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भोजन के पश्चात क्या करना चाहिए आैर क्या वर्जित है ?

१. भोजन के उपरांत किए जानेवाले कृत्य

अ. अन्न पैरों तले न आए, इस हेतु भोजन करने के पश्चात थाली के आसपास बिखरे अन्नकण उठाकर थाली अथवा कटोरी में रखें ।

आ. तीन बार कुल्ला करें ।

अन्न ग्रहण करते समय आंतों की गतिविधियों से शरीर की आंतरिक रिक्ति से सूक्ष्म फेंकनेयोग्य वायु प्रक्षेपित होती हैं । भोजनोपरांत कुल्ला कर, इन वायुओं को जलके माध्यम से शरीर से बाहर करने के लिए दमन अर्थात द्वितीय मुखशुद्धि की जाती है ।

जल सर्वसमावेशक है । इसलिए भोजन-पूर्व मुख की रिक्ति में संगृहीत वासनात्मक रज-तमात्मक वायुओं का उत्सर्जन कर ‘अन्न-सेवन की प्रक्रिया पूर्णतः रज-तम विहीन बनाई जाती है । भोजन के उपरांत शरीर की आंतरिक रिक्ति से उत्सर्जित वायुओं को कुल्ले के माध्यम से (कुल्ला करने के लिए मुख में लिया गया) जल अपने में समाविष्ट कर लेता है । तीन बार कुल्ला करना अर्थात तीन बार किए गए कर्म से इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान की तरंगों के आधार पर प्रत्येक कर्म को पूर्णत्व (पूर्णता) प्रदान कर तरंगों का उच्चाटन किया जाता है ।

इ. मुख धोकर दांत भी स्वच्छ करें ।

र्इ. न्यूनतम ३ तथा अधिक से अधिक २१ बार कवलग्राह करें । यदि ३ से अधिक बार कवलग्राह करना हो, तो ३ के गुणक में अर्थात ६ अथवा ९ की संख्या में करें ।

भोजन के उपरांत ३ से २१ बार कवलग्राह करने का शास्त्रीय आधार : विषम संख्या रजोगुणी शक्तिब्रह्म से संबंधित है । विषम संख्या से आरंभ एवं विषम संख्या से अंत होना, यह बढते क्रम में निर्गुण से सगुण में आनेवाले कार्यकारी ब्रह्म का प्रतीक है । ३ x ७, अर्थात सप्तदेवताओं में से प्रत्येक की सगुण कार्यकारी संकल्पशक्ति इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान, इन शक्तियों के रूप में तीन गुना कार्यरत होकर कवलग्राह के जल में आती है तथा इस जल के स्पर्श के माध्यम से मुख एवं गले की रिक्तियां शुद्ध करने की दर्शक है । (यहां ३ x ७ में ३ से आशय है तीन गुना एवं ७ से आशय है सप्तदेवता ।)

उपरोक्त प्रक्रिया से सप्तदेवताओं की तीन शक्तियों के रूप में कार्य करनेवाली तरंगों की साक्षि में (उपस्थिति में) अन्नपाचन की प्रक्रिया के विशिष्ट रज-तमात्मक तरंगों के कार्यकारी स्तरका विघटन होता है । इसके परिणामस्वरूप अन्नपाचन की प्रक्रिया से ‘अन्न सेवन एक यज्ञकर्म है’ इस संकल्पका फल साध्य किया जाता है । इसलिए विशेषकर प्रमुख सप्तदेवताओं की प्रत्येक की तीन शक्तियों के स्तर पर
कार्य करनेवाली २१ की संख्यातक कवलग्राह करें । इससे मुख तथा गले की रिक्ति की शुद्धता साध्य होती है तथा अन्नपाचन की क्रिया शुद्ध एवं सात्त्विक बनती है ।’

उ. पैर धोएं ।

भोजनकर्म द्वारा देह में उस अन्न-पाचन के लिए रजोगुणी ऊर्जा का संचय होता है । साथ ही भोजन करते समय जीव के मन में रजतमगुणी विचारों की निर्मिति की प्रक्रिया का कार्य चल रहा हो, तो भोजन द्वारा भी यह वैचारिक रज-तमगुणी प्रदूषण जीव की देह की रिक्ति में (देह गुहा में) अनायास समा जाने की आशंका रहती है । भोजनकर्म द्वारा जीव की देह में बढे हुए रज-तमगुण का लाभ उठाकर वायुमंडल में विद्यमान अन्न से संबंधित आसक्ति से संबंधित अनेक लिंगदेह तथा अनिष्ट शक्तियां जीव पर आक्रमण कर सकती हैं । भोजनकर्म से देह में उत्पन्न रज-तमात्मक स्पंदनों का संसर्ग टालने के लिए पैर धोएं एवं वह विशिष्ट रजतमधर्म जल में विसर्जित करें ।

ऊ. आगे बताए अनुसार आचमन करें । आचमन करना संभव न हो, तो आचमन के पश्चात किए जानेवाले आचारों का पालन करें ।

  • जल से भरा कलश, पंचपात्र (तांबे का जलपात्र), आचमनी एवं जल छोडने के लिए ताम्रपात्र लें ।
  • कलश से अल्पसा जल पंचपात्र में डालें ।
  • पंचपात्र का जल बाएं हाथ से आचमनी में लेकर दाहिने हाथ की हथेली पर रखकर ‘ॐ श्री केशवाय नमः ।’ कहकर प्राशन करें । इसके पश्चात पुनः उसी प्रकार से जल लेकर ‘ॐ नारायणाय नमः ।’ कहकर प्राशन करें । तत्पश्चात तीसरी बार हथेली पर जल लेकर ‘ॐ माधवाय नमः ।’ कहकर प्राशन करें । अंत में हथेली पर जल लेकर ‘ॐ गोविंदाय नमः ।’ कहकर उसे ताम्रपात्र में छोड दें ।

भोजन के उपरांत आचमन करें । अपवित्रता से किया कोई भी धर्मकार्य निष्फल होता है । आचमन से हम केवल अपनी ही शुद्धि नहीं करते, अपितु विश्व को भी तृप्त करते हैं !

इस संदर्भ में पुराणों में उत्तंक नामक मुनि की एक कथा है । एक बार गुरुपत्नी ने उनसे गुरुदक्षिणा स्वरूप पौष्य राजा की पतिव्रता पटरानी के कानों के कुंडल लाकर देनेके लिए कहा । शीघ्रता में खडे-खडे ही कुछ खाकर एवं आचमन कर, उत्तंक राजा के पास जाते हैं । उनसे अनुमति लेकर अंतःपुर में जाते हैं । उन्हें रानी के दर्शन ही नहीं होते । तब पौष्य राजा उत्तंक मुनि को बताते हैं कि वे अशुचि (अस्वच्छ अथवा अपवित्र) हैं । उत्तंक तत्काल हाथ-पैर धोकर, कुल्ला कर आसन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठ जाते हैं । वे तीन पारियों में प्रत्येक बार दो-दो आचमन करते
हैं । नेत्र, नासिका और कान को जलस्पर्श करने के उपरांत वे अंतःपुर में जाते हैं । तदुपरांत उन्हें वह पतिव्रता रानी दिखाई देती है । – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

ए. मुखशुद्धि के लिए बीडा (पान) अथवा सौंफ ग्रहण करें । बीडा सेवन से पूर्व पानका डंठल, सिरा एवं रेशे अवश्य निकालें । उसे पीसकर सेवन करने से आयु का नाश होता है । पान के रेशे (शिराएं) बुद्धिनाशक होने के कारण उन्हें भी निकाल दें । पान के रस का विचार किया जाए, तो उसका प्रथम रस निगलना विषतुल्य है । दूसरी बार आनेवाला रस पचने में कठिन है तथा प्रमेहकारक (शरीर में मूत्र-प्रवृत्ति बढानेवाला रोग) है । तीसरी बार अथवा उसके आगे निकलनेवाला रस अमृततुल्य होता है, इसलिए उसे निगलें । पहली एवं दूसरी बार आनेवाला रस न निगलें ।

२. अन्नपाचन भली-भांति होने हेतु किए जानेवाले कृत्य

अ. भोजनोपरांत उदरपर हाथ घुमाएं एवं निम्नलिखित में से एक श्लोक बोलें ।

  • अ. अगस्त्यं कुम्भकर्णं च शनिं च वडवानलम् ।
    आहारपरिपाकार्थं स्मरेद् भीमं च पञ्चमम् ।।
    अर्थ : ग्रहण किए गए आहार का ठीक से पाचन हो, इसलिए अगस्त्य, कुंभकर्ण, शनि, वडवाग्नि (दावानल) एवं भीम, इन पांचोंका सदैव स्मरण करें ।
  • आ. अङ्गारकमगस्तिं च पावकं सूर्यमश्विनौ ।
    यश्चैतान् संस्मरेन्नित्यं भुक्तं तस्याशु जीर्यते ।।
    अर्थ : जो मनुष्य भोजन के उपरांत मंगल, अगस्ति, अग्नि, सूर्य एवं अश्विनीकुमार का स्मरण करता है, उसका अन्न शीघ्र पचता है ।

आ. पांच से दस मिनट वज्रासन में बैठें । यही एक ऐसा आसन है, जो भोजन के पश्चात भी किया जा सकता है ।

इ. भोजन के उपरांत सुखपूर्वक टहलें (चहलकदमी करें) ।

र्इ. अन्न पाचन शीघ्र हो, इस हेतु पीठ के बल लेटकर ८ श्वास, दार्इं करवट लेटकर १६ श्वास एवं बार्इं करवट लेटकर ३२ श्वास धीरे-धीरे लें । धीरे एवं दीर्घ श्वास लेने से आयुवृद्धि होती है । श्वास शीघ्रता से लेने पर आयु अल्प होती है ।

३. वामकुक्षी करना (बार्इं करवट लेटना)

मध्याह्न-भोजन के उपरांत कुछ समय सुखपूर्वक टहलकर (चहलकदमी कर) बार्इं करवट २४ मिनट विश्राम करें, अर्थात वामकुक्षी करें ।

वामकुक्षी करने से अन्नपाचन सहज होना : वामकुक्षी करते समय देह की मुद्रा के कारण सूर्यनाडी (दार्इं नासिका से श्वासोच्छ्वास) सक्रिय होती है । इससे पाचकरस अधिक मात्रा में दाावित होने से अन्नपाचन सहज होता है ।

वामकुक्षी करने से जीव की प्राणशक्ति बढना : भोजन के उपरांत वामकुक्षी करते समय देह की मुद्रा के कारण मणिपुरचक्र सक्रिय होता है । इस अवस्था में नामजप करने से मणिपुरचक्र के सर्व ओर स्थित पंचप्राणों की भी शुद्धि होती है तथा उनका कार्य बढता है । पंचप्राणों के माध्यम से अन्नपाचन क्रिया में निर्मित सात्त्विक सूक्ष्म-वायु का संचार प्राणमयकोष में अल्पावधि में हो पाता है । साथ ही, जीव की प्राणशक्ति बढकर उसे अन्न-सेवन से संतुष्टि मिलती है तथा नामजप से शांति प्राप्त होती है ।

४. रात्रि के भोजन एवं शयन में न्यूनतम १-२ घंटे का अंतर हो ।

आहार ग्रहण करने एवं निद्रा में न्यूनतम १-२ घंटे का अंतर आवश्यक है; क्योंकि उदर में गया अन्न उतने समय में थोडा तो पच जाता है ।

आहार के उपरांत तत्काल निद्राधीन होने पर देह में तमोगुण का संचार बढकर अन्नपाचन प्रक्रिया में बाधा आना : नींद की मुद्रा तमोगुणी है, इसलिए आहार के उपरांत तत्काल निद्राधीन होने से देह में तमोगुण का संचार बढकर अन्नपाचन प्रक्रिया में अनेक प्रकार की बाधाएं उत्पन्न होती हैं । परिणामस्वरूप रज-तमात्मक सूक्ष्म तरंगों की संभाव्य निर्मिति स्वास्थ्य के लिए घातक सिद्ध होती है । इन तरंगों के प्रभाव में सोने की मुद्रा द्वारा पाताल में कार्यरत अनेक वासनाजन्य शक्तियां इस काल में जीव पर आक्रमण कर सकती हैं । ऐसा कहते हैं कि आहार के एक-दो घंटे के उपरांत ही निद्राधीन हों । अर्थात स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक अन्नस्वरूपी पोषण प्रक्रिया में निद्रा से निर्मित तमोगुण के कारण बाधा उत्पन्न नहीं होती ।

५. भोजन के पश्चात यह न करें !

अ. रात्रि में जूठे पात्रों में (बरतनों में) अन्नकण न छोडें

रात्रि में अनिष्ट शक्तियों का संचार अधिक रहता है । इसलिए जूठे पात्रों में शेष अन्नकणों की ओर अधिक वासनायुक्त लिंगदेह आकृष्ट होती हैं । इन वासनात्मक लिंगदेहों का घरमें संचार बढने से इन लिंगदेहों से प्रक्षेपित कष्टदायक स्पंदनों का परिणाम होकर घर के व्यक्तियों को मिचली होना, अपचन, थाली में भोजन छोडकर उठ जाने का मन करना, भोजन की रुचि ही समाप्त हो जाना इत्यादि कष्ट होने की आशंका अधिक होती है; इसलिए जूठे पात्र में से जूठन घर के बाहर केले के पत्ते पर रखकर वह अन्न पशुओं को (गाय-भैंस को) खिला देना चाहिए अथवा आसरा आदि कनिष्ठ देवताओं को अर्पित करना चाहिए ।

आ. भोजन के पश्चात केश-कर्तन न करें ।

केश काटने की क्रिया से केश के भोथरे (कुंद) सिरों से वायुमंडल में रज-तमात्मक तरंगों का उत्सर्जन अधिक मात्रा में होता है । भोजन के उपरांत तुरंत ही केश काटने से जीव के सर्व ओर बडी मात्रा में रज-तमात्मक तरंगों की उत्सर्जनात्मक प्रक्रिया से निर्मित वायुमंडल बनता है । इस दूषित परिकक्षा के स्पर्श से देह की अन्नपाचन प्रक्रियापर विपरीत परिणाम होता है । इससे देह में दूषित वायु का घनीकरण आरंभ होता है । इस क्रिया से देह अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की बलि चढ सकती है । इसलिए भोजन के उपरांत केश काटना निषिद्ध माना जाता है ।

इ. भोजन के उपरांत स्नान न करें ।

१. भोजन के उपरांत देह में जारी अन्न-पाचन की क्रिया में देह के लिए पोषक अन्नरस तथा सूक्ष्म वायु ग्रहण करनेका कार्य, पाचन प्रक्रिया में सहभागी आंतों की कोशिकाओं द्वारा किया जाता है ।

२. इसमें पोषक वायु ग्रहण करने की तथा अनेक त्याज्य वायु उत्सर्जित करनेकी प्रक्रिया तीव्रगति से होती रहती है । यह एक रज-तमात्मक प्रक्रिया है ।

३. भोजन के उपरांत स्नान करने पर जल के स्पर्श से देह अत्यंत संवेदनशील बनती है । इससे पाचन प्रक्रिया अंतर्गत होनेवाली संतुलित वायुतत्त्वात्मक रजोगुणी प्रक्रिया आवश्यकता से अधिक गति धारण करती है ।

४. इस अनावश्यक गति के कारण देह की पाचन प्रक्रिया में वायुओं का घर्षण होकर कष्टदायक स्पंदनों की निर्मिति होने लगती है ।

५. इस निर्मिति-प्रक्रिया में उत्पन्न कष्टदायक नाद की ओर वातावरण की अनेक अनिष्ट शक्तियां आकृष्ट होकर अन्नपाचन प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं । इसलिए कहते हैं कि भोजन के उपरांत स्नान न करें ।

ई. भोजन के पश्चात व्यायाम न करें ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘भोजनके समय एवं उसके उपरांतके आचार