रसोईघर में भोजन बनाने के लिए अनेक प्रकार के र्इंधन उपयोग किए जाते हैं । जैसे – लकडी, कोयला, किरोसिन, पेट्रोलियम गैस । इस लेख में हम देखेंगे कि इन विविध र्इंधनों की विशेषता क्या है तथा ये कार्य कैसे करते हैं ।
१. लकडी (तेजदायी तरंगें)
अ. विशेषता
‘लकडी में निहित अग्नि को ‘प्रदीप्त अग्नि’ कहते हैं । यह अग्नि प्राकृतिक है, इसलिए उससे प्रक्षेपित सूक्ष्म तेजदायी तरंगें सूक्ष्म स्तर के रजतमात्मक कणों का सहजता से विघटन कर सकती हैं ।
आ. कार्य
१. इस अग्नि में रजोगुण की मात्रा अधिक होती है; इसलिए मिट्टी लीपकर बनाए गए चूल्हे पर लकडियों से अन्न पकाने पर, इस सूक्ष्म तेज का संचार चूल्हे पर पकाए जानेवाले अन्नपदार्थ में होता है । ग्रास सेवन करने पर यह सुप्त अग्नियुक्त ऊर्जा पेट में जाते ही जठराग्नि को (पिंडाग्नि को) जागृत अवस्था में लाकर उसके रजोगुण को सूक्ष्म स्तर पर कार्यरत रखती है । इससे अन्नपदार्थ पेट में जाने के मार्ग में ही उससे प्रक्षेपित सूक्ष्म रज-तमात्मक वायुका जठराग्नि की सहायता से विघटन किया जाता है ।
२. लकडी में निहित अग्नि के अन्न पर होनेवाले सूक्ष्म-स्तरीय परिणाम के कारण नाभि में विद्यमान पंचप्राण भी कार्यरत होते हैं । इससे अन्नपाचन की प्रक्रिया में अांतों की कुछ गतिविधियों के घर्षण से उत्पन्न रज-तमात्मक ऊर्जा का भी विघटन होता है तथा अन्नपाचनद्वारा उत्पन्न अन्य वायुरूपी व्याधियों से शरीर मुक्त रहता है ।
२. कोयला (तम-रजोगुणी)
अ. विशेषता
यह घटक कार्बनयुक्त होने के कारण इसमें प्रदीप्त प्राकृतिक अग्नि की मात्रा अत्यल्प होती है, इसलिए इसे ‘तम-रजोगुणी अग्नि’ माना गया है ।
आ. कार्य
कोयले के चूल्हे पर पकाए अन्नपदार्थ में इस कार्बनरूपी सूक्ष्म तरंगों का संचार होने से इसका अन्नपाचन क्रिया पर भी विपरीत परिणाम होता है तथा अन्न के पोषकपदार्थों की सूक्ष्म स्तर पर हानि अल्प होती है । इस अन्न में कार्बनरूप सूक्ष्म वायु के संचार के कारण इस प्रकार का अन्न सेवन करने पर अन्ननलिका में इस वायु का घनीकरण होकर अन्ननलिका में कर्करोग जैसी व्याधियां होने की आशंका रहती है ।
३. मिट्टी का तेल (केरोसिन) (तमोगुणी)
अ. विशेषता
यह ज्वलनशील पदार्थ है; इसलिए इसमें सूक्ष्म स्तर पर तमोगुणी वायु घनीभूत होती है । अतः, मिट्टी के तेलरूपी र्इंधन का उपयोग कर अन्न पकाने से निम्नलिखित परिणाम होते हैं ।
१. सत्त्वहीन अन्न : यह वायु अन्न की (देह के लिए) पोषक एवं पूरक सूक्ष्म रसबीजयुक्त रिक्तियों पर ही दुष्प्रभाव डालकर उनके कार्य करने की क्षमता घटाती है अर्थात उन्हें अचानक सिकोडती हैं । इस कारण मिट्टी के तेलरूपी र्इंधन पर पकाया गया अन्न सत्त्वहीन बन जाता है । इस प्रकार का अन्न देह को स्वस्थ बनाने की अपेक्षा रज-तमात्मक ही बनाता है ।
२. अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण : इस र्इंधन पर हो रही अन्नप्रक्रिया अपने सर्व ओर तमोगुणी वायुमंडल की निर्मिति करती है; इसलिए इस वायुमंडल की ओर अनिष्ट शक्तियां आकर्षित होकर अन्न पकाने की प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर सकती हैं । ऐसे दूषित अन्न का सेवन करने से देह पर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण बढ जाते हैं ।
४. द्रवरूप पेट्रोलियम गैस (सर्वाधिक तमोगुणी)
अ. विशेषता
यह सर्वाधिक तमोगुण के स्तर पर वायुमंडल में तथा अन्न में नाद के स्तर पर स्वास्थ्य हेतु अत्यंत विनाशकारी प्रदूषण करता है ।
आ. कष्टदायक होने की प्रक्रिया
१. कष्टदायक नादस्पंदन अन्न में संक्रमित होना एवं वास्तु में भी प्रक्षेपित होना : रसोई गैस यांत्रिक पद्धति से घनीभूत कर गैस सिलेंडर में भरा जाता है, जो अल्प स्थान में अति संकुचित हो जाता है । इससे वह भीतर ही भीतर विचित्र प्रकार का सूक्ष्म-नाद उत्पन्न करता है । इस गैस पर अन्न पकाते समय सूक्ष्म कष्टदायक नादस्पंदनों का अन्न में संचार होता है तथा ये नादस्पंदन उसी मात्रा में वेग से वास्तु में भी प्रक्षेपित होते हैं ।
२. वायुमंडल एवं देह रज-तमात्मक स्पंदनों से आवेशित होना : गैस की वायुवहन नलिका से इन स्पंदनों को और वेग प्राप्त होता है । इससे तमोगुणी नाद का प्रक्षेपण अल्प कालावधि में होता है । वायुमंडल एवं देह पर इस क्रिया के दीर्घकालीन कष्टदायक परिणाम होते हैं । इन स्पंदनों के कारण रसोई बनाते समय संपूर्ण वायुमंडल ही रज-तमात्मक स्पंदनों से आवेशित हो जाता है । इस कारण भोजन बनाने की सत्त्वगुणवर्धक प्रक्रिया परिवार के स्वास्थ्य के लिए घातक ही बन जाती है ।
३. देह की कोशिकाओं का नाश होना : गैस पर पकाए अन्न में संक्रमित सूक्ष्म नादरूपी रज-तमात्मक स्पंदनों के कारण अन्न में विद्यमान देह के लिए पोषक एवं पूरक सूक्ष्म रसबीज-रिक्तियों का संपूर्णतः ह्रास होता है और उनके विघटन से रज-तमात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है । यह ऊर्जा कुछ समय के उपरांत देह की कोशिकाओं के ह्रास का कारण बन जाती है ।
४. वास्तु पर ही अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की आशंका होना : इस सूक्ष्म नाद से संपूर्ण वास्तु पर ही अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की आशंका अधिक होती है । इस नाद से अनेक लिंगदेह अन्न की आसक्ति के कारण वास्तु में आकर रहने लगती हैं ।
पूर्वकाल की सात्त्विक पद्धति
पूर्वकाल में गोबरसे भूमि लीपकर चूल्हे की पूजा कर अग्नि को प्रथम चावल अथवा भात की आहुति देने के उपरांत ही अन्न पकाने की प्रक्रिया पूर्ण होती थी । इससे अन्न की ओर वायुमंडल में विद्यमान देवत्वरूप स्पंदन आकर्षित होते थे । वास्तव में ऐसा अन्न जीव के लिए शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्तर पर भी लाभदायक होता था । अतः अन्न को सर्वस्तरीय लाभ प्रदान करनेवाला ‘पूर्णब्रह्म’ कहा जाता था । – पूजनीया (श्रीमती) अंजली गाडगीळ
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का ग्रंथ, ‘रसोईके आचारोंका अध्यात्मशास्त्र’