पूर्वकाल में स्त्रियां स्नान से पूर्व फनीघर के (प्रसाधन-पेटी के) समक्ष बैठकर अपने केश में कंघी किया करती, टूटे हुए केश को चूल्हे में डालकर जलाती और केश को खुला छोडकर घर से बाहर नहीं जाती थीं । मां अथवा नानी-दादी द्वारा केश संबंधी इस प्रकार के आचार-संस्कार सहजता से बालिकाओं पर होते थे । बीच के काल में धर्मशिक्षा के अभाव में हिंदुओं द्वारा धार्मिक आचार और परंपरा का धीरे- धीरे त्याग अथवा उस संबंध में अनास्था उत्पन्न हुई । इसलिए सांस्कृतिक स्तर पर हिंदू समाज की हानि तो हुई ही; उसकी अपेक्षा आध्यात्मिक हानि अधिक हुई । केश के संबंध में ऐसे अहितकर कृत्य टालकर टूटे हुए केश दो दिन पश्चात घर से बाहर करना, रासायनिक केशनिखार से (शैंपू से) केश न धोकर आयुर्वेदिक घटकों की सहायता से अथवा आयुर्वेदिक साबुन से केश धोने जैसे उचित कृत्यों के विषय में मार्गदर्शन इस लेख में आपको मिलेगा ।
आजकल, विषेशतया संध्या काल में घूमने के लिए बाहर जाते समय, सर्वत्र स्त्रियों की यह आकांक्षा होती है कि वे सुंदरतम दिखें और इसलिए वे अपने केश खुले छोडती हैं । इस लेख में देखते है, केश खुले क्यों नहीं छोडने चाहिए ।
केश की सुंदरता बनाए रखने के साथ ही उनपर अनिष्ट शक्तियों के संभावित आक्रमणों को रोकने हेतु केश की ओर विशेष ध्यान देना आवश्यक है । केवल केश के सौंदर्य की देख-रेख करते समय वह रज-तम पद्धति से करने पर केश की नैसर्गिकता नष्ट हो सकती है । केश की नैसर्गिकता को संजोकर, उनका सौंदर्यवर्धन करना, अर्थात केश को सात्त्विक पद्धति से संजोना ।
आजकल सौंदर्यवर्धन के उद्देश्य से पुरुष चोटी बनाये हुए भी दिखाई देते हैं । आइए इस लेख द्वारा यह समझ लेते हैं की, पुरुषों को छोटे केश ही क्यों रखने चाहिए तथा स्त्रीओं के विपरीत लंबे केश रखना पुरुषों के लिए हानिकारक क्यों है आैर पुरुषद्वारा किस दिन केश काटने चाहिए और किस दिन नहीं काटने चाहिए ।
आजकल के स्त्री-पुरुषों के केशभूषा के प्रति अधिकांश समाज का दृष्टिकोण केवल सौंदर्यवर्धन का हो गया है । पुरुषों द्वारा केश बढाना, दाढी और मूंछें बढाना, ऐसे कृत्य सौंदर्यवर्धन की दृष्टि से मनुष्य को अच्छे लगते हों, तो भी उन कृत्यों के द्वारा हम अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों को एक प्रकार से आमंत्रण ही देते हैं । इस लेख में देखते है पुरुषों काे नख, केश, दाढी और मूंछें क्यों नहीं बढने देनी चाहिए ।
सैकडों वर्षों से स्त्रियां केश धोने के लिए शिकाकाई और रीठे का उपयोग करती आ रही हैं । आैर वर्तमान में अनेक प्रकार के (कृत्रिम) रासायनिक साबुन और केशमार्जक (शैंपू) मिलते है । इस लेख में देखते है रासायनिक तथा आयुर्वेेदिक केशमार्जक का तुलनात्मक अध्ययन ।
पूर्वकाल में मां अथवा नानी-दादी द्वारा केश संबंधी आचार-संस्कार सहजता से बालिकाओं पर होते थे । बीच के काल में धर्मशिक्षा के अभाव में हिंदुओं द्वारा धार्मिक आचार और परंपरा का धीरे- धीरे त्याग अथवा उस संबंध में अनास्था उत्पन्न हुई । इस लेख में केश संवारने की उचित पद्धति, केश संवारने के पश्चात स्नान करना क्यों आवश्यक है, इत्यादी इसका शास्त्रीय विवेचन किया गया है ।