संपूर्ण मानवजाति शरीर की शक्ति एवं पोषण के लिए अन्न पर निर्भर है । अन्न जीवन का महत्त्वपूर्ण आयाम है । व्यक्ति का संपूर्ण जीवन ही स्वस्थ एवं सुखमय हो, इस हेतु धर्म शास्त्र ने आहार के संदर्भ में कुछ नियम बताए हैं जैसे बिना भूख लगे कुछ न खाएं, भोजन का नियत समय छोड कर अन्य समय कुछ न खाएं, झूठा न खाएं, ऋतु अनुसार आहार में उचित परिवर्तन करें, अधर्मी का अन्न न खाएं, खाने से पूर्व प्रार्थना करें इत्यादि । आइए इस लेख द्वारा यह विषय और भलीभाँति समझ लेते हैँ ।
१. आहार
अ. व्याख्या
जिस अन्न से मनोमय तथा प्राणमय कोष का अंशतः पोषण होता है, उसे ‘आहार’ कहते हैं ।’ ‘आचारत्व (आचारों का पालन कर), आचारत्वम् (आचार का पालन करने हेतु) एवं आचारकृतम् (आचारानुसार कृत्य से ही) जिसकी उत्पत्ति (पकाना), स्थिति (लाभकारी) एवं लय (भक्षण, भोजन) होता है, उस भोग को (वासना शांत करने वाले पदार्थों को) ‘आहार’ कहें ।
अपवित्रता, अशुद्धि, अधर्मिता को जो हराता है (अर्थात देह में उन की उत्पत्ति होने पर, उन का नाश करता है ।) तथा जो आकर्षण एवं आरोग्य से संपन्न है, उसे ‘आहार’ कहें ।
आ. जीवात्मा का आहार
‘जीवात्मा का खरे अर्थ से पोषण भगवत्भाव से होता है; इसलिए जीवात्मा का आहार (अन्न) ‘भक्ति’ है ।
इ. जीव चैतन्य से तृप्त होने लगे, तो उसे बाह्यतः तृप्ति की आवश्यकता का अनुभव न होना
जैसे-जैसे वासनाएं क्षीण होने लगती हैं, वैसे-वैसे पोषण की आवश्यकता न्यून होती जाती है, अर्थात वह जीव वास्तविक अर्थों में चैतन्य से तृप्त होता है । इस कारण, उस जीव को बाह्य विषयों से तृप्ति की आवश्यकता नहीं रह जाती ।’
२. आहार का महत्त्व
अ. यदि ईश्वर ने शरीर का निर्माण किया है तो उसे आहार की
(अन्न की) आवश्यकता क्यों होती है ? शरीर स्वयं ऊर्जा पर कार्य क्यों नहीं करता ?
सत्ययुग में मनुष्य सहस्रों वर्षों तक अन्न-जल के बिना रह रहा था । उस समय उसका शरीर स्वयं चेतना से कार्य करता था । युगानुसार माया का कार्य बढता गया, अर्थात रज-तम का कार्य बढता गया । साधना के कारण चित्त अकार्यरत था । साधना न्यून होने से वह कार्यरत होने लगा । तत्पश्चात, चित्त में विषय-वासनाओं का कार्य बढने से संतुष्टि की अनुभूति अल्प होने लगी । तब संतुष्टि के लिए इच्छा की निर्मिति हुई । इस कारण शरीर को आहार की आवश्यकता अनुभव होने लगी ।
आ. अन्न शरीर के पोषण का कार्य करता है, अर्थात ब्रह्म का कार्य करता है । इसलिए इसे ‘पूर्णब्रह्म’ संज्ञा दी जाना
ब्रह्म, अर्थात ‘मैं’ । जीव में विद्यमान इच्छा तरंगें वासना की जननी हैं । वासना, संतुष्टि का कारक है । यह प्रक्रिया शरीर का, अर्थात पंचप्राणादि भगवत् स्वरूप का एक अंग है । इस अंग का पोषण करना ही इसे तृप्त करना है । यह तृप्ति ही पुन: अन्न का कारण बनती है । अन्न पोषण का, अर्थात ब्रह्म का कार्य करता है; इसलिए इसे ‘पूर्णब्रह्म’ कहते हैं ।
इ. अन्न वासना पूर्ति करने वाला घटक है, ऐसे में अन्न के सेवन को ‘यज्ञकर्म’ क्यों कहा गया है ?
एक ज्ञानी : ‘संतुष्टि जीव के लिए कारक है । शरीर का बाह्य-पोषण अन्न से होता है । अग्निदेव को आहुति देकर हम अग्नि के ऋण से कृतज्ञता पूर्वक मुक्त होते हैं, तब अग्नि की तृप्ति होती है, अर्थात वह शांत तथा कल्याणकारी होती है । उसी प्रकार, अन्न सद्भाव सहित ग्रहण करने से जीव की तृप्ति होती है । उस समय यह तृप्ति शरीर, अर्थात शरीररूपी ब्रह्म को शांत करती है । इसलिए महान हिंदू संस्कृति में ऋषियों ने इस पवित्र कर्म को ‘यज्ञकर्म’ कहा है ।
अन्न ग्रहण करने संबंधी ‘यज्ञकर्म’ के तीन चरण
अ. स्मरण : भगवत्चिंतन
आ. भरण : ग्रहण करना
इ. हवन : इस क्रिया से कार्यकारी ऊर्जा की निर्मिति होती है ।
उक्त संपूर्ण क्रिया यज्ञांतर्गत घटित होती है; इसलिए अन्न सेवन की क्रिया को ‘यज्ञकर्म’ कहा गया है ।
ई. जिह्वा द्वारा छः रसों का अनुभव करने पर शरीर का उत्तम ढंग से पोषण होना
परमेश्वर प्रकृति के निर्माता हैं । उनके द्वारा छः रसों का निर्माण किया गया है – खट्टा, मीठा, तीखा, खारा, कसैला तथा कडवा । इन रसों का अनुभव करने पर शरीर का उत्तम प्रकार से पोषण होता है । जिह्वा को स्वाद की संवेदना प्राप्त होने के कारण यह अनुभव होता है ।
उ . त्रिगुणानुसार अन्न-सेवन का उद्देश्य
१. ‘सत्त्व : शरीर धर्म के रूप में अन्न-सेवन का कर्म करना
२. रज : अन्न-सेवन से सुख प्राप्त करना
३. तम : मात्र खाने को ही जीवन मानना अथवा द्वेषमूलक, आसुरी भाव जागृत रखने के लिए अन्न का सेवन करना
संत त्रिगुणातीत होने के कारण मात्र परेच्छा तथा ईश्वरेच्छा मानकर अन्न का सेवन करते हैं । देह है तब तक त्रिगुण संपूर्णतः नष्ट नहीं होते; परंतु सर्वसामान्यों की तुलना में संतों में विद्यमान त्रिगुणों का परिमाण लगभग नगण्य ही होता है । इसलिए यहां कहा गया है कि ‘संत त्रिगुणातीत होते हैं ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘आहारके नियम एवं उनका अध्यात्मशास्त्रीय आधार’