१. पूर्व-पश्चिम दिशा में सोने का कारण
अ. जीव के अंतस्थ चक्रों की यात्रा उचित दिशा में होना और शांत निद्रा लगना
सोते समय सिर पूर्व दिशा में एवं पैर पश्चिम दिशा में होने चाहिए । पूर्व दिशा से आह्नाददायक सप्त तरंगें प्रक्षेपित होती हैं । इन तरंगों के कारण जीव के शरीर में विद्यमान चक्रों का अचक्रवार स्वरूप में नहीं; अपितु चक्रवार स्वरूप में, अर्थात विपरीत दिशा में न घूमते हुए उचित दिशा में घूमना आरंभ हो जाता है । पूर्व दिशा में सिर करने से इस दिशा से प्रक्षेपित आह्लाददायक सप्त तरंगें जीव के षट्चक्रों द्वारा १० प्रतिशत अधिक मात्रा में ग्रहण होती हैं । जीव के शरीर में विद्यमान चक्रों की यात्रा उचित दिशा में होने के कारण, निद्रा द्वारा जीव में निर्मित रजकणों का उसे कष्ट नहीं होता और शांत नींद लगती है । साथ ही रुपहली डोर से संबंधित(टिप्पणी १) मन की यात्रा में विशेष बाधाएं उत्पन्न नहीं होतीं ।
टिप्पणी १ : जीव की स्थूल देह को एवं सूक्ष्म-देह को जोडनेवाली ‘रुपहली डोर’ होती है । जब तक जीव के सुख-दुःख (भोग) होते हैं तब तक जीव इस रुपहली डोर द्वारा स्थूल देह से जुडा होता है । व्यक्ति के सो जाने पर उसकी सूक्ष्म-देह स्थूल देह से निकलकर कहीं भी चली जाए, तब भी वह इस डोर से जुडी होती है और इसीलिए वह पुनः उसी देह में प्रवेश कर सकती है । ध्यान के समय भी ऐसा ही होता है । योगी ध्यान में अपनी सूक्ष्म-देह से निकलकर अपनी अपेक्षानुसार कार्य करते हैं, तब भी वह जीव ‘रुपहली डोर’के कारण ही पुनः उस स्थूल देह में प्रवेश करता है । मृत्यु होने पर यह रुपहली डोर टूट जाती है । तत्पश्चात सूक्ष्म-देह कितने भी प्रयास करे, वह पुनः उस देह में प्रवेश नहीं कर पाती ।
आ. रज-तम कणों की यात्रा
१. सामान्य जीव
मनुष्य द्वारा दिन-भर किए जाने वाले कार्य के कारण जीव में विद्यमान रजकण गतिशील रहते हैं । रजकणों की प्रबलता के कारण संपूर्ण दिन जीव की सूर्यनाडी जागृत रहती है । इसलिए जीव में रज-तम कणों की मात्रा में वृद्धि होती है । देह से इन रज-तम कणों का विघटन उचित पद्धति से हो, इस हेतु रात्रि में पैरों की उंगलियों में स्थित देह शुद्धक चक्र (प्रत्येक कृत्य करते समय स्थूल देह में निर्मित रज-तम कण जीव के शरीर से ऐसे चक्रों के माध्यम से निकलते हैं । इन चक्रों का मूल उद्देश्य है, ‘देहृकोष की निरंतर शुद्धि करते रहना’ । इसलिए उन्हें ‘देह शुद्धक चक्र’ कहते हैं ।) रात्रि रजकणों की प्रबलता के कारण ये देहशुद्धक चक्र खुलते हैं और पैराेंकी उंगलियों द्वारा रज-तम कण बाहर निकलते हैं । पश्चिम दिशा (शक्तिस्वरूपी कार्य) अस्त होने की दिशा है । इस कारण पैरों की उंगलियों द्वारा प्रक्षेपित रज-तम कण उस दिशा में उत्सर्जित होकर अस्त होते हैं । पूर्व दिशा में उत्पत्ति स्वरूपी शक्ति का प्रक्षेपण होता है । उस दिशा में पैर कर सोने से अस्त होने वाले कणों की यात्रा, उत्पत्तिस्वरूपी शक्ति प्रक्षेपित करने वाली दिशा में होती है । इस कारण पैरों की उंगलियों के पास दोनों प्रकार की शक्तियों के बीच घर्षण होता है और जो शक्ति अधिक बलवान होती है, उसकी विजय होती है । कलियुग के मनुष्य में रज-तम कणों की मात्रा अधिक होने के कारण पैरों से निकलने वाली शक्ति अधिक मात्रा में विजयी होती है । इस कारण वृद्धिंगत रज-तम कण पैरों के माध्यम से नहीं निकलते ।
२. आध्यात्मिक पीडा से मुक्त साधक
मनुष्य के शरीर में १०८ देह शुद्धक चक्र होते हैं । नामजप करने से ये सर्व चक्र जागृत होते हैं और अनावश्यक तमो-गुणी कण एवं काली शक्ति निकलती है । दिनभर नामजप करने वाले साधक को पूर्व अथवा पश्चिम दिशा में सिर कर सोने के उपरांत भी कष्ट नहीं होता ।
३. उन्नत पुरुष
उन्नत जीवों का नामजप उच्च मध्यमा अथवा पश्यंति वाणी में होता है, इस कारण उनमें काली शक्ति की निर्मिति अल्प होती है । इसलिए उन्नत जीवो को पूर्व अथवा पश्चिम में से किसी भी दिशा में पैर कर सोने से कष्ट नहीं होता ।
२. पूर्व की ओर सिर कर पूर्व-पश्चिम सोने से जीव सात्त्विक बनना
‘पूर्व-पश्चिम दिशा में सोना चाहिए । इससे सत्त्व, रज एवं तम तरंगों में समतोल रहता है । प्रातः पूर्व दिशा से सत्त्व तरंगें अधिक मात्रा में प्रक्षेपित होती हैं । ब्रह्मरंध्र द्वारा वातावरण की सत्त्व तरंगें शरीर में प्रवेश करती हैं । उन्हें ग्रहण कर जीव सात्त्विक बनता है । प्रातः जो सत्त्व तरंगें प्राप्त होती हैं, उन्हें ग्रहण कर जीव के दिन का आरंभ सत्त्व से होता है । संक्षेप में, दिन का आरंभ उत्तम प्रकार से हो, इस हेतु पूर्व-पश्चिम दिशा में सोना चाहिए ।
३. पूर्व-पश्चिम दिशा में सोने से ईश्वर की क्रिया तरंगों का लाभ होना
पूर्व-पश्चिम ही सोना चाहिए, तिरछा नहीं, इसका अध्यात्म शास्त्रीय आधार क्या है ?
१. पूर्व-पश्चिम दिशा में सोना : पूर्व-पश्चिम दिशा में सोने से उस दिशा से संलग्न एवं इन दो दिशाओं की रिक्ति में भ्रमण करने वाली ईश्वर की क्रिया तरंगों का लाभ होता है । ईश्वर की क्रिया शक्ति कार्य करने का बल प्रदान करती है । पूर्व-पश्चिम, इन कार्यमयी दिशाओं की सहायता से जीव के शरीर में सात्त्विक क्रिया तरंगों का संक्रमण होकर नाभिस्थित पंचप्राण कार्यरत होने में सहायता मिलती है । ये पंचप्राण उप-प्राणों के माध्यम से शरीर में विद्यमान त्याज्य सूक्ष्म-वायुओं को बाहर धकेलते हैं । यह जीव की प्राण-देह एवं प्राणमयकोष की शुद्धि में सहायक होता है ।
२. तिरछा सोना : इसके विपरीत तिरछा सोने से वायुमंडल में विद्यमान तिरछी रेखा में कार्यमान तमो-गुणी तिर्यक तरंगें जीव की ओर आकृष्ट होकर शरीर में संक्रमित होती हैं । इसलिए नींद में दुःस्वप्न आना, शरीर की अनावश्यक गतिविधियां होना, अस्वस्थता का अनुभव होना तथा तिर्यक तरंगों की सहायता से वायुमंडल में भ्रमण करने वाली किसी अनिष्ट शक्ति का शरीर में प्रविष्ट होना, ऐसे कष्ट होते हैं । वायुमंडल में तिर्यक तरंगोंके भ्रमण के कारण यथासंभव इस दिशा में न सोएं ।
४. आग्नेय अथवा नैऋत्य दिशामें सिर रखकर सोनेके लिए क्यों नहीं कहा जाता ?
पूर्व एवं पश्चिम दिशाओं में भ्रमण करने वाली तरंगों की दिशा ऊर्ध्वगामी होती है । इस कारण इन तरंगों के माध्यम से प्राप्त सात्त्विकता अधिक मात्रा में निर्गुणप्रवण होती है एवं आग्नेय-नैऋत्य दिशाओं की तुलना में दीर्घकाल तक बनी रहती है । साथ ही पूर्व- पश्चिम दिशाओं में भ्रमण करने वाली तरंगों में विद्यमान पंचतत्त्वों का स्तर आग्नेय-नैऋत्य दिशाओं की अपेक्षा उच्च होने के कारण इन दिशाओं की ओर सिर रखने से जीव को अधिक मात्रा में लाभ मिलता है तथा वह दीर्घकाल तक बना रहता है । इसलिए मुख्यतः पूर्व-पश्चिम दिशाओं को प्रधानता दी जाती है ।
५. दक्षिणोत्तर क्यों न सोएं ?
दक्षिणोत्तर सोने से अधोगामी तथा तिर्यक तरंगों के कार्य के कारण वातावरण में विद्यमान रज-तम कणों का संचालन बढता है । इस कारण अनिष्ट शक्तियों के कार्य को गति मिलने से जीव को अनिष्ट शक्तियों से कष्ट होने की आशंका सर्वाधिक रहती है । इसलिए यथासंभव दक्षिणोत्तर न सोएं ।
अ. दक्षिण की ओर पैर कर सोने से यमलोक एवं पाताललोक के स्पंदन एकत्रित होकर रज-तम तरंगें जीव की ओर आकर्षित होना
दक्षिण दिशा यम की, रज-तम तरंगों की एवं कष्ट की दिशा है । साथ ही जीव के शरीर में शक्ति का प्रवाह ऊपर की दिशा में ईश्वर-प्राप्ति की ओर तथा नीचे की दिशा में अर्थात पैर से पाताल की ओर जाता है । दक्षिण की ओर पैर कर सोने से यमलोक एवं पाताललोक के स्पंदन एकत्रित होते हैं और जीव रज-तम तरंगें आकर्षित करता है । इस कारण मनुष्य को नींद न आना, दुःस्वप्न आना, नींद में भय लगना अथवा घबराकर उठना आदि कष्ट होते हैं । इसलिए दक्षिण की ओर पैर कर नहीं सोते ।
६. साधना प्रारंभ करने के उपरांत विविध दिशाओं में सिर रखकर सोने से हुई अनुभूतियां
साधना आरंभ करने से पूर्व मैं किसी भी दिशा में सिर रखकर सोता था । तब मुझे किसी भी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं होता था; परंतु सनातन संस्था के मार्गदर्शनानुसार साधना आरंभ करने के चार माह पश्चात मुझे निम्नानुसार प्रतीत हुआ ।
अ. दक्षिण दिशा में सिर रखकर सोना
मैं सदा ही दक्षिण दिशा की ओर सिर रखकर सोता था । दोपहर को कुछ समय के लिए सोना, मेरा स्वभाव (आदत) है । दोपहर नींद से उठने के उपरांत मुझे शारीरिक एवं मानसिक अस्वस्थता प्रतीत होती थी । वह इतनी बढ जाती थी कि मैं एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाता था । मैं भिन्न दशाओं में बैठा रहता । मुझे स्वस्थ एवं अच्छा प्रतीत हो, इसके लिए मेरी पत्नी मेरी पीठ पर तेल मलकर धीरज बंधाती थी । यह सब ४५ मिनट से एक घंटे तक चलता था, तत्पश्चात मेरा कष्ट अपने आप न्यून हो जाता था । हमने एक देवालय के पुरोहित से इस संबंध में पूछा, तब उन्होंने बताया, ‘‘आपकी दादी की मृत्यु के उपरांत उनके लिए आपने कुछ क्रियाकर्म नहीं किया है; इसलिए आपको पूर्वज दोष के कारण इस प्रकार कष्ट हो रहा है ।’’ कष्टों के निवारण हेतु उन्होंने विशेष पूजा करने के लिए कहा । साथ ही एक विशेष दिन पर ब्राह्मण एवं ग्रामदेवता को अन्नदान एवं वस्त्रदान करने के लिए कहा । पुरोहित के कहे अनुसार मैंने सबकुछ किया; परंतु उन कष्टों का निवारण नहीं हुआ ।
आ. पूर्व अथवा पश्चिम दिशा में सिर रखकर सोना
वर्ष २००० में एक दिन दोपहर को जब मैं सोने गया, तब मुझे लगा कि मेरे बिछौने पर कुछ तो है, जो मुझे कष्ट दे रहा है ।’ इसीलिए मैंने भूमि पर सोने का निश्चय किया । मेरे पलंग के आगे अत्यल्प खुला स्थान होने से मैं केवल ‘पूर्व-पश्चिम’ अथवा ‘पश्चिम-पूर्व’दिशाओं में ही सो सकता था । इसलिए मैं पश्चिम दिशा की ओर सिर करके सो गया । तब मुझे दक्षिणोत्तर दिशा में सोने की तुलना में अधिक अच्छा अनुभव हुआ । मुझे ४५ प्रतिशत अच्छा एवं ५५ प्रतिशत कष्ट का अनुभव हुआ । तब मेरे ध्यान में आया कि ‘हम किस दिशा की ओर सिर करके सोते हैं, उससे हमारा कष्ट संबंधित हो सकता है ।’अगले दिन मैं पूर्व दिशा की ओर सिर रखकर सोया । तब मुझे प्रतीत हुआ कि मेरा कष्ट १०० प्रतिशत घट गया है । तत्पश्चात मैं पूर्व दिशा की ओर सिर कर सोने लगा । तबसे मेरा कष्ट पूर्णरूप से मिट गया ।’
– डॉ. प्रकाश घाळी, मुल्कि, कर्नाटक.
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का ग्रंथ, ‘शांत निद्रा के लिए क्या करें ?’