अ. सामान्य नियम
- आहारार्थं कर्म कुर्यात् अनिंद्यम् ।
अर्थ : उदर निर्वाह हेतु अच्छे कर्म से ही धन प्राप्त करें । - अन्न का सदैव पूजन करें । नित्य पूजित अन्न बल तथा वीर्य प्रदान करता है ।
- अन्न देखकर र्हिषत हों, प्रसन्न हों और उसकी सर्वशः प्रशंसा करें ।
- बीच-बीच में न खाएं ।
- भूख लगने पर ही खाएं ।
- स्वच्छ स्थान पर और प्रेमपूर्वक दिया हुआ खाएं ।
- आहार प्रकृतिनुसार (कफ, वात, पित्त के अनुसार) हो ।
- मन की वासना के लिए जो मनुष्य खाता है, उसकी सूक्ष्म देह का पोषण होता है । वासना हेतु खाने से रोग हो सकते हैं ।
- जो देह की आवश्यकतानुसार पर्याप्त मात्रा में खाता है, उसे रोग नहीं होते ।
- जो देह की आवश्यकतानुसार ही खाता है, उसे साधना कहते हैं ।
- उष्णं स्निग्धं मात्रावत् जीर्णे वीर्याविरुद्धम् इष्टे देशे इष्टसर्वोपकरणं नातिद्रुतं नातिविलम्बितम् अजल्पन् अहसन् तन्मना भुञ्जीत आत्मानम् अभिसमीक्ष्य सम्यक् ।
– चरकसंहिता, विमानस्थान, अध्याय १, सूत्र २४
अर्थ : भोजन सदैव उष्ण, स्निग्ध एवं उचित मात्रा में हो । भोजन में अनुचित संयोग (उदा. दूध एवं फल एकत्र) न हो । भोजन के लिए अच्छे स्थान पर बैठें । उस के लिए आवश्यक बर्तन (उदा. थाली इत्यादि) स्वच्छ हों । भोजन करते समय स्वयं की प्रकृति का भली-भांति विचार कर एकाग्र चित्त से भोजन करें । शीघ्रता से अथवा अत्यधिक धीमे-धीमे भोजन न करें । भोजन करते समय गपशप एवं हंसना टालें । - नोच्छिष्टं कस्यचिद्दद्यात् नाद्यादेतत्तथान्तरा । न चैवात्यशनं कुर्यात् न चोच्छिष्टं क्वचिद् व्रजेत् ।।
– मनुस्मृति, अध्याय २, श्लोक ५६
अर्थ : जूठा अन्न किसी को न दें । सवेरे-संध्या समय, भोजन के ये स्वाभाविक समय छोडकर अन्य समय कुछ न खाएं । अधिक मात्रा में न खाएं । साथ ही जूठे हाथ-मुंह से यहां-वहां न घूमें । - स्नानगृह में कुछ सेवन न करें; क्योंकि वहां की अनिष्ट शक्तियां अन्न के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर सकती हैं ।
- जो व्यक्ति जिस पद्धति की साधना करता है, उस पद्धति का आहार उसके लिए आवश्यक रहता है ।
आ. ताजे बने खाद्यपदार्थों का सेवन करें
नीचे दी सारणी में ताजा अन्न सेवन करने के लाभ तथा पहले से बनाए गए खाद्य पदार्थ के सेवन से होने वाली हानियां दी हैं । इनका अध्ययन करने पर हम अपने अनुचित स्वभाव में (आदत में) परिवर्तन कर सकते हैं । अधिकाधिक ताजा अन्न खाने का स्वभाव बनाने पर स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा ।
ताज़ा बनाए हुए खाद्य पदार्थ | लड्डू, चिड़वा इत्यादि पहले ही बनाकर रखे हुए खाद्य पदार्थ | |
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१. पोशकता एवं पूरकता | अधिक | अल्प (न्यून) |
२. अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण का भय | पदार्थ तुरंत बनाकर अल्पावधि में खाने से इस पदार्थ का बाह्य वायु मंडल से अल्प संपर्क होना, परिणाम स्वरुप इस प्रक्रिया में अनिष्ट शक्तियों का हस्तक्षेप अल्प होना | पहले ही बनाकर रखने से वायुमण्डल में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों की कष्टदायक तरंगें उस विशिष्ट खाद्यपदार्थ में अधिक मात्रा में घनीभूत होना |
३. खाद्य पदार्थ पर वायु मंडल का प्रभाव | वायुमण्डल से अल्प संपर्क के कारण खाद्यपदार्थ के निर्जन्तुक रहते ग्रहण करने से उसका अधिक लाभ होना; परन्तु कुछ दिनों का बासा पदार्थ खाना स्वास्थ्य के लिए आध्यात्मिक दृष्टी से भी घातक होना | पहले ही पदार्थ बनाकर रखने से वह बासी होने के कारण उससे प्रक्षेपित सूक्ष्म दुर्गन्धयुक्त तरंगों की ओर वातावरण में विद्यमान अनिष्ट शक्तियां तथा वासनाओं से घिरी अतृप्त आत्मायें आकृष्ट होने से इस प्रकार के अन्न का शरीर एवं मन पर भी विपरीत परिणाम होना |
४. खाद्य पदार्थ की प्रकृति | ये पदार्थ अधिकतर रजोगुणी होने के कारण कष्टदायक स्पन्दनों का आवरण आने की मात्रा अल्प होना | पहले ही बनाकर रखे खाद्य पदार्थों में तामसिक घटकों की मात्रा अधिक होने से अनिष्ट शक्तियों का उन पदार्थों पर तुरंत आवरण आना |
५. खाद्य पदार्थ का प्रकृति रचना में कार्य | ताज़ा पदार्थ बनाने से उससे प्रक्षेपित सुक्ष्म स्वस्थ्य कारक अर्थात न्यूनतम जंतु संसर्ग तरंगों का देह की कोशिकाओं को बल देने हेतु उपयोग होना | पहले ही बनाकर रखे खाद्य पदार्थों में जंतु संसर्ग होकर उसके सूक्ष्म स्वास्थ्य दाई निःसत्त्व अन्नसेवन का स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम होना |
६. खाद्य पदार्थ सेवन से स्वास्थ्य पर परिणाम | देह में रजोगुणी एवं स्वास्थ्य कारक तरंगों के विचरण के कारण चेतना शक्ति को बल प्राप्त होकर कृत्य की गति और प्रतिकारक शक्ति भी बढ़ना | इस प्रकार का आवरण युक्त पदार्थ खाने से उसके तमोगुणी कष्टदायक स्पन्दनों के प्रभाव में स्थूलदेह अशुद्ध होना, तथा देह में अनिष्ट शक्ति का स्थान बनने के कारण अनिष्ट शक्तियों की पीड़ा आमंत्रित होना |
ऋतुओं के अनुसार आहार के नियम
प्रत्येक ऋतु के अनुसार वातावरण में परिवर्तन होता है । इस परिवर्तन से समरस होने के लिए मनुष्य को आहार में भी परिवर्तन करना आवश्यक होता है । पृथ्वी पर सामान्यतः ग्रीष्म और शीत ये दो ही ऋतुएं हैं । हिंदुस्थान में वर्षा, शीत और ग्रीष्म ऐसी तीन मुख्य ऋतुएं हैं । इन में से प्रत्येक का पुनः दो ऋतुओं में विभाजन होता है । प्रत्येक ऋतु में २ मास होते हैं । ६ ऋतुएं मिलकर एक वर्ष बनता है ।
अ. वसंत ऋतु का आहार
इस ऋतु में भारी, अधिक तेल-घी युक्त, खट्टे और मीठे पदार्थों का सेवन बंद कर खीलें, भुने हुए चने, जौ, मूंग, मेथी, करेले, मूली, सहिजन, सूरन (जिमीकंद), ताजी हलदी, अदरक, काली मिर्च और सोंठ आदि पचने में हलके, सूखे, कडवे, कसैले और तीखे पदार्थ का सेवन करें ।
स्वास्थ्य-वर्धन हेतु ‘नमक रहित व्रत’ के पालन का महत्त्व : चैत्र मास में १५ दिन ‘नमक रहित व्रत का’ पालन करना (नमक न खाना) अत्यंत स्वास्थ्यवर्धक है । इससे रक्त शुद्ध होता है तथा हृदय, यकृत, मूत्र पिंड व त्वचा के रोगों से रक्षा होती है । इस व्रत का प्रतिवर्ष पालन करने वाले व्यक्तियों का स्वास्थ्य अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक उत्तम रहता है, यह ज्ञात हुआ है ।
वसंत ऋतु में किए जाने वाले कुछ लाभदायक कृत्य
- प्रतिदिन सवेरे २ ग्राम हर्रे का चूर्ण मधु में मिला कर लें ।
- प्रतिदिन सवेरे नीम के १५ कोमल पत्ते २ काली मिर्च के साथ चबा कर खाएं ।
- ७ से १५ दिन सवेरे नीम के फूलों का १५ से २० मि.ली. रस खाली पेट लें । इससे त्वचाविकार और मलेरिया से रक्षा होती है ।
आ. ग्रीष्म ऋतु में आहार
इस ऋतु में पाचन शक्ति मंद होती है । इस काल में दूध, मक्खन, घी आदि स्निग्ध पदार्थ खाएं । इलायची, सूखा धनिया, जीरा आदि के प्रयोग से बने पदार्थ तथा मधुर एवं खट्टे रसात्मक, उदा. आंवला, अनार आदि फल खाएं । अत्यधिक ठंडे और अत्यधिक उष्ण पदार्थ न खाएं ।
इ. वर्षा ऋतु में आहार
वर्षाऋतु वातप्रकोप और पित्तसंचय का काल है । इस काल में भोजन में सर्व रसों का सेवन करें तथा उष्ण पदार्थ खाएं । अत्यधिकतैलीय अथवा रूखे पदार्थ न खाएं । द्रव पदार्थ अल्प मात्रा में हो । इस काल में बीच-बीच में उपवास करना लाभदायक होता है ।
ई. शरद ऋतु में आहार
यह वात का संचय काल और पित्त का प्रकोप काल है । इसमें मधुर, कडवा और कसैला रसात्मक आहार लें । घी पित्तशामक है, इसलिए उसका प्रयोग करें; परंतु तैलीय और चरबीयुक्त पदार्थों से बचें ।
उ. हेमंत ऋतु में आहार
हेमंत ऋतु शीत ऋतु की आरंभिक ऋतु है । इस काल में पाचनशक्ति उत्तम रहती है । इस काल में स्नेह युक्त पदार्थ खाएं, परंतु अत्यधिक ठंडे और रूखे पदार्थों का सेवन न करें ।
ऊ. शिशिर ऋतु में आहार
इस काल में पाचनशक्ति उत्तम होती है । मधुर, खट्टा और नमकीन रसात्मक आहार लें । तीखे, कडवे और कसैले रसात्मक पदार्थों से बचें । तेल और घी खाने पर प्रतिबंध नहीं है ।
संध्या काल में दूध पीने, प्रातः जल पीने एवं भोजन के अंत में छाछ पीने का महत्त्व
दिनान्ते च पिबेद्दुग्धं निशान्ते च पिबेत्पयः ।
भोजनान्ते पिबेत्तक्रं किं वैद्यस्य प्रयोजनम् ।। – सुभाषित
अर्थ : संध्याकाल में (अर्थात सोने से पूर्व) दूध पीएं और प्रातः (जागने के उपरांत मुख प्रक्षालन कर) जल पीएं अर्थात उषःपान करें । भोजन के अंत में छाछ पीएं; (तब) वैद्य का क्या काम ?
अ. संध्याकाल में (अर्थात सोने से पूर्व) दूध पीना
संध्या के समय वायुमंडल में रज-तमात्मक तरंगों के प्रवाह के माध्यम से अनेक अनिष्ट शक्तियों का आगमन होता है । रात्रि काल पूर्णतः अनिष्ट शक्तियों के रज-तमात्मक कार्य पर आधारित होता है । अतः इस काल में सगुण तत्त्वरूपी चैतन्य के स्रोत ‘दूध’ के सेवन से इन प्राबल्यदर्शक रज-तमात्मक अनिष्ट शक्तियों के प्रभाव से जीव की रक्षा हो सकती है; इसलिए इस काल में दूध प्राशन करने के लिए कहा गया है ।
आ. प्रातः (उठने के उपरांत मुंह धोकर) जल पीना
प्रातः (उठने के उपरांत मुंह धोकर) जल पीएं; क्योंकि जल जिस प्रकार पुण्यकारक है, उसी प्रकार वह पापहारक भी है । रात्रिकाल में रज-तमात्मक वायुमंडल में देह पर होने वाले अनिष्ट शक्तियों के सूक्ष्म आक्रमणों के कारण देह तथा मुख की रिक्ति इन तरंगों से युक्त बनी होती है । रात भर देह में घनीभूत हुई इन रज-तमयुक्त पाप तरंगों का शमन होने हेतु सर्वसमावेशक निर्गुणजन्यरूपी जल का प्रयोग किया जाता है । जल पीने से देह रज-तमात्मक तरंगों के संक्रमण से मुक्त होता है । इसलिए रात भर के पापयुक्त रज-तम का निर्दलन करने हेतु प्रातः जल पीने के लिए कहा गया है । प्रातः जल पी कर देह की शुद्धि करने के उपरांत ब्राह्ममुहूर्त पर साधना के लिए बैठने से, साधना की सात्त्विकता देह के रज-तम के उच्चाटन हेतु व्यय (खर्च) नहीं होती ।
इ. भोजन के अंत में छाछ पीना
छाछ रजोगुणी तरंगों से युक्त है । इसलिए कृति दर्शक गतिविधियों को वेग देता है । छाछ में विद्यमान रजोगुण अन्न पाचन प्रक्रिया को गति प्रदान कर उसी समय उससे निर्मित ऊर्जा देह को कार्य करने हेतु प्रदान करता है अथवा आवश्यकता के अनुरूप विशिष्ट स्थान पर घनीभूत करता है । रजोगुण से कार्यवृद्धि साध्य होती है, इसलिए अन्नपाचन प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा कर कृति में विद्यमान कार्य को रजोगुणी बल प्रदान कर दिन भर के कार्य का उत्साह बनाए रखने के लिए छाछ को भोजन के उपरांत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘आहारके नियम एवं उनका अध्यात्मशास्त्रीय आधार’