‘जो समय पर सोकर समय पर उठे, वह स्वस्थ और दीर्घायु बने ।’ ऐसी शिक्षा पूर्वकाल में बच्चों को दी जाती थी । आजकल बच्चे विलंब से सोते और उठते हैं । प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों का दिन ब्राह्ममुहूर्त से आरंभ होता था, जबकि आज यंत्रयुग में ‘रात्रि की पारी में काम और दिन में नींद’ होती है । पूर्वकाल की दिनचर्या प्रकृति के अनुरूप थी । दिनचर्या जितनी अधिक प्रकृति के अनुरूप, उतनी ही वह स्वास्थ्य के लिए पूरक होती है । आज वह ऐसी नहीं है, इसलिए मनुष्य (पेट, गले, हृदय आदि) नाना प्रकार की व्याधियों से त्रस्त हो गया है ।
पूर्वकाल में स्नान के उपरांत तुलसी को जल चढाकर पूजा की जाती थी, जबकि आज अनेक लोगों के घर तुलसी वृंदावन भी नहीं होता । आचारों का पालन करना ही अध्यात्म की नींव है । सभी को यह तत्त्व ध्यान में रखना चाहिए कि ‘विज्ञान द्वारा निर्मित सुख-सुविधाओं से नहीं, अपितु अध्यात्म के आधार पर ही मनुष्य वास्तव में सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है ।’ प्रत्येक कृत्य से स्वयं में रज-तम न्यून हो, सत्त्वगुण बढे एवं अनिष्ट शक्तियों के कष्ट से रक्षा हो, इस दृष्टि से हमारे प्रत्येक आचार की व्यवस्था की गई है । यह हिन्दू धर्म की अद्वितीय विशेषता है । ज्ञानयोग, कर्मयोग इत्यादि साधनामार्गों के समान ही आचारधर्म भी ईश्वरप्राप्ति की दिशा में अग्रसर करता है ।
१. दिनचर्या
अ. व्याख्या
प्रातः उठने से लेकर रात को सोने तक किए गए कृत्यों को एकत्रित रूप से ‘दिनचर्या’ कहते हैं ।
आ. समानार्थी शब्द
आह्निक (दैनिक कर्म) एवं नित्यकर्म ।
इ. महत्त्व
१. प्रकृति के नियमों के अनुरूप दिनचर्या आवश्यक :
संपूर्ण मानव जीवन स्वस्थ रहे, उसे कोई भी विकार न हों, इस दृष्टि से दिनचर्या पर विचार किया जाता है । कोई व्यक्ति दिनभर में क्या आहार-विहार करता है, कौन-कौन से कृत्य करता है, इस पर उसका स्वास्थ्य निर्भर करता है । स्वास्थ्य की दृष्टि से दिनचर्या महत्त्वपूर्ण है । दिनचर्या प्रकृति के नियमों के अनुसार हो, तो उन कृत्यों से मानव को कष्ट नहीं; वरन् लाभ ही होता है । इसलिए प्रकृति के नियमों के अनुसार (धर्म द्वारा बताए अनुसार) आचरण करना आवश्यक है, उदा. प्रातः शीघ्र उठना, मुखमार्जन करना, दांत स्वच्छ करना, स्नान करना इत्यादि ।
‘ऋषिगण सूर्य गति के अनुसार ब्राह्म मुहूर्त में प्रातः विधि, स्नान एवं संध्या करते थे, तत्पश्चात वेदाध्ययन एवं कृषि कार्य करते तथा रात को शीघ्र सो जाते थे; इसलिए वे शारीरिक रूप से स्वस्थ थे । आज लोग प्रकृति के नियमों के विरुद्ध आचरण करते हैं । इससे उनका शारीरिक स्वास्थ्य बिगड गया है । पशु-पक्षी भी प्रकृति के नियमों के अनुसार अपनी दिनचर्या व्यतीत करते हैं ।’ – प.पू. पांडे महाराज, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.
२. आह्निक का यथार्थ पालन करने वाला व्यक्ति बहुधा दरिद्रता, व्याधि, दुर्व्यसन, मनोविकृति इत्यादि आपत्तियों से ग्रस्त न होना :
‘धर्मशास्त्र में आह्निक को प्रधानता दी गई है । एक ओर शरीर के लिए अत्यंत उपयुक्त एवं पोषक विज्ञान, तो दूसरी ओर मन की उत्क्रांति एवं विकास साधने वाला मानसशास्त्र, ऐसा दोहरा विचार कर शास्त्र ने आह्निक के नियम बनाए हैं । बहुधा आह्निक का यथार्थपालन करनेवाले व्यक्ति दरिद्रता, व्याधि, दुर्व्यसन, मनोविकृति इत्यादि आपत्तियों से ग्रस्त नहीं होते ।’
ई. दिनचर्या के अंतर्गत कुछ कर्म
प्रातः उठने से रात को सोने तक समस्त कर्म दिनचर्या में आते हैं । दिनचर्या के अंतर्गत कुछ कर्मों का ज्ञान यहां दिया है ।
१. नित्यकर्म : ‘नित्यकर्म’ वे हैं, जिन्हें करने से केवल चित्तशुद्धि ही होती है; परंतु न करने से दोष लगता है, उदा. ब्राह्मण व्यक्ति के लिए संध्या करना तथा गायत्री मंत्र का जप करना नित्यकर्म है ।
नित्यकर्मों के कुछ उदाहरण
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वर्णानुसार नित्यकर्म : ब्राह्मण का नित्यकर्म है – अध्ययन एवं अध्यापन (अध्यात्म सीखना एवं सीखाना); क्षत्रिय का नित्यकर्म है – दुर्जनों से समाज की रक्षा करना; वैश्य का नित्यकर्म है – गोपालन, कृषि एवं व्यापार द्वारा समाज की सेवा करना तथा शूद्र का नित्यकर्म है – ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के विशिष्ट व्यवसाय के अतिरिक्त कोई भी व्यवसाय करना ।
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आश्रमानुसार नित्यकर्म : ब्रह्मचर्याश्रम में धर्म का पालन कैसे करें, इसका अभ्यास करना; गृहस्थाश्रम में देव, ऋषि, पितर एवं समाज ऋण चुकाना; वानप्रस्थाश्रम में शरीरशुद्धि एवं तत्त्वज्ञान के अभ्यास के उद्देश्य से साधना करना तथा संन्यासाश्रम में भिक्षाटन, जप, ध्यान इत्यादि कर्म करना, ऐसे नित्यकर्म बताए गए हैं । (वर्ण एवं आश्रमानुसार किए जानेवाले कर्मों के संबंध में विस्तृत ज्ञान सनातन के ग्रंथ ‘वर्णाश्रमव्यवस्था’ में दिया है ।)
२. प्रातःकाल से सायाह्नकाल (सायंकाल) तक किए जानेवाले कर्म : दिन के (१२ घंटों के) पांच विभाग हैं – प्रातःकाल, संगवकाल (दिन का ७ से १२ घटिकाकाल (दुग्धदोहन काल), माध्यंदिन अथवा मध्याह्नकाल, अपराह्नकाल एवं सायाह्नकाल । प्रत्येक विभाग तीन मुहूर्त के समान होता है । २४ घंटों के दिन में ३० मुहूर्त होते हैं । एक मुहूर्त अर्थात दो घटिका, अर्थात ४८ मिनट । संक्षेप में प्रत्येक विभाग २ घंटे २४ मिनट का होता है । प्रत्येक विभाग में की जानेवाले कृत्य इस प्रकार हैं ।
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प्रातःकाल (सूर्योदयसे आरंभ) : संध्यावंदना, देवतापूजन एवं प्रातर्वैश्वेदेव
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संगवकाल : उपजीविका के साधन
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मध्याह्नकाल : मध्याह्नस्नान, मध्याह्नसंध्या, ब्रह्मयज्ञ एवं भूतयज्ञ
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अपराह्नकाल : पितृयज्ञ (तर्पण, पिंडदान, श्राद्ध इत्यादि)
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सायाह्नकाल : पुराणश्रवण तथा उसपर चर्चा करना और सायंवैश्वदेव एवं संध्या ।
३. पंचमहायज्ञ
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् ।
होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ।। – मनुस्मृति, अध्याय ३, श्लोक ७०
अर्थ : शिष्य को शिक्षित करना (अध्यापन) – ब्रह्मयज्ञ; पितरों को तर्पण – पितृयज्ञ; वैश्वदेव – देवयज्ञ; बलिप्रदान – भूतयज्ञ तथा अतिथिपूजन – मनुष्ययज्ञ है ।
अ. ब्रह्मयज्ञ : वेदों का अध्ययन (अर्थात स्वाध्याय) तथा देवता और ऋषियोंकोतर्पण – ब्रह्मयज्ञ है ।
आ. पितृयज्ञ : पितरों को तर्पण करना (जिन ऋषियों की पूर्वजों में गणना की गई है, उदा. सुमंतु, जैमिनी, वैशंपायन जैसे ऋषियों के तथा अपने पूर्वजों के नाम पर जलदेने की विधि)
इ. देवयज्ञ : वैश्वदेव, अग्निहोत्र एवं नैमित्तिक यज्ञ देवयज्ञ के भाग हैं ।
१. नित्य होनेवाली ‘पंचसूना’ जीवहिंसा के प्रायश्चित स्वरूप वैश्वदेव करना :
नित्य उपजीविका करते समय मनुष्य द्वारा अनजाने में होनेवाली जीवहिंसा को शास्त्र में ‘पंचसूना’ कहा गया है ।
वैश्वदेवः प्रकर्तव्यः पञ्चसूनापनुत्तये ।
कण्डनी पेषणी चुल्ली जलकुम्भोपमार्जनी ।। – धर्मसिंधु, परिच्छेद ३,
अर्थ एवं विवरण : कूटना, पीसना, चूल्हे का उपयोग करना, पानी भरना तथा बुहारना, ये पांच क्रियाएं करते समय सूक्ष्म जीवजंतुओं की हिंसा अटल है । इस हिंसा को ‘पंचसूना’ जीवहिंसा कहते हैं । ऐसी हिंसा हो जाए, तो ध्यानपूर्वक ‘वैश्वदेव’ प्रायश्चित का अंगभूत कर्म नित्य करें । उक्त हिंसा के परिणाम स्वरूप हमारे मन पर हुआ पापसंस्कार दूर होता है ।
२. वैश्वदेव विधि
अ. अग्निकुंड में ‘रुक्मक’ अथवा ‘पावक’ नामक अग्नि की स्थापना कर अग्नि का ध्यान करें । अग्निकुंड के सर्व ओर छः बार जल घुमाकर अष्टदिशाओं को चंदन-पुष्प अर्पित करें तथा अग्नि में चरु की (पके चावलों की) आहुति दें । तदुपरांत अग्निकुंड के सर्व ओर पुनः छः बार जल घुमाकर अग्नि की पंचोपचार पूजा करें तथा विभूति धारण करें ।
आ. उपवास के दिन बिना पके चावल की आहुति दें । (उपवास के दिन चावल पकाए नहीं जाते; इसलिए आहुतियां चरू की न देकर, चावल की देते हैं ।)
इ. अत्यधिक संकटकाल में केवल उदक (जल) से भी (देवताओं के नामों का उच्चारण कर ताम्रपात्र में जल छोडना), यह विधि कर सकते हैं ।
ई. यदि यात्रा में हों, तो केवल वैश्वदेवसूक्त अथवा उपरोक्त विधि के मौखिक उच्चारण मात्र से भी पंचमहायज्ञ का फल प्राप्त होता है ।
ई. भूतयज्ञ (बलिहरण) : वैश्वदेव हेतु लिए गए अन्न के एक भाग से देवताओं को बलि दी जाती है । भूतयज्ञ में बलि अग्नि में न देकर, भूमि पर रखते हैं ।
उ. नृयज्ञ अथवा मनुष्ययज्ञ : अतिथि का सत्कार करना अर्थात नृयज्ञ अथवा मनुष्ययज्ञ, ऐसा मनु ने (मनुस्मृति, अध्याय ३, श्लोक ७०) कहा है । ब्राह्मण को अन्न देना भी मनुष्ययज्ञ है ।
पंचमहायज्ञ का महत्त्व : जिस घर में पंचमहायज्ञ नहीं होते, वहां का अन्न संस्कारित नहीं होता; इसलिए संन्यासी, सत्पुरुष एवं श्राद्ध के समय पितर उसे ग्रहण नहीं करते । जिस घर में पंचमहायज्ञ करने पर शेष अन्न का सेवन किया जाता है, वहां गृहशांति रहती है तथा अन्नपूर्णादेवी का वास रहता है ।
संदर्भ पुस्तक : सनातन का सात्विक ग्रन्थ ‘आदर्श दिनचर्या (भाग १) स्नानपूर्व आचार एवं उनका अध्यात्मशास्त्रीय आधार‘