Menu Close

भोजन के समय जल कब आैर कैसे पीना चाहिए ?

१. भोजन के लिए बैठने पर बाएं हाथ की ओर जल का

पात्र क्यों रखना चाहिए एवं बाएं हाथ से जल क्यों पीना चाहिए ?

अ. भोजन के लिए बैठते समय बाएं हाथ की ओर जल का पात्र रखना

पूर्वकाल में भोजन के लिए बैठने पर सदैव बाएं हाथ की ओर जल का पात्र रखकर एवं भगवान से प्रार्थना करनेके उपरांत ही भोजन आरंभ किया जाता था । भगवान से प्रार्थना करते समय कार्यरत होनेवाला ब्रह्मांडस्थित चैतन्यदााोत, सर्वसमावेशक जल में संचारित होकर तदुपरांत ही वह यथायोग्य मात्रा में अन्नपदार्थों एवं देह की ओर भी संचारित होता था । आजकल कुछ लोग जल लिए बिना ही भोजन करने बैठ जाते हैं, यह अनुचित है; क्योंकि ‘जलके बिना अन्न-सेवन करना’, यह क्रिया ‘पूर्णब्रह्म’ हो ही नहीं सकती । जल से कार्यरत निर्गुणस्वरूप चैतन्य के कारण ‘भोजन करना’ यह कृत्य भी ‘पूर्णब्रह्म’ ही बन जाता है ।

आ. बाएं हाथ से जल पीना

भोजन करनेवाले के बार्इं ओर, अर्थात तारक नाडी की दिशा में पात्र रखने से एवं वह जल बाएं हाथ से पीने से निर्गुण तरंगों को कार्यरत करने के लिए पूरक बार्इं नाडी, इस प्रक्रिया में अपना यथायोग्य सहभाग दर्शाती है ।

२. जूठे हाथ से जल क्यों नहीं पीना चाहिए ?

जूठे हाथ से जल को कभी भी स्पर्श नहीं किया जाता; क्योंकि इससे अन्न में प्रविष्ट अपने वासनादर्शक इच्छास्पंदनों का जल में संचार होकर जल में विद्यमान निर्गुण का संचय अशुद्ध हो सकता है ।

३. भोजन करते हुए समय-समय पर जल क्यों पीना चाहिए ?

भोजन करते हुए समय-समय पर जल पीने से उस विशिष्ट ग्रास से देह गुहा में प्रक्षेपित रजतमात्मक सूक्ष्म वायु का, दैवीगुणसंपन्न जल के स्पर्श से उच्चाटन होता रहता है । इससे अन्न-ग्रहण की प्रक्रिया प्रत्येक चरण पर पवित्र यज्ञकर्म बन जाती है ।

४. जलपात्र बाएं हाथ से पकडकर उठाना तथा उसे

दाएं हाथ की उलटी हथेली का नीचे से आधार देकर जल पीने से होनेवाले लाभ

भोजन के मध्य जल पीते समय बाएं हाथ से जलपात्र उठाकर उस पात्र को, दाएं हाथ की उलटी हथेली से (हथेली नीचे की दिशा में कर) नीचे से आधार दिया जाता है । इस मुद्रा में दाएं हाथ की उंगलियां अधोदिशा से भूमि की ओर होती हैं । भूमि की दिशा से जलपात्र पर कष्टदायक स्पंदनों के आक्रमण होते हैं । दाएं हाथ की उंगलियों से आवश्यकता के अनुरूप उपयुक्त पंचतत्त्वों की तरंगें प्रक्षेपित होती हैं । इन तरंगों के माध्यम से वे आक्रमण लौटाए जाते हैं । अर्थात, जल पीने का कृत्य रजतम के संसर्ग से मुक्त हो जाता है ।

५. ग्रीवा (गरदन) उठाकर जल न पीनेका कारण

ग्रीवा उठाकर मुख से कुछ अंतर पर लोटा पकडकर जल न पीएं; क्योंकि लोटे का अग्रभाग संकीर्ण तथा वह नीचे के भाग की अपेक्षा वायुमंडल के संपर्क में अधिक होता है । इसलिए लोटा उलटा कर कुछ झुकाकर पीने से मुख से उत्सर्जित रज-तमात्मक वायु लोटे के अग्रभाग पर दूषित वायु का वातावरण निर्मित करती है । इस वातावरण के स्पर्श से ही मुख में जल की धार पडने पर, उसके आघात से मुखविवर में विद्यमान अन्य त्याज्य वायु जागृत होकर उस जल में मिश्रित होती हैं और ऐसा दूषित जल पेट में जाता है ।

६. पात्र को मुख लगाकर जल पीना उपयुक्त क्यों है ?

एक स्थान पर बैठकर पात्र को मुख लगाकर जल पीने से मुखविवर का संपर्क बाह्य वायुमंडल से नहीं; अपितु केवल पात्र की रिक्ति में विद्यमान जल से ही होता है । इस कारण दैवीगुणसंपन्न तीर्थरूपी जल के स्पर्श से मुखविवर में विद्यमान त्याज्य रज-तमात्मक वायु उसी स्थान पर नष्ट हो जाती हैं । तदुपरांत जल मुख से अंदर जाते समय वह अपनी शांत एवं निर्गुण धार की सहायता से देह की रिक्तियों का भी शुद्धिकरण करता जाता है । इस पद्धति से जल पीते समय संपूर्ण देह की शुद्धि होती है ।’

पात्र को मुख लगाए बिना जल पीना तथा पात्र को मुख लगाकर जल पीने के सूक्ष्म-स्तरीय परिणाम

पात्र को मुख लगाए बिना जल पीना पात्र को मुख लगाकर जल पीना
१. शक्ति

अ. तारक शक्ति

आ. प्राणशक्ति

 

०.२५

०.५

 

१.२५

१.५

२. चैतन्य ०.५ ०.७५
३. कष्टदायक शक्ति २.७५
४. स्पंदनों का कारण पात्र में रखा जल एवं मुख का आपस में प्रत्यक्ष संबंध न आने के कारण पात्र से मुख में गिरनेवाले जलके प्रवाह पर कष्टदायक शक्ति के आक्रमण करने की आशंका होना पात्र का जल एवं मुख का आपस में प्रत्यक्ष संबंध आने के कारण अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण होने की आशंका न रहना
५. परिणाम

अ. शारीरिक

 

 

 

 

आ. मानसिक

 

इ. आध्यात्मिक

 

१. जल सीधे गटकने के कारण ठसका लगकर श्वसन प्रक्रिया पर परिणाम की गहन संभावना होना

२. जीभ से जल का संपर्क न होने के कारण जल के तत्त्व लार के माध्यम से देह में फैलने का कार्य न होना

जल से प्यास न बुझने के कारण तृप्ति न मिलना

जल पीने से मुख की होनेवाली मुद्रा द्वारा देह में कार्यरत जंतुओं का वातावरण में प्रक्षेपण होकर वायुमंडल में कार्यरत काली
शक्ति देह में प्रवेश करना

 

ठसका लगने की आशंका न रहना

जल के सर्व तत्त्व लार के माध्यम से देह में फैलने के कारण देह को प्राणशक्ति मिलना

जल की ब्यास बुझकर तृप्ति मिलना एवं देह को चालना मिलना

जल में कार्यरत चैतन्य एवं शक्ति के स्पंदन मुख द्वारा ग्रहण होना

७. जल पीते समय ध्वनि (आवाज) न करने का कारण

‘जल पीते समय ‘गट् ऽ गट् ऽ’, ऐसी ध्वनि होने से इस कष्टदायक ना दकी ओर वायुमंडल की कष्टदायक तरंगें आकृष्ट होती हैं, जिससे जल पीने की संपूर्ण प्रक्रिया ही देह में रज-तमात्मक तरंगें संक्रमित करती है ।’

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘भोजनके समय एवं उसके उपरांतके आचार