल) पुष्पों से किया गया है ।’

२. कुछ विविधता

अ. गणपति कभी पद्मासनस्थित, तो कभी नृत्यमुद्रा में भी दिखाई देते हैं ।

आ. हिमालय में एक ‘मुंडकटे’ श्री गणेश हैं । इस नाम से ही ज्ञात होता है कि, मूर्ति का सिर नहीं है । पार्वती के शरीर की मैल से बनाए पुत्र का भगवान शंकर ने शिरच्छेद किया । ऐसा मानते हैं कि, यह उसी की मूर्ति है ।

इ. अन्य रंग : हरिद्रागणपति एवं ऊर्ध्वगणपति पीले होते हैं । पिंगलगणपति पिंगल वर्ण का (भूरा लाल अथवा भूरा पीला), तो श्री लक्ष्मीगणपति शुभ्र वर्ण का होता है ।

ई. लिंग : शिवलिंग समान गणपति का भी लिंग होता है । उसे गाणपत्यलिंग कहते हैं । वह अनार, नींबू, कुम्हडे अथवा जामुन के आकार का होता है ।

उ. नग्न : तांत्रिक उपासना की श्री गणेशमूर्ति अधिकतर नग्न होती है एवं उस मूर्ति के साथ उसकी शक्ति भी होती है ।

ऊ. स्त्रीरूप : ‘शाक्त संप्रदाय में श्री गणेश स्त्रीरूप में पूजे जाते हैं । इसके कुछ उदाहरण आगे दिए अनुसार हैं ।

ऊ १. गणेश्‍वरी : तमिलनाडु के सुचिंद्रम् देवालय में अत्यंत मनोवेधक गणेश्‍वरी शिल्प है ।

ऊ २. अर्ध गणेश्‍वरी : तांत्रिक उपासना के अंतर्गत यह एक अत्यंत अर्थपूर्णस्वरूप है ।

ए. गणेशानी : अत्यंत दुर्लभ तांत्रिक-मांत्रिक आराधना में यह देवी पाई जाती है ।

ऐ. सौम्यगणपति, बालगणपति, हेरंबगणपति, लक्ष्मीगणपति, हरिद्रागणपति, उच्छिष्टगणपति, सूर्यगणपति, वरदगणपति, द्विभु-जगणपति, दशभुजगणपति, नर्तनगणपति, उत्तिष्ठितगणपति, दाहिनी सूंडवाला गणपति इत्यादि अनेक प्रकार हैं ।

३. मूर्ति के विविध भागों का भावार्थ

अ. संपूर्ण मूर्ति

ओंकार, निर्गुण ।

आ. सूंड

आ १. दाहिनी सूंड : जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाग का मोड दाहिनी ओर हो, उसे दक्षिणमूर्ति अथवा दक्षिणाभिमुखी मूर्ति कहते हैं । यहां दक्षिण का अर्थ है दक्षिण दिशा अथवा दाहिना भाग । दक्षिण दिशा यमलोक की ओर ले जानेवाली एवं दाहिना भाग सूर्यनाडी का है । जो यमलोक की दिशा का सामना कर सकता है, वह शक्तिशाली होता है तथा जिसकी सूर्यनाडी कार्यरत है, वह तेजस्वी भी होता है । इन दोनों अर्थों से दाहिनी सूंडवाले गणपतिको ‘जागृत’ माना जाता है । दक्षिण दिशा में यमलोक है, जहां पाप-पुण्य का गणित रखा जाता है । इसलिए यह दिशा अप्रिय लगती है । मृत्युपरांत दक्षिण की ओर जाने से जिस प्रकार लेखा-जोखा होता है, वैसी अनुभूति मृत्यु से पूर्व दक्षिणाभिमुख होकर बैठने से (अथवा सोते समय दक्षिण की ओर पैर रखनेसे) होने लगती है । दक्षिणाभिमुखी मूर्ति की पूजा सामान्य पद्धति से नहीं की जाती, क्योंकि तिर्यक (रज-तम) तरंगें दक्षिण दिशा से आती हैं । ऐसी मूर्ति की पूजा में कर्मकांडांतर्गत पूजाविधि के सर्व नियमों का यथार्थ पालन आवश्यक है । इससे सात्त्विकता बढती है एवं दक्षिण दिशा से प्रसारित रज-तम तरंगों से कष्ट नहीं होता ।

आ २. बाईं सूंड : जिस मूर्ति में सूंड के अग्रभाग का मोड बाईं ओर हो, उसे वाममुखी कहते हैं । वाम अर्थात बाईं दिशा अथवा उत्तर भाग । बाईं ओर चंद्रनाडी होती है । यह शीतलता प्रदान करती है एवं उत्तर दिशा अध्यात्म के लिए पूरक है, आनंददायक है । इसलिए पूजा में अधिकतर वाममुखी गणपति की मूर्ति रखी जाती है । इसकी पूजा नित्य की पद्धति से की जाती है ।

इ. मोदक

‘मोद’ अर्थात् भक्तों का विघ्न और उनका अनिष्ट शक्तियों से होनेवाला कष्ट अपने में खींच लेता है । गणपति मोदक खाते हैं अर्थात विघ्न और अनिष्ट शक्तियोंका विनाश करते हैं ।

‘मोदक ज्ञान का प्रतीक है, इसलिए उसे ‘ज्ञानमोदक’ भी कहते हैं । आरंभ में लगता है कि, ज्ञान थोडासा ही है (मोदक का ऊपरी भाग इसका प्रतीक है ।); परंतु अभ्यास आरंभ करनेपर समझ आता है कि, ज्ञान अथाह है । (मोदक का निचला भाग इसका प्रतीक है ।) जैसे मोदक मीठा होता है, वैसे ही ज्ञान से प्राप्त आनंद भी ।’ (?)

मोदक का आकार नारियल समान होता है । नारियल की एक विशेषता यह है कि, वह अपने में इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार के स्पंदन आकर्षित करता है । मोदक भी भक्तों का विघ्न और उनका अनिष्ट शक्तियों से होनेवाला कष्ट अपने में खींच लेता है ।

ई. अंकुश

आनंद एवं विद्या की प्राप्ति में विघातक शक्तियों का नाश करनेवाला ।

उ. पाश

श्री गणपति अनिष्ट शक्तियोंपर पाश डालकर उन्हें दूर ले जानेवाला है ।

ऊ. कटि से (कमरसे) लिपटा नाग

विश्‍वकुंडलिनी

ए. लिपटे हुए नाग का फन

जागृत कुंडलिनी

ऐ. मूषक

रजोगुण । मूषक, अर्थात रजोगुण, गणपति के नियंत्रण में है ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘श्री गणपति