१. बीडे के घटक
बीडे में पान, कत्था, सुपारी, लौंग, चूना, जायफल, जायपत्री (जावित्री; जायफल के ऊपर का सुंगधित छिल का जो औषधि, मसाले आदि के काम आता है), इलायची, कबाबचीनी (गंधमरिच – Java pepper, Piper cubeba) कर्पूर, केसर, सौंफ, खोपरा (सूखा नारियल) ऐसे १३ घटक डाले जाते हैं ।
२. स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्त्व
अ. अन्न पचने पर वायु बढती है । अन्न पचते समय पित्त और भोजन के उपरांत कफ बढता है । इस प्रकार से दोषवृद्धि का भोजन से संबंध है । इसलिए सुपारी, कर्पूर, कस्तूरी, लौंग, जायफल, कबाबचीनी, काली मिर्च, चूना इत्यादि से युक्त; तीखा एवं कसैला मुख स्वच्छ करनेवाले स्वादों से युक्त, तथा सुगंंधित घटकों से युक्त बीडे के दो पान सेवन करें । इससे भोजन के उपरांत बढनेवाले कफ का प्रभाव घटता है ।
आ. बीडे के चर्वण से उत्पन्न रस रजोगुणी सूक्ष्म-वायु प्रक्षेपित करता है । यह वायु अन्नपाचन क्रिया को गति प्रदान करती है; इसलिए सुचारु पाचन-क्रिया के लिए भोजन के उपरांत बीडा खाते हैं ।
३. आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्व
अ. भोजन के उपरांत तांबूल-सेवन के कारण पान के पत्ते से सूक्ष्म-वायु प्रक्षेपित होती है । परिणामस्वरूप अन्न से प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगों को ग्रहण करने की, जीव के प्राणदेह तथा प्राणमयकोष की क्षमता बढ जाती है ।
आ. पान से प्रक्षेपित सूक्ष्म-वायु से शरीर के पंचप्राणों के कार्य को गति प्राप्त होती है तथा अन्न से प्रक्षेपित रज-तमयुक्त वायु का विघटन होने में सहायता मिलती है । इसलिए स्थूल तथा सूक्ष्म स्तर पर भी अन्न का पाचन भली-भांति होता है ।
इ. भोजन के उपरांत सौंफ अथवा पान का सेवन करने से देह में कार्यरत सूक्ष्म- वायु सुचारु रूप से कार्य करती है ।
४. पान खाने के लाभ
अ. तांबूल-सेवन से तालू, दांत, गला एवं मुख के रोग ठीक होते हैं ।
आ. कफरोग पर पान उत्तम है ।
इ. ताम्बूलं कटुतिक्तमुष्णमधुरं क्षारं कषायान्वितम्
वातघ्नं कृमिनाशनं कफहरं दुर्गन्धिनिर्णाशनम् ।
वक्त्रस्याभरणं विशुद्धिकरणं कामाग्निसंदीपनम्
ताम्बूलस्य सखे त्रयोदश गुणा: स्वर्गेऽपि ते दुर्लभाः ।। – योगरत्नाकर
अर्थ : तांबूल कटू (कडवा), तिक्त (तीखासा), उष्ण, मधुर, खारा एवं कसैला है । वह वातहारक, कृमिनाशक एवं कफहारी है तथा दुर्गंध (कुवास) समाप्त करता है । वह मुख की अशुद्धि (अस्वच्छता) समाप्त कर मुख पर शोभा लाता है तथा कामाग्नि उद्दीपित करता है । हे मित्र, तांबूल के ये तेरह गुण तुम्हें स्वर्ग में भी दुर्लभ हैं ।
५. पान के कुछ भागों से संभावित हानि
अ. पान के डंठल से व्याधियां होती हैं; इसलिए उसे निकाल दें ।
आ. अग्रभाग पापकारक है ।
इ. पान के रेशे (शिराएं) ग्रहण करने से बुद्धि का नाश होता है ।
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी
६. पान (बीडा) कब एवं कैसे सेवन करें ?
पान का सेवन दिन में सुपारी अधिक डालकर, दोपहर में कत्था अधिक डालकर एवं रात को चूना अधिक डालकर करना चाहिए । पान का सेवन डंठल एवं अग्रभाग निकालकर करने की प्रथा है । उसे पीसकर सेवन करने से आयु का नाश होता है । पान के रेशे (शिराएं) बुद्धिनाशक होने के कारण उन्हें भी निकाल दें । पान के रस का विचार किया जाए, तो उसका प्रथम रस निगलना विषतुल्य है । दूसरी बार आनेवाला रस पचने में कठिन है तथा प्रमेहकारक (शरीर में मूत्र-प्रवृत्ति बढानेवाला रोग) है । तीसरी बार अथवा उसके आगे निकलनेवाला रस अमृततुल्य होता है, इसलिए उसे निगलें । पहली एवं दूसरी बार आनेवाला रस न निगलें ।
७. बीडे का सेवन विशेषकर कौन करें ?
जब आलस अथवा ऊब प्रतीत हो, तब पान का सेवन करना चाहिए । उससे उत्तेजना मिलती है । फोडा, जिह्वाका रोग, गंडमाला (गोइटर) एवं कफरोग हुए व्यक्तियों को बीडे का सेवन नहीं करना चाहिए ।
८. बीडे का सेवन किसे नहीं करना चाहिए ?
रक्तस्त्राव की प्रवृत्ति, व्रण, नेत्रों के विकार, शरीर में जलन होना, विषबाधा, क्षय, शौच पतला होना, दमा, मोह, मूच्र्छा इत्यादि विकारों में पान का सेवन न करें । मद्य पीनेवाले, अतिसारग्रस्त एवं जो भूखे हैं, वे भी पान का सेवन न करें ।
अ. निषिद्ध
पान कामोत्तेजक है, अतः मनुस्मृति के अनुसार संन्यासी, ब्रह्मचारी, विधवा तथा देवकार्य, धर्मकार्य तथा गुरुकार्य हेतु सर्वत्याग करनेवाली स्त्रियों के लिए पान वर्जित है ।
९. अति पानसेवन के दुष्परिणाम
अति पानसेवन से देह, केश, नेत्र, कान, दांत, जठराग्नि, शरीर का वर्ण एवं बल का ह्रास होता है, मुख सूखता है, तथा रक्तपित्त एवं वातरक्त रोग होते हैं ।
१०. हिन्दुओं को सहस्त्रों वर्षों से ज्ञात विशेषताएं विज्ञान द्वारा अब सिद्ध होना !
चेन्नई में भारती कृष्णतीर्थस्वामीजी के पूर्वाश्रम में डॉ. हेन्डरसन शरीर विज्ञान-शास्त्र के प्राध्यापक थे । उन्होंने पान के रासायनिक उपचारपद्धति की क्षमता के संदर्भ में अनेक वर्ष शोध किया तथा उसमें वे सफल भी हुए । डॉ. हेन्डरसन कहते हैं, `पान के सेवन करनेयोग्य भाग में, डंठल तथा रेशों में चार विभिन्न रासायनिक घटक हैं ।
अ. डंठल में ऑक्सी-हीमोग्लोबिन (oxyhemoglobin) नामक हीमोग्लोबिन का क्षय करनेवाला विष है । उससे दूर रहना चाहिए ।
आ. पान के निचले भाग में कामोत्तेजक द्रव्य (aphrodiasic) है । यह द्रव्य यौन शक्ति भडकाता है तथा शरीर के लिए घातक है ।
इ. पान के रेशों में मॉर्फिक (morphic) स्वरूप में विष है । वह मस्तिष्क के लिए घातक है ।
र्इ. अब शेष पान उपयुक्त है । प्रतिदिन एक पान का सेवन शक्तिवर्धक ही है । अतिरिक्त संभोग के कारण जिन की पाचनशक्ति बिगड गई है, उनके लिए ऐसे पान का सेवन बहुत लाभदायक है ।’
दक्षिणामूर्तिने कहा, ‘‘देखिए कैसा चमत्कार है । संपूर्ण भारत में पान का सेवन किया जाता है । डंठल, रेशे (शिराएं) एवं अग्रभाग (सिरे) तोडकर शेष पान का सेवन करते हैं । वैसी ही प्रथा है ! संपूर्ण भार तमें, कश्मीर से कन्याकुमारी, कामरूप से भृगुकच्छतक, संपूर्ण राष्ट्र में ही यही परंपरा है ।’’
मैंने (उमानंदने) कहा, ‘‘क्या यह आधुनिक विज्ञान द्वारा हमारे लिए रहस्योद्घाटन नहीं है ? क्या आधुनिक विज्ञान हमें अपने सनातन धर्म के सिद्धांतों को ही उजागर कर नहीं समझा रहा ?’’
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘भोजनके समय एवं उसके उपरांतके आचार’