१. स्वास्थ्यजनक शीतकाल
शीतकाल में ठंड के कारण त्वचापर विद्यमान छेदों के बंद होने से शरीर में विद्यमान अग्नि अंदर ही बंद रहकर जठराग्नि प्रदीप्त होता है । शरीर की रोगप्रतिकारक क्षमता तथा बल अग्निपर निर्भर होने से वो भी इस ऋतु में अच्छे होते हैं; इसलिए; शीतकाल के लगभग ४ मासों में प्राकृतिकरूप से ही स्वास्थ्य अच्छा रहता है ।
२. ऋतु के अनुरूप आहार
२ अ. शीतकाल में क्या खाएं तथा क्या न खाएं ?
इस ऋतु में जठराग्नि अच्छा होने से किसी भी प्रकार के अन्न का सरलता से पाचन होता है । उसके कारण इस ऋतु में खाने-पीने में बहुत बडा बंधन नहीं होता । आयुर्वेद में ऐसा कहा गया है कि इस अवधि में रातें बडी होने से सुबह उठते ही भूख लगती है; इसलिए सुबह उठकर प्रातःर्विधि समेटने के पश्चात पेटभर खाएं । शीतकाल में सूखापन बढता है; इसलिए आहार में स्निग्ध (तेलिया) पदार्थ, उदा. तीळ, मूंगफली, खोपरे जैसे पदार्थ प्रचुर मात्रा में हों । इसीलिए इन दिनों में तीलगुड बांटने की परंपरा है । इस ऋतु में पौष्टिक पदार्थ का सेवन कर स्वास्थ्य को सुधार लें । बीच-बीच में खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक होता है; इसलिए दिन में निर्धारित २ समयों में पेटभर खाएं, जिससे की अन्य समय में भूख नहीं लगती । पाचन अच्छा होने के लिए भोजन के पश्चात पान खाएं, तथा तुरंत पाचन होकर पुनः भूख लगेगी, ऐसे मुरमुरे, कुरकुरे जैसे पदार्थ टालें ।
२ आ. पानी
इन दिनों में स्वच्छ तथ प्राकृतिक स्थानोंपर, उदा. कुआं, झरना आदि में मिलनेवाला पानी प्राकृतिक रूप से ही दोषरहित होता है; इसलिए ऐसा पानी छानकर पीने से कुछ हानि नहीं होती । जिन्हें ठंडा पानी पच नहीं पाता, उन्हीं के लिए ही गर्म पानी पीने की आवश्यकता होती है । शहरों का पानी प्रदूषण के कारण दूषित होने की संभावना होने से उसे छानकर और उबलकर पीना उचित है ।
२ इ. कूलर का ठंड पानी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
किसी भी ऋतु में फ्रीज अथवा कूलर का ठंडा पानी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है । ऐसा पानी पीने से पाचनशक्ति धीमी पड जाते हैं, साथ ही सरदी, खांसी, जोडों का दर्द, आलस्य जैसे विकार उत्पन्न होते हैं ।
३. शीतकालीन अन्य आचार
३ अ. ब्राह्ममुहूर्तपर उठना
इन दिनों में चाहे ठंड के कारण कुछ और समयतक सोने की इच्छा होती हो; परंतु नियमितरूप से ब्राह्ममुहूर्तपर अर्थात सूर्योदय के डेढ घंटा पहले उठें । नियमितरूप से ब्राह्ममुहूर्तपर उठने की एक कृती भी सभी रोगों से दूर रखनेवाली है ।
३ आ. औषधीय धुम्रपान करना
सुबह दांत मांजने के पश्चात औषधिय धुआं लें । ऐसा करने से सरदी, खांसी जैसे कफज विकारोंपर रोक लगती है । कागद की लच्छी बनाकर उसमें अजवाईन का चूर्ण डालकर उसकी बीडी बनाएं तथा उसे एक ओर से जलाकर दूसरी ओर से ३ कश लें । धुआंयुक्त सांस को नाक से न छोडकर मुंह से ही छोडे । अजीवाईन के स्थानपर तुलसी के पत्तों का भी उपयोग किया जा सकता है ।
३ इ. स्नान से पहले शरीर को नियमितरूप से तेल लगाना
इस ऋतु में स्नान से पहले नियमितरूप से शरीर को नारियल का तेल, बिनौले का तेल, तील का तेल, मूंगफली का तेल, सरसों का तेल इनमें से कोई भी तेल लगाएं । इससे ठंड के कारण त्वचा सूखकर खुजली होना, होंठ तथा पैरोंपर झुर्रियां आना जैसे विकार नहीं होते । नारियल तेल ठंडा, तो सरसों का तेल गर्म होता है । ऐसा होते हुए भी ठंड में नारियल तेल लगाने से कोई हानी नहीं होती । जिन्हें गर्मी का कष्ट है, उनके लिए नारियल तेल बहुत लाभदायक है । पेट्रोलियम जेली, कोल्ड क्रीम जैसे मंहगे और तात्कालीन प्रसाधनों के उपयोग की अपेक्षा उनसे भी कई सस्ते तथा प्राकृतिक तेलों का उपयोग करना त्वचा के स्वास्थ्य के लिए अधिक उपयुक्त है ।
३ ई. व्यायाम
शीतकाल में प्रचुर मात्रा में व्यायाम तथा परिश्रम करें । सुबह शरीर को तेल लगाकर व्यायाम करना तथा उसके आधे घंटे पश्चात स्नान करना आदर्श होता है; परंतु यदि यह असंभव हो, तो अपनी सुविधा के अनुसार समय में परिवर्तन करने में कोई आपत्ति नहीं है । केवल व्यायाम के पश्चात आधे घंटेतक स्नान न करें ।
३ उ. स्नान
इस ऋतु में गर्म पानी से स्नान करें; परंतु जिन्हें सदैव ही ठंडे पानी से स्नान करने की आदत है, ऐसे लोगों को ठंडे पानी से स्नान करने से कोई हानि नहीं होती ।
३ ऊ. कपडे
ठंड से रक्षा हेतु गर्म कपडे पहनें ।
४. शीतकालीन सर्वसामान्य विकारों के लिए सरल आयुर्वेदीय उपचार
४ अ. सरदी, खांसी तथा बुखार
मूट्ठीभर तुलसी के पत्ते २ गिलास पानी में डालकर उससे १ गिलास पानी शेष रहनेतक उबालें । विकार दूर होनेतक उसमें का आधा काढा सुबह तथा आधा सायंकाल में लें ।
४ आ. जोडों का दर्द
हरसिंगार के पत्ते तथा फुलों का उपर्युक्त पद्धति से काढा बनाकर उसे सुबह-सायंकाल में लें । दुख रहे जोडों को किसी भी तेल से रगडें । आहार में तेल और घी की मात्रा बढाएं ।
४ इ. बवासीर
प्रतिदिन सुबह खाली पेट १ चम्मच हड के चूर्ण में १ चुटकीभर पिप्पली का चूर्ण मिलाएं । इस प्रयोग को मार्च मास के अंततक नियमितरूप से करने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है ।
५. इसे ध्यानपूर्वक टालें !
इस ऋतु में दव में अथवा चांदनीरात में घूमना, पानी के तुषार शरीरपर लेना, निरंतर पंखे की हवा लेना, दिन में सोना जैसी बातों से दूर रहें । इसके कारण शरीर में कफ बढकर विकार उत्पन्न होता है ।
शीतकालीन ऋतुचर्या का पालन कर साधक स्वस्थ हों तथा सभी में आयुर्वेद के प्रति श्रद्धा बढे, यह भगवान धन्वंतरी के चरणों में प्रार्थना !
– वैद्य मेघराज पराडकर, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा (२१.१.२०१५)
६. सिरदर्द बननेवाले सरदी के कारण तथा उपचार !
सरदी का मूल कारण होते हैं विषाणू ! चाहे विषाणुओं के कारण सरदी लगती हो; परंतु कुल मिलाकर संपूर्ण शरीर की (नाक की अंतस्त्वचा की) की रोगप्रतिकारक शक्ति न्यून होने से सरदी लगती है ।
अतिपरिश्रम, मांसधातु तथा स्नायुओं की दुर्बलता, अपाचन, बार-बार वर्षा में भीग जाना, सदैव ठंडे पानी में भीगना, तैरना, वातानुकूलित कक्ष में सोना, ठंडेपेय, आईस्क्रिम अधिक खाना, वातावरण में अकस्मात आनेवाले बदलाव, नमी तथा धूलवाले वातावरण में काम करना आदि बातों के कारण रोगप्रतिकारक शक्ति न्यून होती है ।
सरदी के लक्षण
सरदी की २ स्थितियां होती हैं ।
१. तरल जैसी, पानी जैसी (छींके, नाक बंद हो जाना, मुंह का स्वाद चला जाना, भूख अल्प होना, नाक से पानी बहना आदि)
२. पकी हुई सरदी (नाक से गाढा कफ आता है तथा उसके पश्चात उसकी मात्रा न्यून हो जाती है, सिरदर्द न्यून होता है तथा शरीर हल्का बन जाता है ।)
सर्वसामान्य चिकित्सा
१. केशर तथा बच को पानी में रगडकर नाक के आसपास उसका लेप लगाएं तथा माथेपर भी लगाएं ।
२. सोते समय कान और सिर को ढक लें, दिन में पैरों में चप्पल पहनें ।
३. सरसों अथवा बच के चूर्ण का तवेपर गर्म कर रूमाल में उसकी पुडिया बांधकर नाक के आसपास उसका शेक लें ।
४. गर्म पानी की किटली की टोटी से बाहर आनेवाली भाप को सूंघें । बीच-बीच में निलगिरी तेल अथवा लहसून सूंघें ।
५. हल्दी के १-२ चम्मच चूर्ण को तुलसी के रस में चाटें ।
६. सोंठ, काली मिर्च, पिप्पली, तुलसी, दालचीनी तथा चायपत्ते का काढा पीएं ।
७. अधिक बुखार अथवा सीने में दर्द हो, तो त्रिभुवनकीर्ती रस अथवा आनंदभैरव रस लें ।
८. हल्का आहार लें, लंघन करें, सोंठ, काली मिर्च तथा पिप्पली डालकर सिद्ध किए गए चावल अथवा मूंग अथवा कुलीथ का सांबर अथवा मूले का रस पीएं ।
दूसरे चरण की सरदी की चिकित्सा
१. सोंठ को दूध में उबालकर पिएं ।
२. चने, जव जैसे रूक्ष पदार्थ खाएं ।
३. शठी (कर्पुरकाचरी), आमला चूर्ण, पिप्पली, पिप्पली की जड, सोंठ तथा काली मिर्च का मिश्रण घी तथा शहद के साथ लें ।
४. चित्रक हरितकी अवलेह १-१ चम्मच २ बार १ मासतक लें ।
५. आयुर्वेद के अनुसार सरदी के सामान्यरूप से ३ प्रकार होते हैं । उनमें वातज सरदी, पित्तज सरदी, कफज सरदी और सान्निपातिक सरदी । आयुर्वेद में इसके अनुसार प्रत्येक सरदी के भिन्न लक्षण तथा पहले और दूसरे चरण की चिकित्सा बताई गई है ।
६. एलर्जी अथवा साईनस के कारण आनेवाली सरदीपर उसके अनुसार उपाय करने पडते हैं; परंतु इसमें एंटिबायोटेक औषधियों का कुछ उपयोग नहीं होता । सरदी यदि अगले चरण में पहुंच गई और बुखार निरंतर आता रहा, तो उसके लिए वैद्य से परामर्श लें ।
संदर्भ : श्वसनसंस्था के विकार, लेखक : डॉ. व.बा. आठवले तथा डॉ. कमलेश व. आठवले
७. रोगों के ३ कारण
१. असात्म्येंद्रियार्थ संयोग
असात्म्य का अर्थ जो नहीं समाता, सहन नहीं होता और जिसकी आदत नहीं होती वह ! जो मानता है और सहन होता है, वह सात्म्य, जो सभी का होता है । सात्म्येंद्रियार्थ संयोग से जीवन व्यापार में सात्म्यस्थिति टिकी रहती है । आसात्म्येंद्रियार्थ संयोग से उसमें वैषम्य आ जाता है । बाह्य विश्व का ज्ञान स्पर्श से होता है अर्थात सभी इंद्रियार्थों का परिणा केवल स्पर्श से होता है, यह सूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है । स्पर्श से ज्ञान होता है । ज्ञान का परिणाम शरीर के सभी छोटे और छोटे-छोटे परमाणुओं पर भी होता है । इंद्रियार्थ ग्रहण अति होने से, विपरीत होने से, अल्प होने से अथवा कुछ भी न होने से शरीर का व्यापार अर्थात त्रिधातुओं का (वात, पित्त तथा कफ का) व्यापार और मनोव्यापार में भी वैषम्य आ जाता है । वैषम्य से रोग होते हैं । असात्म्येंद्रियार्थ संयोग का परिणाम बाहर से अंदर सीधे मनतक होता है ।
२. प्रज्ञापराध
यह अपराध मन से और मन में ही होता है; इसलिए उसका परिणाम भी मनपर ही होता है । प्रज्ञापराध का अर्थ जानबूझकर, हठ से, मानसिक भावना अथवा वृत्ति विरोधी, उल्टा-पुल्टा तथा नीतीधर्म को बाजू में रखकर कोई आचरण कर्म करना, साहस, अतिस्त्रीसंग, जैसा मन चाहेगा वैसे तथा किसी को भी कुछ भी बोलना, किसी का भी कहींपर भी अपमान करना, अभक्ष्य भक्षण, अपेयपान, अहितार्थ सेवन आदि प्रज्ञापराध हैं । वे मनोगोचर हैं । उनका परिणाम पहले मनपर होता है और उसके पश्चात शरीरपर होता है । प्रज्ञापराध से सभी दोषों का प्रकोप होता है । (वात, पित्त तथा कफ इन त्रिधातुओं की मात्रा जब समान होती है, तब संपूर्ण स्वास्थ्य होता है । उनमें यदि विकृती अथवा वैषम्य उत्पन्न हुआ, तो शरीर रोगग्रस्त हो जाता है । प्रज्ञापराध मानसिक दोष(रज एवं तम) तथा शारीरिक दोष (वात, पित्त तथा कफ) इन सभी को ही दुष्ट बनानेवाला (वैषम्य उत्पन्न करनेवाला) है ।
३. काल के स्वभाव का परिणाम
काल का अर्थ परिणाम ! वर्षा, शीत, उष्ण, भेद, नक्त, दिन, ऋतु तथा भुक्तभेद के कारण दोषों का चय, प्रकोप तथा प्रशम होते हैं । दोषों में वैषम्य उत्पन्न होता है । स्वस्थान में चय होता है । स्वस्थान से दोष उन्मार्गगामी होता है, जो प्रकोप है । दोेषों की दुष्टता न्यून होती है, वह प्रशम होता है । काल के स्वभाव का परिणाम शरीर तथा मन इन दोनोंपर एक ही समय में होता है । दोष की दृष्टि उसका निश्चित कारण है ।
परिणामः कार अण्यते ।
अर्थ : काल बीत जानेपर परिणाम परिपक्व होता है ।
गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी (घनगर्जित, जून २००६)
संदर्भ : दैनिक सनातन प्रभात