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रामायण के कुछ प्रसंगों का भावार्थ

१. ‘भूमिकन्या सीता

प्रसंग : भूमि जोतते समय सीता का पाया जाना

भावार्थ : बालसीता पृथ्वी के गर्भ से उद्भूत होनेवाली हिरण्यगर्भ तरंगों का साकार रूप थी । जिस प्रकार शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध एवं उनसे संबंधित शक्ति का सह अस्तित्व होता है अर्थात उनमें से किसी एक घटक के अस्तित्व से अन्य सर्व भी विद्यमान होते हैं, (उदा. नाम के उच्चारण से उससे संबंधित रूप, गंध भी विद्यमान होते हैं,) उसी प्रकार बालसीता विशिष्ट शक्ति का, हिरण्यगर्भ शक्ति का, रूप थीं और रामपत्नी सीता रामकी शक्ति का रूप थीं । हिरण्यगर्भ तरंगों के विषय में अधिक जानकारी सनातन के देवता विषयक ग्रंथ में दी है ।

२. कैकेयी का वर मांगना

प्रसंग : कैकेयी ने एक वर से राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास एवं दूसरे वर से भरतके लिए राज्य मांग लिया ।

भावार्थ : श्रवणकुमार के दादा धौम्य ऋषि थे एवं उसके माता-पिता रत्नावली एवं रत्नऋषि थे । रत्नऋषि नंदिग्राम के राजा अश्वपति के राजपुरोहित थे । अश्वपति राजा की कन्या का नाम कैकेयी था । रत्नऋषि ने कैकेयी को सभी शास्त्र सिखाए और
यह बताया कि यदि दशरथ की संतान हुई, तो वह संतान राजगद्दी पर नहीं बैठ पाएगी अथवा दशरथ की मृत्यु के पश्चात यदि चौदह वर्ष के दौरान राजसिंहासन पर कोई संतान बैठ भी गई, तो रघुवंश नष्ट हो जाएगा । ऐसी होनी को टालने हेतु, आगे चलकर वसिष्ठ ऋषि ने कैकेयी को दशरथ से दो वर मांगने के लिए कहा । उनमें से एक वर से उन्होंने राम को चौदह वर्ष तक ही वनवास भेजा तथा दूसरे वर से भरत को राज्य देने के लिए कहा । उन्हें ज्ञात था कि राम के रहते भरत राजा बनना स्वीकार नहीं करेंगे अर्थात राजसिंहासन पर नहीं बैठेंगे । वसिष्ठ ऋषि के कहने पर ही भरत ने सिंहासन पर राम की प्रतिमा न रख, उनकी चरणपादु का स्थापित की । यदि प्रतिमा स्थापित की होती, तो शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंध एकत्रित होने के नियम से जो परिणाम राम के सिंहासन पर बैठने से होता, वही उनकी प्रतिमा स्थापित करने से भी होता । रामायण के कुछ अभ्यासी कहते हैं कि ‘मूल वाल्मी कि रामायण में इस अर्थ के तीन श्लोक हैं; परंतु इ.स. १२२८ के उपरांत लिखी गई रामायण में ऐसा कोई उल्लेख नहीं ।’

३. भरत का राम की पादुका मांगना

‘पादुका मांगना’ अर्थात ‘अपना मस्तक चरणों में रखना’ अर्थात ‘संपूर्ण शरणागति’ । भरत की याचना पर श्रीराम ने अपनी चरणपादुका दे दी । पादुका के अंगूठे का भाग आगे की ओर कर, उसे अपने सिर पर रख भरत ने सिंहासन पर पादुका की स्थापना की एवं पूजन करना आरंभ किया । तबसे पादुका पूजन की प्रथा आरंभ हुई ।

४. भरत का नंदिग्राम में रहना

१. प्रसंग : राम की पादुका प्राप्त करने के पश्चात भरत ने नंदिग्राम पहुंचकर राम की चरणपादुका की स्थापना की । वे अयोध्या नहीं गए ।

भावार्थ : नंदिग्राम अर्थात अंडकोष । इसका आशय यह है कि भरत ने ब्रह्मचर्य का पालन किया । ‘राम की पादुका की स्थापना की’ अर्थात उसने साधक समान जीवन व्यतीत किया ।

२. प्रसंग : पादुका लेते समय भरत ने राम से निवेदन किया कि वे सीता सहित लौटने के एक दिन पूर्व उसे अपने आगमन का समाचार दें ताकि वह उचित सिद्धता (तैयारी) कर सके । इस पर राम ने कहा, ‘तथास्तु’ ।

भावार्थ : सीता सहित अर्थात शक्ति सहित । इससे यह अभिप्रेत है कि ‘कुंडलिनी जागृत होनेपर’ । ‘अपने आगमन से पूर्व समाचार दें’ अर्थात भरतने कहा, ‘आत्माराम की अनुभूति होने के पूर्व अर्थात निर्बीज अवस्था में जाने से पूर्व मैं उस अवस्था में जा रहा हूं, इसका मुझे ज्ञान हो ।’

५. लक्ष्मण का वनवासी जीवन

प्रसंग : जब लक्ष्मण वन से खाने के लिए कंदमूल ले आते, तो सीता यह मान लेतीं कि वह पहले से ही खाकर आए होंगे और राम की यह धारणा रहती कि सीता ने लक्ष्मण को भोजन दे दिया होगा; इसलिए वे दोनों ही लक्ष्मण को भोजन के विषय में नहीं पूछते थे ।

भावार्थ : लक्ष्मण चौदह वर्ष वायुभक्षण कर जीवित रहे । रामरक्षा हेतु वे सोए नहीं । निरंतर साधना करते रहे ।

६. सीताहरण

प्रसंग : रावण ने सीता का हरण कर, उसे अपने पास रखा ।

भावार्थ : वास्तव में सीता रावण के साथ गर्इं ही नहीं । वे अग्नि में प्रवेश कर गर्इं और केवल उनकी छाया रावण के साथ गई । रामलीला का आरंभ यहीं से होता है । रावण की बद्धता से लौटने पर वह छाया शुद्धिनिमित्त पुनः अग्नि में प्रविष्ट हुई और वास्तविक सीता बाहर आर्इं ।

७. राम का वृक्षों को आलिंगन करना

प्रसंग : सीताहरण के उपरांत आक्रोश में ‘सीते, सीते’ पुकारते हुए राम वृक्षों का आलिंगन कर रहे थे ।

भावार्थ : राम ने वृक्ष एवं बेलों के हृदय की व्यथा जानने के लिए ऐसा किया ।

८. वाली का वध

प्रसंग : वाली पर राम ने बाण चलाया एवं उसकी मृत्यु हुई ।

भावार्थ : राम के बाण मारने से अनाहत चक्र पर रुकी हुई वाली की आध्यात्मिक प्रगति पुनः आरंभ हो गई एवं वाली मुक्त हो गया ।

९. रावणवध

रावण महान शिवभक्त था । उसकी प्रगति सहस्त्रारचक्र तक होकर थम गई थी । राम ने रावण का वध नहीं किया; अपितु उसके सहस्त्रारचक्र का भेदन कर उसे सद्गति प्रदान की ।

१०. रजक का सीता पर आरोप

प्रसंग : राज्य के एक रजक ने (धोबी ने) कहा कि सीता अशुद्ध है; इसलिए श्रीराम ने सीता का परित्याग किया ।

भावार्थ १ : सीता पर आरोप लगानेवाला रजक (धोबी) है । धोबी का काम है कपडे धोकर स्वच्छ करना, उनपर किसी भी प्रकार के धब्बे न रहने देना । श्रीराम पर भी किसी प्रका रका धब्बा न रहे, इसी उद्देश्य से धोबी ने ऐसा कहा ।

भावार्थ २ : रजक शब्द रज + क शब्दों से बना है । अक्षर ‘क’ किसी वस्तु का छोटासा अंश दर्शाता है । रजक अर्थात वह जिसमें रजोगुण का अंश हो एवं इसीलिए वह सीता की सात्त्विकता को नहीं पहचान पाया ।

११. शंबुकवध

प्रसंग : शंबुक नामक एक मातंग के तपश्चर्या करने पर, राम ने उसका वध किया ।

भावार्थ : शंबुक के अयोग्य तप के कारण पृथ्वी पर वातावरण इतना बिगड गया कि उससे प्रजा को कष्ट होने लगा एवं ऋषि-मुनियों की साधना में बाधा पडने लगी; इसलिए राम ने राजा का कर्तव्य निभाने के लिए प्रजापालनार्थ एवं ऋषि-मुनियों के
संरक्षणार्थ शंबुक का शीष काट डाला ।

१२. श्रीराम का सरयु नदी में देहत्याग करना

प्रसंग : सीता के धरतीमाता की गोद में समाने के पश्चात श्रीराम ने सरयु नदी में प्राण त्याग दिए ।

भावार्थ : सरयु नदी में श्रीराम ने अपने प्राण नहीं त्यागे, अपितु जलसमाधि ले ली । समाधि के अनेक प्रकार हैं – भूमिसमाधि, जलसमाधि, अग्निसमाधि इत्यादि । संत ज्ञानेश्वर ने भूमिसमाधि ली । संत एकनाथ महाराज ने जलसमाधि ली थी । जिसकी देहबुद्धि नष्ट हो चुकी हो, वही ऐसा कर सकता है । श्रीराम के समाधि लेते ही अयोध्यावासियों ने भी सरयु नदी में जलसमाधि ले ली; क्योंकि उन सबको लगा कि ‘श्रीराम के देहत्याग उपरांत जीवन में कुछ भी ‘राम (अर्थ)’ नहीं रहा ।’
– प.पू. अण्णा करंदीकर, डहाणू, महाराष्ट्र.
(समाधि के विषय पर विस्तृत जानकारी ‘ध्यानयोग’ ग्रंथमें दी है ।)

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘श्रीविष्णु, श्रीराम एवं श्रीकृष्ण