१. भोजन करने हेतु बैठने का स्थान
अ. रसोईघर भोजन के लिए बैठने का उत्तम स्थान है । पूर्वकाल में स्त्रियां भोजन बनाते समय अन्यों को वहीं गरम-गरम भोजन परोसती थीं । सभी अग्नि के समीप, एक प्रकार से शुद्ध वायुमंडल में भोजन करते थे । इस कारण भोजन की क्रिया में होनेवाला अनिष्ट शक्तियों का हस्तक्षेप भी टल जाता था । परंतु वर्तमान में भोजन करने एवं बनाने का स्थान अलग अलग होने से भोजन के माध्यम से अनिष्ट शक्तियों की पीडा भी बढ गई है तथा अब पहले जैसा प्रदीप्त सात्त्विक अग्निरूपी वायुमंडल भी लुप्त हो गया है । (आजकल चूल्हे के स्थान पर गैस का उपयोग किया जाता है ।) इस कारण कलियुग के मानव को जीवन में गंभीररूप की रज-तमात्मक समस्याओं का सामना करना पड रहा है । रसोईघर में बैठना संभव न हो, तो अन्य कक्ष में भोजन के लिए बैठें ।
आ. भोजन करने का स्थान स्वच्छ तथा वहां का वातावरण प्रसन्न हो ।
इ. भोजन करते समय यथासंभव वहां भोजन करनेवालों के अतिरिक्त अन्य लोगों का विचरण (आना-जाना) न हो ।
र्इ. खुले में, धूप में, वृक्ष के नीचे तथा अंधेरे कक्ष में अथवा शयनकक्ष (बेडरूम) में भोजन के लिए न बैठें । (किंतु संन्यासी अपनी मिली हुई भिक्षा नदी के तट पर अथवा किसी देवालय में जाकर एकांत में ग्रहण करें ।)
२. भोजन के लिए बैठने की दिशा
यथासंभव पूर्व अथवा पश्चिम दिशा की ओर मुख कर भोजन के लिए बैठें । उत्तर एवं दक्षिण दिशा में मुख कर भोजन कभी न करें ।
प्राङ्मुखोऽन्नानि भुजीत्तोच्चरेद्दक्षिणामुखः ।
उदङ्मुखो मूत्रं कुर्यात्प्रत्यक्पादावनेजनमिति ।।
– आपस्तम्बधर्मसूत्र, प्रश्न १, पटल ११, कांडिका ३१, सूत्र १
अर्थ : पूर्व दिशा में मुख कर अन्न ग्रहण करें, दक्षिण दिशा में मुख कर मलविसर्जन, उत्तर दिशा में मुख कर मूत्रविसर्जन एवं पश्चिम दिशा में मुख कर पैर धोएं ।
अ. पूर्व की ओर मुख कर अन्न क्यों ग्रहण करें ?
धर्माचरण के नियम अनुसार किसी विशिष्ट दिशा के वायुमंडल में वह कृत्य करने से वायुमंडल दूषित हुए बिना ब्रह्मांड की विशिष्ट शक्तिरूपी गतितरंगों में उचित संतुलन बना रहता है । पूर्व दिशा तेजतत्त्व के लिए पूरक है । अन्न-सेवन एक यज्ञकर्म ही है । यह यज्ञकर्म, पूर्व दिशा में तेज की शक्तिरूपी धारणा द्वारा पिंड में संक्रमित करने से उसका कृत्य को गति प्रदान करने में उचित पद्धति से विनियोग हो सकता है । एक विशिष्ट दिशा में मुख कर उन विशिष्ट तरंगों के स्पर्श के स्तर पर निर्दिष्ट कर्म करने से पापों के परिमार्जन एवं पुण्यप्राप्ति में सहायता मिलती है ।
आ. दक्षिण की ओर मुख कर भोजन के लिए कभी न बैठें
- जो दक्षिण दिशा में मुख कर, सिर पर पगडी अथवा टोपी धारण कर अथवा चप्पल पहनकर भोजन करता है, उसके भोजन ग्रहण करने की प्रक्रिया को आसुरी मानना चाहिए । – (महाभारत, अनुशासनपर्व, अध्याय ९०, श्लोक १९)
- दक्षिण दिशा में यम तरंगों का प्रभाव अधिक होनेसे ऐसा कहा गया है कि इन रज-तमात्मक तरंगों की अशुद्ध कक्षा में बैठकर अन्न को दूषित न करें । यम तरंगों के प्रभाव से युक्त ऐसा अन्न ग्रहण करने से व्यक्ति को अनेक अतृप्त आत्माओं की पीडा होने की आशंका के कारण यह नियम है कि अशुभ दक्षिण दिशा में मुख कर भोजन के लिए नहीं बैठना चाहिए ।
इ. उद्देश्य के अनुसार भोजन की दिशा
आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः ।
श्रियं प्रत्यङ्मुखो भुङ्क्ते ऋतं भुङ्क्ते ह्युदङ्मुखः ।।
– मनुस्मृति, अध्याय २, श्लोक ५२
अर्थ : जिसे आयुष्य की इच्छा है, वह पूर्व दिशा में मुख कर, जिसे यश की इच्छा है, वह दक्षिण की ओर मुख कर; जिसे लक्ष्मी की इच्छा है, वह पश्चिमाभिमुख होकर भोजन करे । जो उत्तराभिमुख बैठकर भोजन करता है, उसे सदाचार का फल मिलता है, सत्त्वगुण बढता है एवं आचरण नीतिमान होने में सहायता मिलती है । (यह पद्धति ब्रह्मचारियों के लिए नहीं; अपितु गृहस्थों के लिए है ।)
र्इ. वर्तमान कलियुग में दक्षिण एवं उत्तर दिशा की ओर मुख कर भोजन के लिए न बैठना ही श्रेयस्कर
‘जिसे यश की इच्छा है, वह दक्षिण की ओर मुख कर भोजन करे’, ऐसा ‘मनुस्मृति’में वर्णित है । किंतु, दक्षिण दिशा यम की है, इसलिए इस दिशा में मुख कर भोजन के लिए बैठने पर, भोजन करनेवाले व्यक्ति को अनिष्ट शक्तियों की पीडा होने की आशंका रहती है । ‘मनुस्मृति’ जिस काल में लिखी गई, उस काल के लोग बहुत सात्त्विक थे । ऐसे सात्त्विक जीवों को केवल दिशाओं के कारण अनिष्ट शक्तियों की पीडा नहीं होती । किंतु वर्तमान घोर कलियुग के सर्वसाधारण लोगों का आध्यात्मिक स्तर अल्प होने से दक्षिण की ओर मुख कर भोजन करने से लोग तुरंत अनिष्ट शक्तियों से पीडित हो सकते हैं । उत्तर दिशा की ओर मुख कर भोजन करते समय पीठ दक्षिण दिशा की ओर होती है । इस कारण दक्षिण दिशा से आनेवाली कष्टदायक यम तरंगों का परिणाम भोजनकर्ता पर होता ही है । अतः, दक्षिण एवं उत्तर दिशाओं में मुख कर भोजन हेतु न बैठना ही हितकारी है ।
टिप्पणी – बडी पंगत में चारों दिशाओं में मुख कर लोग भोजन के लिए बैठते हैं । ऐसे में स्वाभाविक ही कुछ लोगों का मुख दक्षिण अथवा उत्तर दिशा में होगा । ऐसी स्थिति में नामजप करते हुए भोजन करें ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘भोजन-पूर्वके आचार’