१. दूरदर्शन के (‘टीवी’पर) कार्यक्रम देखते हुए भोजन करने में, माया के विषयों से संबंंधित चर्चा करते हुए भोजन करने में तथा नामजप करते हुए भोजन करने में अंतर
भोजन करना, केवल ‘पेट भरना’ नहीं है, अपितु यह एक ‘यज्ञकर्म’ है । अतः यह कार्य बातें करते हुए न कर, शांतचित्त से नामजप करते हुए करना अपेक्षित है । इस कारण उस समय किसी पर क्रोध करने, हास्य-विनोद करने, कुछ पढना आदि क्रियाएं करने से हमारा ध्यान भोजन से हट जाता है तथा क्रोध करने जैसी रज-तमात्मक क्रियाओं का अनिष्ट परिणाम होता है । इससे अन्न ग्रहण करना ‘यज्ञकर्म’ नहीं हो पाता, अर्थात उस अन्न से हमें सात्त्विकता नहीं मिलती । इसका शारीरिक दृष्टि से परिणाम यह होता है कि अन्नपाचन ठीक से नहीं होता ।
वर्तमान में उपरोक्त कृत्यों के साथ-साथ दूरदर्शन पर कार्यक्रम देखते हुए भोजन करना, यह रज-तमात्मक क्रिया भी साधारण बात हो गई है । ऐसे ‘रज-तमात्मक कृत्य करते हुए भोजन करना’ तथा ‘नामजप करते हुए भोजन करना’, इनमें भेद आगे स्पष्ट किया गया है । उससे समझ में आएगा कि नामजप करते हुए भोजन करना कितना लाभदायक है । इस विषय में आगे दी जर्इ सारणी में देखें ।
दूरदर्शन के कार्यक्रम देखते हुए भोजन करना | माया के विषयों पर चर्चा करते हुए भोजन करना | नामजप करते हुए भोजन करना | |
---|---|---|---|
१. कृत्य में प्रधान गुण | तम | रज-तम | सत्त्व |
२. जीव के मन तथा अन्न पर परिणाम | बहिर्मुखता उत्पन्न होना तथा मन में दूरदर्शन पर देखे दृश्यों के विषय में तामसिक विचारों का बीजारोपण होना एवं अन्न पर इसका विपरीत परिणाम होना | जीव का मन माया में फंसना तथा चंचल होना एवं उन्हीं विचारों का संस्कार मन पर होना तथा उसका परिणाम होकर भोजन दूषित बनना | हाथ से भोजन में संचारित सत्त्वगुणी नामजप की तरंगों से मन एवं देह शुद्ध होकर अन्न भी सात्त्विक बनना |
३. जीवके शरीर पर सूक्ष्मरूप से होनेवाला परिणाम | वायुमंडल की तमोगुणी तरंगें भोजन द्वारा ग्रहण होकर स्थानरूप में बद्ध होना | देह में तमोगुणी तरंगों का संचार बढना | देह की तमोगुणी तरंगों का नाश होना, एवं भोजन पर आए रज-तम का आवरण दूर होना |
४. भोजन के उपरांत होनेवाला परिणाम |
रेच (दस्त) होना, अपचन होना एवं उलटी होना |
मन अनियंत्रित होना, अस्वस्थता अनुभव होना एवं चिडचिडाहट होना | मन शांत होना |
५. अनिष्ट शक्तियों का आक्रमण होना | अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण का सामना करना पडना एवं भोजन के माध्यम से अनिष्ट शक्तियों का देह में प्रवेश हो पाना | माया के विषय रज-तम से संबंधित होते हैं । इसलिए उनकी ओर अनिष्ट शक्तियां आकर्षित होकर अन्न का असात्त्विक बनना | नामजप के उच्चारण से भोजन के सर्व ओर सुरक्षा-कवच बनने से भोजन का कृत्य सात्त्विक बनकर, चैतन्य के स्तर पर उसका लाभ मिलना |
२. भोजन करते समय अथवा देवालय में जाते समय चर्म की (चमडे की) वस्तुएं अपने साथ न रखें
चमडे की वस्तुओं से प्रक्षेपित तमोगुणी तरंगों के कारण जीव की देह के सर्व ओर तमोगुणी तरंगों का कोष बन जाता है । इस तमोगुणी कोष से प्रक्षेपित तमोगुणी तरंगों से अन्न द्वारा जीव की प्राणदेह को प्राप्त होनेवाली सत्त्वगुणी तरंगों के प्रवाह में भी बाधा आती है । देवालय में देवदर्शन करने के संदर्भ में भी यही नियम लागू होता है । इस तमोगुणी कोष के कारण देवालय के वातावरण में विद्यमान सात्त्विकता ग्रहण करने की जीव की क्षमता घट जाती है तथा उसे देवालय से अल्प मात्रा में सात्त्विकता प्राप्त होती है । इसलिए यथासंभव भोजन करते समय एवं देवालय में जाते समय सात्त्विक तरंगों को बाधित करनेवाली चर्म की (चमडे की) वस्तुएं निकालकर रखें ।
३. भोजन करते समय बाएं हाथ पर भार देकर न बैठें
बाएं हाथ पर भार देने से हाथ में जडत्वजन्यता (जडता उत्पन्न करने की क्षमता) उत्पन्न होती है तथा उस में पाताल से कष्टदायक स्पंदन ग्रहण करने की क्षमता बढती है । इससे ‘भोजन करना’ इस आचार में अनिष्ट शक्तियों के हस्तक्षेप की आशंका बढ जाती है । इसलिए कहा जाता है कि बाएं हाथ पर भार देकर नहीं बैठना चाहिए ।
क्या तब जठराग्नि प्रज्वलित होने की मात्रा अल्प होती है ?
बाएं हाथ पर भार देने से देह को कष्टदायक जडत्वजन्यता प्राप्त होती है । इससे देह में कष्टदायक तरंगें प्रवाहित होने लगती हैं । इसका विपरीत परिणाम होता है तथा दाएं हाथ से भोजन करते समय देह में तेजतरंगों का संचार भी घटने लगता है ।
४. भोजन करते समय अन्न का स्पर्श हथेली को न होने दें
हथेली पर स्थित बिंदु कनिष्ठ देवताओं के स्थान दर्शाते हैं, जबकि उंगलियों के पोरों पर स्थित बिंदु उच्च देवताओं के स्थान दर्शाते हैं । अघोरी (तांत्रिक) विधि के उपासक कनिष्ठ देवताओं को हथेली से हविर्भाग देते हैं । हथेली पर विशिष्ट देवता से संबंधित उभार होते हैं । इनसे प्रक्षेपित तरंगें इन कनिष्ठ पंचतत्त्वों की (जिसमें सगुण तत्त्व अधिक मात्रा में होता है) सहायता से वातावरण में प्रक्षेपित की जाती हैं । सनातन धर्म में उच्च देवताओं का, अर्थात जिनमें निर्गुण तत्त्व अधिक मात्रा में है, ऐसे देवताओं की उपासना का महत्त्व अधिक है । इसलिए भोजन करते समय हथेली से अन्न का स्पर्श कनिष्ठ माना जाता है ।
ऐसा कहा गया है कि भोजन करते समय अन्न का स्पर्श हथेली को न होने दें; किंतु तीर्थ एवं प्रसाद लेते समय एवं आचमन के लिए हथेली पर ही जल लेते हैं, यह विरोधाभास क्यों ?
तीर्थ, प्रसाद एवं आचमन के घटक पहले से ही देवता के चैतन्य से पूरित होते हैं । इस कारण इन्हें हथेली पर लेने से हथेली पर स्थित कनिष्ठ देवताओं के स्थानबिंदुओं की शुद्धि होती है । इससे जीव की देह को, संपूर्णतः उच्च देवताओं के अधीन कनिष्ठ देवताओं का तत्त्वस्वरूप चैतन्य मिल पाता है । एक प्रकार से यह शांतिविधि ही है । उच्च देवताओं के तीर्थ-प्रसाद के स्पर्श के द्वारा हथेली पर स्थित ग्रह, दिक्पाल आदि कनिष्ठ देवताओं के स्थानबिंदु शांत एवं तृप्त किए जाते हैं । इसके विपरीत, साधारण अन्न देवता के चैतन्य से संचारित नहीं होता । इसलिए उंगलियों के सिरे आपस में मिलाकर उनपर स्थित उच्च देवताओं की स्थानतरंगों की सहायता से अन्न ग्रहण करना अधिक उचित एवं हितकर होता है ।
५. भोजन करते समय मुख से ध्वनि (आवाज) न करें ।
नारदपुराण में ऐसा क्यों कहा गया है कि ‘जल पीते समय, आचमन करते समय एवं भोजन करते समय मुख से ध्वनि न करें; इसलिए कि ऐसा करने से जीव नरक में जाता है’ : ‘जल पीते समय, आचमन करते समय एवं भोजन करते समय मुख से ध्वनि करना रजोगुण का लक्षण माना गया है । पूर्वकाल में रजोगुणी क्रियाएं करना, अर्थात सात्त्विकता से दूर चले जाना । इसके परिणामस्वरूप ईश्वर एवं मनुष्य के मध्य का अंतर बढ जाना, अर्थात एक प्रकार का नरकवास भोगना ही है । पूर्व में प्रत्येक कृत्य उदात्त (व्यापक) उद्देश्य से प्रेरित होकर किया जाता था ।
६. भोजन करते समय बातचीत न करें
‘स्नान, भोजन, हवन, जप एवं मलविसर्जन करते समय मौन रहना चाहिए ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी
(मुख में ग्रास रखकर न बोलना चाहिए न ही जल पीना चाहिए ।)
बातें करते हुए अन्न ग्रहण करने के दुष्परिणाम
अ. अन्न ग्रहण करते समय बातचीत करने में बहुत शक्ति व्यय होती है । अधिकांशतः ये बातें माया से संबंधित होने के कारण मन अस्वस्थ रहता है एवं देह पर मायावी सुख एवं कष्टदायक शक्ति का आवरण बन जाता है । इस कारण जीव को ईश्वर का संरक्षण प्राप्त नहीं होता ।
आ. कुंडलिनी चक्रों में निर्मित कष्टदायक स्पंदनों की मात्रा
७. भोजन करते समय चल-दूरभाष पर (‘मोबाइल’पर) बात न करें
भोजन करते समय चल-दूरभाष पर (‘मोबाइल’पर) बात करना देह के रजतमात्मक स्पंदनों से युक्त धारणा के लिए पोषक है । अतएव दूषित तरंगों की सहायता से देह को हानि पहुंचानेवाले कृत्यों से बचें ।
८. भोजन करते समय कुछ न पढें
भोजन की क्रिया एक प्रकार का यज्ञकर्म ही है । यह यज्ञकर्म एकाग्र चित्त से किया जाए, तो उससे अधिक लाभ होता है । भोजन के समय पढने से भोजन से ध्यान विचलित हो जाता है । इससे मन की वृत्ति बहिर्मुख हो जाती है तथा इस अवधि में भोजन पर अनिष्ट शक्तियों का
आक्रमण हो सकता है । अतः भोजनकर्म सावधानी से ही करना चाहिए; क्योंकि यह सीधे देह की आंतरिक रिक्तियों से (देहगुहा) संबंधित है । भोजन के माध्यम से होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण से सीधे देह की मांसपेशियां सूक्ष्म स्तर पर काली शक्ति के आक्रमण की बलि चढ सकती हैं । इसलिए भोजन के समय प्रत्येक ग्रास मन में नामजप के उच्चारण से शुद्ध करते हुए ही मुख में डालें । तभी यह अन्नसेवन देह में सात्त्विक तरंगों का संवर्धन करनेवाला एक यज्ञकर्म बन सकेगा ।
९. भोजन के उपरांत थाली में हाथ न धोएं
अ. ‘भोजन करने की प्रक्रिया में देह की रिक्ति में वासनारूपी इच्छातरंगों की निर्मिति हो चुकी होती है ।
आ. भोजन के पश्चात थाली में हाथ धोने से इस जल में हाथ के उच्छिष्ट के (जूठन के) साथ देह की वासनात्मक तरंगें भी विसर्जित हो जाती हैं ।
इ. इस प्रक्रिया में बाह्यमंडल से थाली पर आक्रमण कर अनेक अतृप्त आत्माएं ऐसे उच्छिष्ट-मिश्रित जल का लाभ उठाने का प्रयास करती हैं ।
ई. इस आक्रमण का परिणाम हाथ धोनेवाले जीव पर भी होता है; क्योंकि उसीके वासनात्मक स्पंदन उच्छिष्ट के साथ हाथ धोने की प्रक्रिया में सहभागी होते हैं । इसलिए कहते हैं कि भोजन के उपरांत थाली में हाथ धोकर अनिष्ट शक्तियों को आमंत्रण देनेवाला रज-तमात्मक कृत्य नहीं करना चाहिए ।
१०. भोजन की थाली में उंगली से न लिखें ।
अ. भोजन करते समय जीव की देह से वासनात्मक तरंगें प्रक्षेपित होती हैं । अन्न ग्रहण आरंभ करने से पूर्व ‘अब भोजन करना है’, इस विचार से ही उसका रुचि-अरुचि का केंद्र जागृत होता है । इस केंद्र से प्रक्षेपित संदेशात्मक तरंगें अन्नपाचन की प्रक्रिया में काम आनेवाली शरीर की चयापचय (मेटाबोलिक) वायुओं को कार्यरत करती हैं । इन चयापचय वायुओं का जब शरीर में संचार होता है, तब जीव के मुख में लार उत्पन्न होती है । इस प्रकार जीव की देहसे इन वासनात्मक तरंगों का प्रक्षेपणआरंभ होने से उसपर इन तरंगों का आवरण बनता है । भोजन की थाली में उंगली से लिखने पर उंगलियों से प्रक्षेपित राजस-तामस तरंगों के कारण अन्न से प्रक्षेपित एवं शरीर के लिए उपयुक्त सात्त्विक सूक्ष्म-वायु का वायुमंडल में ही विघटन हो जाता है । इस कारण जीव सूक्ष्म स्तर पर प्राणशक्ति बढानेवाली इन वायुओं से वंचित हो जाता है ।
आ. थाली में रज-तमात्मक उंगलियों से बनाई गई आकृति की ओर वातावरण की कष्टदायक तरंगें आकृष्ट होकर घनीभूत होती हैं । जीव के शरीर पर इन तरंगों का भी विपरीत परिणाम होता है ।
११. भोजन करते समय बीच में उठकर न जाएं
भोजन से पूर्व प्रार्थना कर, भोजन की थाली के सर्व ओर जलसे अथवा मानस मंडल बनाकर ही अन्न ‘प्रसाद’के रूप में ग्रहण करें । भोजन करने की प्रक्रिया यथासंभव अखंड रहे, तो ही भोजन रज-तम से मुक्त रह पाता है । भोजन करते समय बीच में ही उठकर जाने से सुरक्षा-कवच के बाह्य परिसर में जीव की देह अनिष्ट शक्तियों से दूषित हो जाती है । ऐसी देह से पुनः सुरक्षा-कवच की परिकक्षा में प्रवेश करने से सुरक्षा-कवच की शक्ति भी क्षीण होती है तथा जीवके रज-तमयुक्त हस्तस्पर्श से अन्न भी दूषित होना आरंभ हो जाता है । अतएव, यथासंभव भोजन करते समय बीच में ही मंडल तोडकर उठने से होनेवाला रज-तमात्मक तरंगों का आक्रमण टालने का प्रयास करें । भोजन की यह प्रक्रिया अखंडरूप से नामजपयुक्त शुद्धिकरण की सहायता से संपन्न करें । भोजन के बीच में ही उठकर जाने से देह में रजोगुण भी बढ जाता है । इससे देह पर बाह्य वायुमंडल में स्थित शक्तियों के आक्रमण की तीव्रता भी बढ सकती है ।
१२. भोजन करते समय एक-दूसरे को स्पर्श न करें
भोजन करते समय जीव का वासनामयकोष जागृत रहता है । इसलिए जीव के सर्व ओर सूक्ष्म-वासनामय तरंगों का कोष बन जाता है । इस स्थिति में वायुमंडल से रज-तम जीव के बाह्यमंडल की ओर आकर्षित होते हैं । इस अवस्था में जीव की देह में रज-तम सर्वाधिक मात्रा में कार्यरत रहते हैं । जिसमें रज-तम जागृत अवस्था में हैं, ऐसे जीव द्वारा दूसरे जीव को स्पर्श करने पर उसकी देह के जागृत रज-तम, ‘दूसरे जीव की ओर आकृष्ट होते हैं’ । इससे दूसरे जीव को कष्ट हो सकता है । साथ ही इस अवस्था में अनिष्ट शक्तियों से पीडित जीव में अनिष्ट शक्ति अर्ध-प्रकट अथवा पूर्ण-प्रकट होकर दूसरे जीव पर स्पर्श के माध्यम से काली शक्ति प्रक्षेपित कर सकती है; इसलिए हिन्दू संस्कृति में ‘भोजन करते समय एक-दूसरे का स्पर्श न हो’, इसकी भी व्यवस्था की गई है ।
१३. भोजन करते समय अपनी थाली का अन्न दूसरे को न दें
भोजन करते समय सामान्य जीवों का वासनामयकोष अन्न से संलग्न हो जाता है । इसलिए भोजन की थाली एवं जीव के वासनामयकोष में सूक्ष्म-संपर्कतंत्र निर्मित हो जाता है । इससे जीव की देह से संबंधित रज-तमका संपर्क, थाली की आकृति से एवं पदार्थों के स्वरूप से सूक्ष्मरूप से होता है । फलतः अन्न पर भी जीव के रज-तम का एवं उसकी प्रकृति का संस्कार हो जाता है । जब कोई जीव अपनी थाली का कोई पदार्थ किसी दूसरे को देता है, तब उसका रज-तम दूसरे जीव की ओर उस पदार्थ के माध्यम से प्रक्षेपित होता है । जब दूसरा जीव वह पदार्थ ग्रहण करता है, तब उसका रज-तम बढ जाता है । पदार्थ देनेवाला जीव अनिष्ट शक्तियों से पीडित हो, तो इस पदार्थ के माध्यम से अनिष्ट शक्ति दूसरे जीव को कष्ट दे सकती है; इसलिए धर्मशास्त्र में कहा गया है कि अपनी थाली का अन्न दूसरे को न दें ।
१४. एक ही थाली में दो व्यक्ति एक साथ अन्न-सेवन न करें
एक ही थाली में दो जीवों के एकत्र अन्न ग्रहण करने पर दोनों जीवों के वासनामयकोष की वासनातरंगें एक ही थाली के सर्व ओर कार्यरत होती हैं । ऐसे अन्न पर दोनों जीवों की वासनातरंगों की टेढी-मेढी संरचना बनकर उनमें सूक्ष्म-कंपन निर्मित होते हैं । इन सूक्ष्म-कंपनों के नाद से वातावरण से रज-तम एवं अनिष्ट शक्तियां वहां आकर्षित होती हैं । वासनामयकोष में जागृत वासना का आश्रय लेकर जीव पर नियंत्रण पाना
अनिष्ट शक्तियों के लिए सरल हो जाता है । इसलिए हिन्दू संस्कृति में कहा गया है कि दो जीव एक ही थाली में अन्न ग्रहण न करें ।
१५. अन्न में केश हो, तो वह अन्न न खाएं
केश रज-तमप्रधानता युक्त, अर्थात वायुमंडल में विद्यमान रज-तमात्मक तरंगों को तुरंत अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखते हैं । इसलिए केशयुक्त अन्न अशुद्ध माना जाता है; क्योंकि केश के स्पर्श से अन्न भी अशुद्ध हो जाता है, अर्थात कष्टदायक तरंगों से दूषित हो जाता है । ऐसे अन्न का सेवन स्वास्थ्य की दृष्टि से तथा अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की दृष्टि से घातक होता है ।
१६. जूठे हाथ लेकर न बैठें अथवा जूठे हाथ न सोएं
जूठे हाथ लेकर बैठने अथवा सोने से हाथ से चिप के अन्नकणों की ओर वायुमंडल में विद्यमान वासनात्मक कोषोंसहित भ्रमण करनेवाली अनिष्ट शक्तियां आकृष्ट होती हैं । इससे अनिष्ट शक्तियों के वासनात्मक कोषों से प्रक्षेपित रजतमात्मक तरंगें जीवकी उंगलियों के माध्यम से उसके शरीर में संचारित होने की आशंका रहती है । कभी-कभी अन्नकणों के माध्यम से कोई अनिष्ट शक्ति जीव की देह में प्रवेश भी कर सकती है । ऐसी आशंका के कारण जूठे हाथ लेकर बैठना अथवा शयन करना इत्यादि कोई भी कार्य करने से बचें । हाथ धोकर उनकी उचित शुद्धि करने के उपरांत ही आगे का कार्य आरंभ करना इष्ट होता है ।
१७. पंगत में सभी का भोजन पूर्ण हुए बिना न उठें ।
अ. स्वयं से सबंधित कारण
१. मानसिक कारण (दूसरों का अनादर करने से पाप लगना) : पंगत में सभी का भोजन पूरा होने से पूर्व पंगत के बीच से ही उठ जाना दूसरों का अनादर करने समान है । अनादर करने से कनिष्ठ (स्तरका) पाप लग सकता है ।
२. आध्यात्मिक कारण (पंगत से बीच में ही उठ जाने से पंगत पर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की आशंका) : पंगत में भगवान से प्रार्थना कर एवं विविध श्लोकपाठ कर भोजन आरंभ किया जाता है । इससे पंगत के सर्व ओर तेजतत्त्व का सुरक्षा-कवच निर्मित होता है । पंगत से बीच में ही उठ जाने से इस सुरक्षा-कवच को भेदकर अनिष्ट शक्तियों का भोजन की पंगत पर आक्रमण हो सकता है । इसलिए ऐसा कहा जाता है, ‘सभी का भोजन पूर्ण होने से पूर्व बीच में ही पंगत से उठकर नहीं जाना चाहिए ।
आ. दूसरों से संबंधित कारण
१. दूसरोें पर भोजन शीघ्र समाप्त करने हेतु तनाव आना : ‘जिन का भोजन हो चुका है, वे एक-एक कर पंगत से उठकर जाने लगें, तो जिनका भोजन शेष है, उनपर भोजन शीघ्र समाप्त करने का मानसिक दबाव आता है । कभी-कभी वे पेट भरने से पूर्व ही पंगत से उठ जाते हैं ।
१८. खडे रहकर भोजन न करें ।
खडे रहकर भोजन करने से शरीर में अधोगामी तरंगों का संचार बढता है तथा पंचप्राणों का कार्य घटकर, उपप्राणों का कार्य बढ जाने से अन्न-पाचन ठीक से नहीं हो पाता । उपप्राणों के कार्य के कारण भूमि से प्रक्षेपित कष्टदायक तरंगें शरीर की ओर आकृष्ट होती हैं; इसलिए यथासंभव खडे रहकर भोजन न करें ।
१९. चलते-फिरते भोजन न करें ।
चलते समय भूमि तथा पैरों के घर्षण से उत्पन्न नाद से पाताल की अनिष्ट शक्तियां जागृत होती हैं और पाताल से भूमि की ओर प्रक्षेपित कष्टदायक तरंगों की गति बढ जाती है । इन स्पंदनों का संचार, जीव द्वारा सेवन किए पदार्थों के माध्यम से उसके शरीर में होता है । इससे उस जीव को अनिष्ट शक्तियों की पीडा होने की आशंका बढ जाती है । अतः चलते समय कुछ ग्रहण न करें, पूरा ध्यान जप पर दें । चलते हुए जप करने से उस समय पाताल से हो रहा कष्टदायक तरंगों का प्रक्षेपण प्रभावीरूप से रोका जा सकता है ।
२०. भोजन कर रहे व्यक्ति को नमस्कार न करें ।
भोजन कर रहे व्यक्ति का रजोगुण बढा हुआ होता है । अतः ऐसे व्यक्ति को नमस्कार करने से, नमस्कार-कर्ता को उसका पूरा लाभ नहीं मिलता ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘भोजनके समय एवं उसके उपरांतके आचार’