१. व्युत्पत्ति एवं अर्थ
सुदर्शन शब्द सु ± दर्शन की संधि से बना है । अर्थात सुदर्शन वह है, जिसका दर्शन ‘सु’ अर्थात शुभदायक है । चक्र शब्द ‘चृः’ (चलन) एवं ‘कृः’ (करना) की संधि से बना है; इसीलिए चक्र अर्थात जो चलायमान है । सर्व आयुधों में यही एक शस्त्र निरंतर गतिमान रहता है ।
२. निर्मिति एवं इतिहास
इसकी निर्मिति के संबंध में विभिन्न मत हैं ।
अ. ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश की एकत्रित शक्ति से उसे बनाया गया ।
आ. बृहस्पति ने इसे श्रीविष्णु को दिया ।
इ. देवतामंडल से वह श्रीकृष्ण को मिला ।
ई. खांडववन जलाने में श्रीकृष्ण एवं अर्जुन ने अग्नि की सहायता की थी । इसके आभारस्वरूप अग्नि ने श्रीकृष्ण को सुदर्शनचक्र एवं कौमोद की गदा दी ।
उ. नारायणी, वैष्णौदेवी इत्यादि देवियों के करकमलों में भी सुदर्शनचक्र है ।
३. विशेषताएं
अ. सुदर्शनचक्र साधारणतः श्रीविष्णु की, तथा श्रीकृष्ण पूर्णावतार होने के कारण श्रीकृष्ण की कनिष्ठिका पर (छोटी उंगली पर) होता है; परंतु चक्र फेंकते समय श्रीकृष्ण उसे तर्जनी से ही फेंकते हैं ।
आ. शत्रु का नाश कर चक्र पुनश्च फेंकनेवाले के पास लौट आता है ।
इ. चक्र फेंकने के पश्चात भी फेंकनेवाले का नियंत्रण उस पर निरंतर रहता है ।
ई. चक्र शून्य मार्ग से जाता है, इसलिए क्षणभर में कहीं भी पहुंच सकता है ।
उ. शत्रुद्वारा अडचन उत्पन्न किए जाने पर चक्र की गति बढ जाती है । इसे ह्रंसगति कहते हैं ।
ऊ. इससे ध्वनि नहीं होती ।
४. चक्र का आकार
इसका आकार इतना छोटा है कि तुलसी के पत्ते की नोक पर सिमट जाए तथा इतना बडा भी है कि विश्व को व्याप ले ।
५. प्रयोग के उदाहरण
अ. गोवर्धन पर्वत उठाने पर उसके नीचे आधार के लिए श्रीकृष्ण ने सुदर्शनचक्र धरा हुआ था ।
आ. शिशुपाल के वध के लिए श्रीकृष्ण ने उसका उपयोग किया ।
इ. जयद्रथ के वध हेतु कृत्रिम सूर्यास्त निर्माण करने के लिए श्रीकृष्ण ने इसका प्रयोग किया; परंतु युद्ध में किसी को मारने के लिए अथवा अन्य किसी लडाई में भी श्रीकृष्ण ने इसका प्रयोग नहीं किया ।
र्इ. जब अर्जुन ने कहा कि उसके द्वारा बनाए बाणों के पुल को मारुति नहीं गिरा पाएंगे, तो मारुति पुल पर बहुत उछले, तब भी पुल नहीं गिरा; क्योंकि अपने मित्र अर्जुन की सहायता हेतु श्रीकृष्ण ने पुल को नीचे से सुदर्शनचक्र का आधार दिया था ।
उ. अपने प्रिय भक्त राजा अंबरीष को दुर्वास ऋषि ने निष्कारण शाप दिया, इसलिए क्रोधित होकर श्रीविष्णु ने उन पर चक्र छोडा । दुर्वास घबराकर भागते हुए देवताओं के पास गए; परंतु उन्हें कोई बचा न पाया । अंत में श्रीविष्णु के पास पहुंचने पर उन्होंने राजा से क्षमा मांगने के लिए कहा । क्षमा मांगने पर श्रीविष्णु ने सुदर्शनचक्र वापस ले लिया ।
ऊ. नाथसंप्रदाय के ग्रंथ में लिखा है कि एक बार गोरक्षनाथ ने चक्र को रोका था ।
६. मूर्तिविज्ञान
‘सुदर्शन की मूर्ति उग्र होती है । उनके सोलह हाथ होते हैं जिनमें आगे दिए शस्त्र होते हैं – शंख, चक्र, धनु, परशु, तलवार, बाण, शूल, पाश, अंकुश, अग्नि, खड्ग, ढाल, हल, मूसल, गदा और भाला । कुछ स्थानों पर तो सुदर्शनचक्र की मूर्ति को ही विष्णु की मूर्ति मानने की प्रथा है ।’
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘श्रीविष्णु, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण’