Menu Close

रासलीला की पाश्र्वभूमि : गोपियों की मधुराभक्ति

rasleela_640

गोपियों की भक्ति को ‘आदर्श भक्ति’ की उपमा दी जाती है । मोहमाया से विरक्त गोपियों की व भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला कितनी पवित्र होगी ! फिर भी कलियुग में रासलीला को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है । इतना ही नहीं, भगवान व गोपियों के बीच क्रीड़ा कुछ लोगों को अधर्मयुक्त लगती है । रासलीला का नाम सुनते ही हममें से अधिकांश के मन में श्रद्धा के विचार कम ही आते हैं । इस लेख में हम रासलीला का वास्तविक अर्थ समझने का प्रयास करेंगे ।

१. मधुराभक्ति का अर्थ

मधुराभक्ति में ‘भक्त व भगवान’ के बीच ‘प्रियतम व प्रियतमा’ का संबंध होता है । मधुराभक्तिद्वारा जीव ईश्वर पर प्रेम करते-करते एक दिन स्वयं को भूल जाता है व पूर्णरूप से ईश्वर का हो जाता है । भक्त को भगवान से जो जोडे उसे भक्ति कहते हैं । इसलिए ‘मधुरा’ भक्ति का ही स्वरूप है ।

अ. माया का मिलन व मधुराभक्ति से साध्य होनेवाला अद्वैत

  • १. माया का मिलन
  • २. पुरुष व प्रकृति के मिलन से नई सृष्टि की निर्मिति : ईश्वर पुरुष है तथा माया प्रकृति है । पुरुष व प्रकृति का मिलन निरंतर होता है । उनके मिलन से नई सृष्टि की निर्मिति होती है व ब्रह्मांड की उत्पत्ति होती है ।
  • ३. उद्देश्य – परस्पर विरोधी प्रकृतियों में प्रेम उत्पन्न कर उनका मिलन करवाना : सगुण के स्तर पर मिलन के अनेक उदाहरण हैं । देवताओं के स्तर पर कामदेव व रति प्रमुखतः कार्यरत हैं । परस्पर विरोधी प्रकृतियों में प्रेम उत्पन्न कर उनका मिलन करवाना, निर्मिति का प्रमुख उद्देश्य है । उत्पत्ति की दृष्टि से यह अत्यंत उपयुक्त है ।
  • ४. कृति : जहां दो शरीरों का मिलन होता है, वह केवल संभोग क्रिया ही होती है ।

आ. मधुराभक्तिद्वारा साध्य अद्वैत

मधुराभक्ति में केवल दो शरीरों का मिलन नहीं होता । शरीरों का मिलन, संभोग क्रिया ही होगी; उसे भक्äित का स्वरूप प्राप्त नहीं होगा ।

इ. महत्त्व गोपियों व राधा का मधुराभक्तिद्वारा श्रीकृष्ण से एकरूप होना

‘श्रीकृष्ण के सर्व भक्तों में गोपियों तथा राधा का विशेष महत्त्व है । वे मधुराभक्तिद्वारा श्रीकृष्ण से एकरूप हुई थीं । अधिकांश लोग राधा-श्रीकृष्ण संबंध की आलोचना करते हैं । श्रीकृष्ण को भी भला-बुरा कहते हैं; परंतु संत कबीर जैसे अनेक संतों का कहना है कि, गोपियों की भक्ति सर्वश्रेष्ठ थी । उनके समान भक्ति कोई भी नहीं कर सका ।

२. रासलीला की निशा

अ. रासलीला की रात्रि श्रीकृष्णद्वारा गोपियों की परीक्षा लेना

श्रीकृष्णने शरद ऋतु की पूर्णिमा पर, रात यमुना के किनारे बांसुरी बजाई । गोकुल की गोपियां इस ध्वनि से मोहित होकर, अपनी सर्व वृत्तियों को त्यागकर वे श्रीकृष्ण के पास भागी आर्इं । श्रीकृष्णने उनसे कहा, ‘‘गोपियों, रात को ऐसे एकांत में और जंगल में अपना घर परिवार, बाल-बच्चे, पति, सास-ससुर, सबको छोडकर मेरे पास आना अधर्म है । गोपियों ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘‘भगवन्, आपका यह संपूर्ण उपदेश धर्माधारित है, इसलिए वह योग्य ही है; परंतु आपके इस धर्मोपदेश का उद्देश्य क्या है ? सबकी सेवा करने का उद्देश्य, सब धर्मानुष्ठानों का मर्म व इन सबका परमलक्ष्य आपकी प्राप्ति ही है न ? क्योंकि इन सबकी और हमारी आत्मा आप ही तो हैं न ? संतवचनों के आधार पर आप ही ने तो यह सब हमें बताया है कि, भगवान की भक्ति में उन्मत्त होकर तीव्र मुमुक्षोंद्वारा, प्रवृत्तिमार्गियोंद्वारा किया गया सर्व कर्मों का त्याग, उनका दुर्गुण नहीं, अपितु सद्गुण ही है । संसार में रहते हुए आपकी भक्ति में हम सुध-बुध खो बैठीं । ऐसे में प्रत्यक्ष ‘भगवान’ के रूप में आप यदि हमें ऐसा उपदेश देंगे, तो यहां से हमारे कदम पीछे हटने के लिए वैâसे उठेंगे ? पति-पुत्रादि सर्व सांसारिक मोहों का त्याग कर हम आपकी प्राप्ति के लिए आई हैं, लौटने के लिए नहीं ।’’ गोपियों के इन वचनों से भगवान अत्यधिक आनंदित हुए और उनके तीव्र मुमुक्षुत्व को देखते हुए, उन्हें उत्तमाधिकारी के रूप में स्वीकार किया । बड़े-बड़े तपस्वी भी जहां इस संसार के मोह को नहीं त्याग सके, वहां गोपियोंने यह मोह त्याग दिया । इसलिए श्रीकृष्णने प्रसन्न होकर, उन्हें स्वीकारा व तदुपरांत ही उनके साथ रासलीला की । उन लाखों गोपियों के साथ उतने ही लाखों रूप धारण कर श्रीकृष्णने क्रीड़ा की । यह करते हुए, उतनी ही गोपियों का रूप धारण कर, उतने ही समय के लिए श्रीकृष्ण उन गोपियों के पतिसमेत भी थे ।’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, ़िजला पुणे, महाराष्ट्र.

आ. रासोत्सव

‘श्रीकृष्णने अपने एक रूप से अनेक रूप धारण किए । प्रत्येक गोपी के साथ एक श्रीकृष्ण का महावर्तुल निर्माण हो गया । इस वर्तुल के मध्य में खडे होकर, मुरली बजाने के लिए एक और श्रीकृष्ण निर्माण हो गए ।

इ. रासलीला के दौरान श्रीकृष्ण का अंतर्धान होना

‘रासलीला करते समय गोपियों के एकाग्र अंतःकरण के कारण, प्रत्येक गोपी को गर्व हो गया कि, ‘मैंने भगवान को पूर्णतः अपने वश में कर लिया है और वे केवल मेरे साथ खेल रहे हैं ।’ तब भगवान लुप्त हो गए । जिस समय भगवान के दर्शन के लिए वे अत्यंत व्याकुल हो गर्इं व उनके प्राण निकलने का समय आ गया, तब वे पूर्ण रूप से भक्ति-अहंकारगलित हो गर्इं । उसी क्षण भगवान प्रकट हुए ।

ई. श्रीकृष्ण के पुनः दर्शन हेतु गोपियों के प्रयत्न

यहां पर ऐसा भाव है कि, क्रीड़ा करते समय, भगवान भी वही हैं तथा भक्त भी वही हैं । अनेक गोपियों का रूप धारण कर, भगवान मानो अपनेआप से हीr क्रीडा कर रहे हैं । भगवान के वियोग में गोपियां अत्यंत दुःखी हुर्इं; परंतु ध्यान देने योग्य विशेष बात यह है कि वे अपने घर नहीं लौटीं । गोपियों को वियोग का दुःख सहन नहीं हुआ; उसे सहने के लिए वे स्वयं वही सर्व क्रीडाएं करने लगीं, जो श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर गोकुल में हुई थीं । इस प्रकार एक गोपी नंद, एक गोपी श्रीकृष्ण, एक गोपी पूतना व एक गोपी राक्षस बनी और उस विशिष्ट प्रसंग को नाटक जैसे अभिनीत कर, भगवान से एकरूप होने का प्रयास वे करने लगीं ।

उ. श्रीकृष्ण का पुनः प्रकट होना

आगे यह खेल समाप्त होने पर श्रीकृष्ण के वियोग में वे इतनी दुःखी हो गर्इं कि, उनके प्राण निकलने लगे । तब भगवानने प्रकट होकर कहा, ‘‘मेरे लुप्त होने का कारण तुम्हारा अहंकार है । मेरे वियोग के अत्यधिक दुःख में भी, तुमने संसार की अपेक्षा मुझमें रम जाने में अधिक सुख माना, इसलिए मैं पुनः प्रकट हुआ हूं । मेरा लुप्त होना, तुम पर परमप्रेम का और अखंड (ईश्वर)प्राप्ति का ही द्योतक है ।’’ – प.पू. काणे महाराज, नारायणगांव, जिला पुणे, महाराष्ट्र.

३. रासलीला का भावार्थ

अ. सर्वत्र श्रीकृष्ण ही हैं, इसलिए रासलीला अर्थात् उनका स्वयं से मिलन ‘जीवन एक रासलीला ही है । यह रासलीला माया व ब्रह्म का, आत्मा व परमात्मा का मिलन है । रासलीला के दौरान अनुभूति हो रही थी कि, ‘सर्वत्र मैं ही हूं । मुझमें भी मैं हूं तथा गोपियों में भी मैं ही हूं । मेरा मुझसे ही मिलन हो रहा है ।’ यह स्वदर्शन की अनुभूति मैं (ईश्वर) ले रहा था ।’ – कु. मधुरा भोसले

आ. माया में रहकर ब्रह्म की अनुभूति होना अर्थात् `रास’; उससे प्राप्त आनंद का लाभ अन्यों को प्रदान करने हेतु श्रीकृष्णद्वारा रासनृत्य की निर्मिति ‘गोप-गोपियों को रासनृत्य से आनंद प्राप्त करवाने हेतु, श्रीकृष्णने स्वयं रासनृत्य की निर्मिति की और उसी से `रासताल’की निर्मिति हुई । रासनृत्य करते समय, मध्यभाग में श्रीकृष्ण यानी ब्रह्म तथा आसपास गोपियां यानी माया । आनंद व माया की निर्मिति ब्रह्म से हुई है । ब्रह्म एक ही है; परंतु माया के विविध अंग हैं । माया में रहकर ब्रह्म की अनुभूति लेने को ही `रास’ कहते हैं । रासक्रीड़ा के समय श्रीकृष्णने बांसुरी बजाई ।

बांसुरी का सुर ईश्वरतक पहुंचने का एक माध्यम है । बांसुरी सुनते समय गोपियों की सर्व ज्ञानेंद्रियां, कर्मेंद्रियां, पंचप्राण व सर्व देह उसे सुनने में मुग्ध हो गए, यानी आनंद प्राप्त करते समय, माया में रहते हुए भी वे देहभान भूल गर्इं । वही आनंद सबको प्राप्त करवाने हेतु श्रीकृष्णने रासनृत्य की निर्मिति की । – कु. शिल्पा देशमुख

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘रासलीला