स्नान के उपरांत अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार मस्तक पर तिलक अथवा मुद्रा लगाएं, उदा. वैष्णवपंथी मस्तक पर खडा तिलक, जबकि शैवपंथी आडी रेखाएं अर्थात ‘त्रिपुंड्र’ लगाते हैं ।
१. मस्तक पर तिलक धारण करने का मूल कारण
अ. जब तक माया की उपाधि है, सगुण परमेश्वर की ही पूजा करना उचित होना :
‘मनुष्यदेह को ईश्वर का देवालय (मंदिर) माना गया है । सहस्रार-चक्र मूर्धास्थान पर (चोटी के स्थान पर) होता है । वहां निर्गुण परमेश्वर का वास होता है । भृकुटि मध्य में (दोनों भौंहों के मध्य) आज्ञा-चक्र पर सगुण परमेश्वर का वास होता है । माया की उपाधि रहने तक सगुण परमेश्वर की ही पूजा करना उचित है ।
आ. भृकुटि मध्य में वास करनेवाले परमेश्वर को तिलक लगाने से संपूर्ण दिन मन में भक्तिभाव एवं शांति का वास होना :
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तिलक धारण, एक लघु देवता पूजन ही है ।
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धर्मशास्त्र बताता है कि मध्यमा का प्रयोग कर तिलक धारण करें । मध्यमा का संबंध हृदय से होता है, इसलिए इस उंगली से प्रवाहित स्पंदन हृदय से जाकर मिलते हैं । भृकुटि मध्य में निवास करनेवाले परमेश्वर को तिलक लगाते समय तृतीय नेत्र से स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं । वे मध्यमा द्वारा हृदय में प्रवेश कर अंकित हो जाते हैं, इसलिए संपूर्ण दिन मन में भक्तिभाव तथा शांति का वास रहता है ।’ (तिलक धारण की उक्त कृति पुरुषों के संदर्भ में है । स्त्रियां स्वयं को अनामिका से कुमकुम लगाएं तथा अन्य स्त्री अथवा पुरुष को बीच की उंगली से (मध्यमा से) कुमकुम लगाएं ।
२. तिलक अथवा मुद्रा लगाने के प्रकार
अ. ऊर्ध्वपुंड्र : मस्तक पर एक अथवा अधिक खडी रेखाएं निकालने को ‘ऊर्ध्वपुंड्र’ कहते हैं । ‘ऊर्ध्वपुंड्र’ बनाने के लिए श्रीविष्णु के कारण पवित्र हुए क्षेत्र की मिट्टी; गंगा, सिंधु इत्यादि पवित्र नदियों के तट की मिट्टी अथवा गोपीचंदन लें ।
आ. त्रिपुंड्र : मस्तक पर निकाली गई तीन आडी रेखाओं को ‘त्रिपुंड्र’ कहते हैं । त्रिपुंड्र मुद्राएं भस्म की होती हैं ।
तिलक मुद्रा (तिलक) चंदन की बनाते हैं ।
संदर्भ पुस्तक : सनातन का सात्विक ग्रन्थ ‘आदर्श दिनचर्या भाग २ – स्नान एवं स्नानोत्तर आचारों का अध्यात्मशास्त्र‘