प्रस्तुत लेख में वस्त्रों के रंगों का चयन किस प्रकार करें कि रंगों का संयोजन आध्यात्मिक दृष्टिकोण से योग्य हो, ऋतु एवं व्यक्ति के स्वभाव के अनुकूल हो तथा विशिष्ट देवता के तत्व को आकृष्ट करता हो, यह विस्तार से बताया गया है ।
शुक्ल शांत्यर्थ जाण । रक्तासवे वशीकरण ।
अभिचारी कृष्णवर्ण । पीतवर्ण धनागमी ।।
अर्थ : श्वेत रंग शांति का प्रतीक है । वशीकरण के लिए लाल रंग, तो बुरे कर्म के लिए काले रंगका प्रयोग किया जाता है । पीला रंग धनसंपदा का दर्शक है ।
१. ऋतु अनुसार वस्त्रों का रंग
ऋतु | वस्त्रोंका रंग |
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१. ग्रीष्म एवं शरदऋतु | श्वेत । श्वेत वस्त्र सूर्यकिरण परावर्तित करते हैं; इसलिए शरीर ठंडा रहता है । |
२. वर्षा | श्वेत अथवा पीला |
३. शिशिरऋतु (शीतकाल) | लाल, पीला अथवा काला । |
४. वसंतऋतु | लाल अथवा अन्य गहरा रंग |
प्रत्येक ऋतु में प्रयोग करने योग्य विशेष रंगों के वस्त्रों का शास्त्रीयआधार
ग्रीष्म एवं शरद ऋतु
‘इस काल में ब्रह्मांड में उष्ण तरंगों का संक्रमण अधिक होता है । इसलिए इस संक्रमण के प्रवाह में, ब्रह्मांडमंडल में अनेक प्रकार की अनिष्ट शक्तियों का आगमन होता है । इन अनिष्ट शक्तियों के तीव्र आगमनात्मक संचार से रक्षण होने के लिए इस काल में निर्गुण स्तर पर प्रतिकार करनेवाले श्वेत रंग का प्रयोजन किया जाता है । यह संक्रमण अनिष्ट शक्तियों के आगमन के लिए पोषक होता है । इसलिए इस काल में आगमन के लिए सिद्ध अनिष्ट शक्तियां अप्रकट स्थिति में अधिक रहती हैं । प्रकट स्थिति की अपेक्षा अप्रकट स्थिति अधिक सूक्ष्म एवं घातक है । अतः इस सूक्ष्म एवं अबोध्य (समझ के परे) आक्रमण का सामना करने के लिए श्वेत रंग का प्रयोजन किया गया है ।
वर्षाऋतु
वर्षाऋतु में ब्रह्मांड में आपतत्त्वरूपी सगुण तरंगों की प्रवाहात्मक प्रबलता अधिक रहती है । अतः इस ऋतु में ब्रह्मांडमंडल में सगुण-निर्गुणस्तर पर कार्य करनेवाले अनेक कनिष्ठ एवं उच्च देवी-देवताओं के तत्त्वों का न्यूनाधिक स्तर पर आगमन होता रहता है । इसलिए इस काल में सगुण-निर्गुण तत्त्वों के प्रवाह हेतु पोषक पीले एवं श्वेत रंग का उपयोग अधिक होता है । विशिष्ट परिस्थिति के लिए पोषक विशेष रंग के उपयोग से विशिष्ट काल में ब्रह्मांड में संचारण अवस्था में विद्यमान विशेष देवताओं के तत्त्व ग्रहण होते हैं । परिणामस्वरूप उस विशिष्ट काल में जीव की आध्यात्मिक उन्नति वेग से होने की संभावना बढ जाती है ।
शीत ऋतु
शीतकाल में वायुमंडल में शक्तिरूपी तरंगों का संक्रमण बढता है । इस संक्रमण की प्रवृत्ति अधिक घनीभूत होने की ओर होती है । लाल रंग शक्तिरूपी तरंगों के घनीकरण की प्रक्रिया के लिए पोषक है; जबकि पीला रंग शक्ति का रूपांतर चैतन्य में कर, उच्च स्तर पर शक्ति का लाभ करवाने में अग्रणी है । इसलिए लाल रंग के साथ सदैव पीले रंग की प्रबलता पाई जाती है; क्योंकि पीले रंग की सगुणरूपी चैतन्यता, सूक्ष्म स्तर पर शक्तिरूपी कार्य को निरंतर गतिमानता एवं वेग प्रदान करती है । इसलिए अधिकांशतः लाल एवं पीले रंग का संयोजन दिखाई देता है । अतः पूजाविधि में हलदी-कुमकुम का संयोजन सदा लाभदायक होता है । इसी काल में मकरसंक्रांति आती है । मकरसंक्रांति के दिन वातावरण में रज-सत्त्व कणों की प्रबलता होती है । अतः काले रंगका कष्ट नहीं होता । तमोगुण को घनीभूत करने के लिए काला रंग पोषक होता है । तमोगुण का स्पर्श उष्ण होता है । इसलिए शीतऋतु की ठंड से देह के बाह्य रक्षण हेतु काले रंग का प्रयोग किया जाता है । काला रंग स्थूल स्तर पर कार्य करने के लिए उपयोगी प्रमाणित होता है; परंतु इस रंग से सामान्य जीव को कष्ट होने की ही आशंका अधिक होती है । इसलिए केवल ठंड से रक्षण हेतु काले रंग का उपयोग करना घातक प्रमाणित होता है ।
वसंतऋतु
वसंतऋतु में ब्रह्मांडमंडल में देवताओं की सगुण तरंगों का अधिकतम मात्रा में आगमन एवं अस्तित्व रहता है । इसलिए इन सगुण तरंगों की कार्यरतता के लिए पोषक अर्थात सगुण की प्रबलता दर्शानेवाले लाल रंग का उपयोग कर, सगुण तरंगों का अधिकतम लाभ प्राप्त किया जाता है । गहरा रंग भी सगुण स्तर पर, अल्प मात्रा में ही सही; शक्तिरूपी स्पंदनों से विशिष्ट देवता के तत्त्व आकृष्ट करने के लिए पोषक प्रमाणित होता है । इसलिए लाल रंग उपलब्ध न हो, तो अन्य गहरे रंग के वस्त्र पहने जाते हैं ।
ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदु धर्म ने ऋतु के अनुसार, अर्थात काल के स्तर पर कार्यरत सृष्टिचक्रों के नियमानुसार विशिष्ट समय विशिष्ट स्तर पर अधिकाधिक आध्यात्मिक लाभ प्रदान करने की दृष्टि से रंगों का प्रयोजन किया है ।’
२. प्रकृतिनुसार वस्त्रों का रंग
अ. आयुर्वेदानुसार प्रकृति
प्रकृति | वस्त्रका प्रकार | वस्त्रका रंग |
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१. वात | सूती अथवा रेशमी | लाल अथवा पीला |
२. पित्त | सूती | श्वेत, हरा अथवा नीला |
३. कफ | ऊनी | लाल |
आ. त्रिगुणों के अनुसार प्रकृति
व्यक्ति की रुचि-अरुचि उसकी प्रकृति के अनुरूप होती है एवं प्रकृति उसमें विद्यमान सत्त्व, रज और तम, इन त्रिगुणों पर आधारित होती है ।
प्रकृतिका प्रधान गुण | प्रकृतिका लक्षणस्वरूप गुण / दोष | मनोनीत रंग |
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१. सत्त्व | मिलनसार, नम्र, एकाग्र इत्यादि | श्वेत, पीला एवं नीला |
२. रज | साहसी, स्वाभिमानी, निरंतर कार्यरत, महत्त्वाकांक्षी इत्यादि | लाल एवं सिंदूरी |
३. तम | क्रोधी, संकीर्ण स्वभावका, लालची, आलसी इत्यादि |
धूसर, भूरा, गहरा लाल, जामुनी एवं काला |
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व्यक्ति पर जिस गुण का प्रभाव अधिक होता है, उस गुण का रंग उसे भाता है ।
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अध्यात्म में सत्त्वगुण महत्त्वपूर्ण है । जैसे-जैसे व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति होती जाती है, वैैसे-वैसे उसमें सत्त्वगुण बढते हुए रज-तम गुण घटते जाते हैं । ‘अनेक से एक में जाना’ भी अध्यात्म का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । जैसे-जैसे व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति होती है, वैसे-वैसे वह अनेक से एक में जाने लगता है, उदा. विविध देवताओं की उपासना से एक देवता की उपासनातक आना । यही नियम वस्त्रों के संदर्भ मेंं भी लागू होता है । सत्त्वगुणी व्यक्ति श्वेत अथवा तत्सम हलके रंग के वस्त्र पहनते हैं; जबकि तमोगुणी व्यक्ति सप्तरंगी एवं सप्तरंगों के मिश्रण से बने विविध रंगों के वस्त्र पहनते हैं ।
३. वस्त्रों के रंग के चयन का सर्वसाधारण आध्यात्मिक दृष्टिकोण
अ. वस्त्रोंका रंग सात्त्विक हो :‘श्वेत, पीला, नीला एवं उनकी आभायुक्त सात्त्विक रंगों के वस्त्र चुनिए ।
आ. वस्त्र भडकीले रंगों के न हों : भडकीला रंग तमोगुण का लक्षण है । भडकीले रंगों के वस्त्र धारण करनेवाला कालांतर से तमोगुणी बनता है ।
इ. वस्त्र एक ही रंग के हों : संपूर्ण परिधान मात्र किसी एक ही आध्यात्मिक रंग का हो, तो वह अधिक मात्रा में पारदर्शकताका गुण दर्शाता है । अतः वह आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक सत्त्वगुणी माना जाता है ।
ई. परिधान के रंग परस्पर पूरक हों : परिधान दो भिन्न रंगों का हो, तो दोनों रंग एक-दूसरे के लिए पूरक, अर्थात न्यूनतम २० प्रतिशततक मिलते-जुलते होने चाहिए, उदा. दो सात्त्विक रंगों का संयोजन आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक योग्य होती है । सात्त्विक रंगों के संयोजन के उदाहरण आगे दिए हैं ।
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श्वेत एवं हलका नीला
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श्वेत एवं हलका पीला
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गहरा नीला एवं हलका नीला
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गहरा पीला एवं हलका पीला
उ . वस्त्रों के दो रंग परस्पर-विरोधी न हों :
दो परस्पर-विरोधी रंगों के एकत्रित प्रयोग से अयोग्य स्पंदन निर्मित होते हैं; इसलिए वस्त्रों के दो रंग अधिक परस्पर-विरोधी नहीं होने चाहिए, उदा. पीले (सात्त्विक) एवं हरे (राजसिक) रंगोंका संयोजन न करें । हरे रंग की पीली-सी आभा ठीक है; क्योंकि उसमें पीला रंग अधिक मात्रा में होता है । इसलिए वह आभा सात्त्विक ही होती है ।
४. वार से तथा त्यौहार, उत्सव एवं व्रतों से संबंधित देवता के तत्त्व के
अनुरूप रंग के वस्त्र धारण करने से उस देवता के तत्त्व का अधिक लाभ होना
सप्ताह के सात वार, एक-एक देवता की उपासना के दिन हैं । प्रत्येक दिन वातावरण में उस दिन से संबंधित देवता का तत्त्व अधिक मात्रा में कार्यरत होता है । यही त्यौहार, उत्सव एवं व्रतों के विषय में भी लागू है । इन दिनों पर उनसे संंबंधित देवताका तत्त्व अधिक मात्रा में कार्यरत रहता है । उस देवता के तत्त्व से संबंधित रंग के वस्त्र धारण करना, उस तत्त्वको अधिक मात्रा में आकृष्ट करने में सहायक होता है । स्वाभाविक ही ऐसे वस्त्र धारण करनेवाले को उस देवतातत्त्व का लाभ अधिक मात्रा में होता है ।
अ. वार से संबंधित देवता एवं उनके लिए पूरक वस्त्रों का रंग
दिन | देवता | वस्त्रोंका रंग | रंग किसका दर्शक ? |
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१. सोमवार | शंकर | श्वेत | वैराग्य |
२. मंगलवार | अ. श्री लक्ष्मी आ. श्री गणपति |
पीला सिंदूरी |
चैतन्य ज्ञान |
३. बुधवार | पांडुरंग | नीला | भक्ति |
४. गुरुवार | दत्त | हलका कत्थई | विरक्ति |
५. शुक्रवार | पार्वती / श्री लक्ष्मी | पीला-सा तांबिया | बलवर्धक तेज |
६. शनिवार | हनुमान | तांबिया | गतिमानता |
७. रविवार | रवि (सूर्य) | लाल | शक्ति |
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का सात्विक ग्रंथ ‘आध्यात्मिक दृष्टि से कपडे कैसे हों ?’