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भोजन का आरंभ सादी (तडकारहित) दाल एवं चावल से क्यो करना चाहिए ?

सादी दाल एवं चावल तथा उसपर घी, यह मिश्रण अत्यंत सात्त्विक है । इस मिश्रण से प्रक्षेपित सूक्ष्म वायु में वायुमंडल शुद्ध करने की क्षमता होती है । भोजन करते समय प्रार्थना करने के उपरांत प्रथम सादी दाल एवं चावल ग्रहण करना आरंभ करें । सादी दाल-चावल के सेवन से देह की पिंड-रिक्ति में विद्यमान सूक्ष्म सत्त्वगुणी रस जागृत होने से वे अन्न पचाने के लिए सिद्ध हो जाते हैं । सत्त्वगुणात्मक रसों के स्त्राव से देह के पंचप्राण जागृत होते हैं । इससे पिंडरिक्ति की इंद्रियां भी अन्न में विद्यमान सत्त्वगुण ग्रहण करने हेतु सिद्धता दर्शाती हैं ।

दाल-चावल एवं उसपर ‘अन्नशुद्धि’ हेतु शुद्ध देशी घी (गोघृत) परोसना

१. ‘दाल-चावल पर ‘अन्नशुद्धि’ हेतु गोघृत (देशी घी) परोसने की विधि है । घी अन्नशुद्धिकारक है । अतः इसके सेवन से अन्न के ही नहीं, अपितु घी से युक्त अन्न उदर में जाने पर वहां के बाधक तत्त्वों को भी वह नष्ट करता है ।

२. ‘गोघृत’को ‘ब्रह्मयज्ञरूपी रसायन’ माना गया है । ब्रह्मयज्ञरूपी रसायन, अर्थात ब्रह्मयज्ञ में सात्त्विक घटकों की आहुति से उत्पन्न सूक्ष्म अग्निरूपी वायु से उच्च देवताओं का जो आशीर्वादरूपी आधार मिलता है, वही सात्त्विक घटक ‘ गोघृत’के सेवन से मिलता है । दाल, चावल एवं घी को अत्यंत सात्त्विक आहार माना गया है । ‘घी’ सत्त्वरूपी निर्गुणस्वरूप, ‘चावल’ सत्त्व-रजोगुणी सगुण-निर्गुणस्वरूप तथा ‘दाल’ रजोरूप सगुणस्वरूप होने से इनके मिश्रण से सगुण एवं निर्गुण, दोनों प्रकार के चैतन्यदायी घटकों का लाभ होने में सहायता मिलती है । घी में विद्यमान सत्त्वशीलता के प्रभाव के कारण दाल एवं चावल का सत्त्व एवं रजोगुण कार्य करने हेतु उद्यत होता है । इससे जीव की स्थूल एवं सूक्ष्म देहों की एक साथ शुद्धि होती है । इसलिए दाल-चावल पर घी परोसकर उनके मिश्रण से उच्च स्तर पर अन्न सेवन के माध्यम से (घी परोसने से भोजन की सात्त्विकता में अनेक गुना वृद्धि होती है । इसलिए उच्च स्तर कहा है ।) देह पर होनेवाली सात्त्विक संस्काररूपी प्रक्रियाका लाभ प्राप्त किया जाता है । ‘गोघृत’ अल्पावधि में अपनी सात्त्विकता के बल पर विशिष्ट घटक में विद्यमान रज-तम कणों का उच्चाटन करता है । इस कारण भोजन का आरंभ दाल-चावल से करने की प्रथा है । इस शुद्ध मिश्रण से उदर की अन्नपाचन प्रक्रिया में सहभागी अवयवों की रिक्ति की शुद्धि होने से भोजन के अन्य अन्नघटकों का सेवन करते समय वह प्रक्रिया रज-तम से मुक्त अवस्था में संपन्न होती है । इसलिए दाल-चावल पर घी परोसकर इस मिश्रण से अन्न की तथा देह में विद्यमान रिक्तियों की शुद्धि करने की प्रथा हिन्दू धर्म ने प्रतिपादित की है ।’

दाल-चावल की सूक्ष्म-स्तरीय विशेषताएं

१. दाल में विद्यमान प्रत्यामिन (प्रोटीन) एवं चावल में विद्यमान श्रोतसार (कार्बोहाइड्रेट – पिष्टमय एवं शर्वâरायुक्त) पदार्थों के मिश्रण से दाल-चावल ग्रहण करने पर व्हृाक्ति को शक्ति प्राप्त होती है ।

२. दाल में रजोगुण एवं चावल में सत्त्वगुण अधिक होने के कारण उनके मिश्रण से रज-सत्त्व गुणों का प्रक्षेपण होता है ।

३. सर्वसामान्य व्हृाक्ति को दैनिक कार्य करने के लिए कार्यशक्ति की (रजोगुण की) आवश्यकता होती है । यह आवश्यक कार्यशक्ति उसे दाल-चावल से मिलती है ।

३ अ. व्हृाक्ति की देह में शक्ति की तरंगों का संचार होकर उन तरंगों से उसकी संपूर्ण देह पूरित होती है तथा देह को कार्य करने के लिए गति मिलती है ।

४. ‘पृथ्वी’ (भूमि) देवतास्वरूप है । जब दाल एवं चावल के बीजों की निर्मिति होती है, तब उनमें देवता-तत्त्व आकर्षित होता है । विशेषतः भारतभूमि में उत्पन्न अनाज में सात्त्विकता अधिक होती है ।’

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘भोजनके समय एवं उसके उपरांतके आचार