विश्व में, एक ही कार्य करने के अनेक प्रकार हैं । भोजन करने के उदाहरण जिस प्रकार कई लोग भूमि पर बैठकर तो कई कुर्सी पर बैठकर भोजन करते हैं, कई चम्मच का उपयोग करते हैं तो कई अपने हाथों से भोजन करते हैं । उसी प्रकार निद्रा करने के भी अनेक पद्धतियां होती हैं । मनोविज्ञानी इन भिन्न डडकर उनका अर्थ निकालते हैं। किंतु वास्तव में हमें यह ध्यान में लाना आवश्यक है कि हमारे सोने की पद्धति एवं दिशा आध्यात्मिक स्तर पर हमें किस प्रकार प्रभावित करती है । इस लेख को पढकर हम वह उत्तम पद्धति का ज्ञान लेकर, अपने जीवन में लागू कर सकते हैं।
१. बार्इं अथवा दार्इं करवट लेटना
इससे संबंधित विश्लेषण अगले पन्नोंपर दे रहे हैं । उनका अध्ययन कर अयोग्य करवट लेकर सोए हुए व्यक्ति / बालक को योग्य करवट सुलाएं ।
बार्इं करवट लेटनेके लाभ दर्शानेवाला चित्र
सूक्ष्म-चित्रकी सात्त्विकता : ४ प्रतिशत’ – प.पू. डॉ. आठवले
अ. बार्इं अथवा दार्इं करवट सोने पर क्रमशः सूर्य अथवा चंद्र नाडी कार्यरत रहने से कोशिकाओं की चेतना जागृत अवस्था में रहना तथा पाताल के संपर्क में आए देह का भूमि से होने वाले अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से रक्षा होना : निद्रा तमोगुण से संबंधित है । इसलिए यथासंभव बार्इं अथवा दार्इं करवट सोएं । इससे उस विशिष्ट स्तर पर क्रमशः सूर्य अथवा चंद्र नाडी जागृत होती है तथा कोशिकाओं की चेतना जागृत अवस्था में रहकर पाताल के संपर्क में आई देह की, भूमि से होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से रक्षा होती है ।
आ. बार्इं करवट सोने से नामजप अच्छा होता है तथा कुंडलिनी शक्ति का वहन संतुलित होता है । शरीर एवं मन की सात्त्विकता बढकर अच्छी अनुभूति होती है । इसलिए, नींद से उठने पर व्यक्ति को उत्साह लगता है ।
इ. दार्इं करवट सोने से बार्इं ओर की कुंडलिनी शक्ति सक्रिय होती है तथा चैतन्य की मात्रा घटती है । इससे व्यक्ति के शरीर के दाएं भाग की सक्रियता भी घट जाती है ।
र्इ. दार्इं करवट सोने से व्यक्ति की देह में कष्टदायी शक्ति उत्पन्न होती है । यह वातावरण की कष्टदायी शक्ति को भी अपनी ओर आकृष्ट करती है । अतः, दार्इं करवट लेटना असात्त्विक (अहितकर) है ।
२. पीठ के बल लेटना
पीठ के बल सोने से देह में स्थित कुंडलिनी शक्ति का वहन असंतुलित होता है, अर्थात कभी रुकता है, तो कभी गति बढ भी जाता है ।
अ. पीठ पर (उत्तान) लेटने से मूलाधार चक्र पर दबाव आकर शरीर में वासना से संबंधित अधोगामी प्रवाहित वायु कार्यमान होने से मांत्रिकों के लिए पाताल से बडी मात्रा में आक्रमण करना संभव होना : उत्तान मुद्रा में सोने से देह की कोशिकाओं की चेतना अप्रकट और निद्रित अवस्था में चली जाती है एवं देह अधिकाधिक मात्रा में पाताल से संलग्न रहने से देह की कोशिकाएं पाताल से आनेवाले कष्टदायी स्पंदनों को लौटाने में अयशस्वी सिद्ध होते हैं । सीधे लेटने से मूलाधार चक्र पर दबाव पडता है तथा शरीर में वासना से संबंधित अधोगामी प्रवाहित वायु कार्यमान होती हैं । फलस्वरूप मांत्रिकों के लिए पाताल से बडी मात्रा में आक्रमण करना संभव होता है । अधोगामी वायुओं के प्रवाह के कारण शरीर के उपप्राणों के प्रवाह को गति प्राप्त होती है तथा जीव की देह में काली शक्ति का प्रक्षेपण करना मांत्रिकों के लिए सहज संभव होता है । ऐसे में उनके द्वारा आक्रमणों की मात्रा बढती है ।
आ. ५५ प्रतिशत से अल्प आध्यात्मिक स्तर के जीव को पीठ के बल (सीधे) सोने से पाताल के कष्टदायी स्पंदनों से पीडा की आशंका होना : व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ५५ प्रतिशत से अल्प हो, तो व्यक्ति में भाव की अपेक्षा भावनाओं की मात्रा अधिक होती है । इन भावनाओं के उतार-चढाव के अनुसार व्यक्ति की दार्इं एवं बार्इं नाडियों में विद्यमान ऊर्जात्मक प्रवाहों का संतुलन अनियमित होता है । इस कारण पीठ के बल सोने के पश्चात संपूर्ण देह में एकसमान पद्धति से शक्तिसंचय नहीं होता । यही कारण है कि इस जीव को पाताल के कष्टदायी स्पंदनों से कष्ट की आशंका रहती है । दो नाडियों में विद्यमान प्रवाहों की अनियमितता देह में रज-तमात्मक तरंगों का संक्रमण कर सकती है । अतः यथासंभव जब तक साधना द्वारा अव्यक्त भाव के स्तर पर नाडियों में विद्यमान ऊर्जात्मक प्रवाहों के वहन को नियंत्रित नहीं कर सकते, तब तक (भूमि से संलग्नता दर्शाकर) पीठ के बल सोना हानिकारक है । ऐसे में सतर्क रहकर विविध आध्यात्मिक उपायों की सहायता से पीठ पर सोना सुखदायक हो सकता है ।
इ. पीठ पर सोने से ५५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के जीव की सुषुम्ना नाडी कार्यरत होना : पीठ पर सोने से ५५ प्रतिशत से अधिक आध्यात्मिक स्तर के जीव की सुषुम्ना नाडी कार्यरत होती है । ५५ प्रतिशत से अधिक स्तर हो, तब अव्यक्त भाव के स्तर पर देह के रज-तमात्मक वहन पर आवश्यकतानुसार उचित नियंत्रण रहता है; क्योंकि अव्यक्त भाव में आत्मिक ऊर्जा के स्तर पर कार्य करने की मात्रा बढती है । आत्मिक ऊर्जा सूर्य एवं चंद्र अथवा दोनों नाडियों के स्रोत में एकात्मकता साधकर उनमें उचित संतुलन बनाए रखती है । फलस्वरूप जीव की देह में आत्मबल वृद्धिंगत होता है । ऐसे में व्यक्ति द्वारा पीठ के बल सोने से उचित एवं समान पद्धति से षट्चक्रों पर दबाव पडता है एवं सभी चक्र जागृत होते हैं । ये जागृत चक्र सुषुम्ना नाडी के प्रवाह को जागृत कर उसका उचित नियमन करते हैं ।
र्इ. पीठके बल सोनेसे देहमें स्थित कुंडलिनी शक्तिका वहन असंतुलित होता है, अर्थात कभी रुकता है, तो कभी गति बढ भी जाता है ।’
३. पेट के बल लेटना
अ. पेट पर (औंधे) सोने से रज-तमात्मक त्याज्य वायु शरीर से निकलने के कारण अनिष्ट शक्तियों का आक्रमण हो पाना : पेट के बल सोने से पेट की रिक्तियों पर दबाव पडता है तथा उसमें विद्यमान सूक्ष्म त्याज्य वायुओं का अधो दिशा में गमन होना प्रारंभ होता है । कभी-कभी छाती की रिक्ति में अनावश्यक वायुओं का दबाव अधिक होने पर ये वायु ऊर्ध्व गमनपद्धति से नाक और मुंह द्वारा भी उत्सर्जित होती हैं । इन रज-तमात्मक त्याज्य वायुओं का देह में वहन होता है । इस प्रक्रिया के समय देह बाह्य वायुमंडल से बडी मात्रा में रज-तमात्मक तरंगें ग्रहण करने में अत्यधिक संवेदनशील बनता है । इस मुद्रा में देह के प्रत्यक्ष जडत्वधारी अवयवों की गतिविधियां मंद होती हैं तथा उसके सर्व ओर रिक्तियुक्त वायुमंडल पेट पर आए दबाव से जागृत अवस्था में आता है । इस कारण प्रकृति के अनुसार अवयवों की गतिविधियों द्वारा उत्सर्जित एवं रिक्तियों में भरी त्याज्य वायुओं की अधो अथवा ऊर्ध्वगामी दिशा में होने वाली रज-तमात्मक गतिविधियों को गति प्राप्त होती है । इस समय देह सूक्ष्म स्तर पर रज-तमात्मक वायु उत्सर्जनात्मक प्रक्रिया में संवेदनशील बनी होती है । इस काल में वायुमंडल तथा पाताल से होने वाले अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों से व्यक्ति को कष्ट होने की आशंका होती है ।
आ. पेट पर (औंधे) सोने से ऊर्ध्व दिशा से और पीठ पर (उत्तान) सोने से मांत्रिकों के लिए अधो दिशा से आक्रमण करना संभव होना : औंधे सोने से मांत्रिकों के लिए ऊर्ध्व दिशा से आक्रमण करना सहज संभव होता है एवं सीधे सोने से अधो दिशा से आक्रमण करना संभव होता है । जीव के शरीर का पिछला भाग सामने के भाग की अपेक्षा काली शक्ति ग्रहण करने के कार्य में अधिक सक्षम होता है; क्योंकि देह में त्याज्य वायुओं का संक्रमण सामने के भाग की तुलना में पिछले भाग से अधिक मात्रा में होता है । साथ ही सात्त्विक तरंगों का वहन तुलनात्मक दृष्टि से सामने के भाग में अधिक मात्रा में होता है । इसलिए मांत्रिक अधिकतर पीठ की ओर से आक्रमण करने का प्रयास करते हैं ।
इ. पेट के बल सोने से व्यक्ति के मणिपुर चक्र एवं स्वाधिष्ठान चक्र पर इच्छा के वलय निर्मित होते हैं तथा देह के षट्चक्र निष्क्रिय होते हैं । इससे देह में कष्टदायी शक्ति का वहन आरंभ होकर कुंडलिनी शक्ति का वहन असंतुलित हो जाता है ।
४. टखने एक-दूसरे पर रखकर क्यों नहीं बैठना अथवा सोना चाहिए ?
टखने एक-दूसरे पर रखकर बैठने से / सोने से शरीर के उपप्राणों में से कृकल वायु का कार्य बढता है । इस अवस्था में देह से प्रक्षेपित आप एवं तेज तत्त्वों की सूक्ष्म-तरंगोें के कारण वायुमंडल में विद्यमान यमतरंगें कार्यरत होती हैं । टखने एक-दूसरे पर रखने से ये यमतरंगें पैरों के अंगूठों से व्यक्ति की ओर खिंची जाती हैं । इन यमतरंगों के प्रभाव के कारण अथवा शरीर के सर्व ओर बने कोष के कारण व्यक्ति के कोष के कारण व्यक्ति के मनोमयकोष में स्थित रजकणों की प्रबलता बढती है । इससे नींद में व्यक्ति की मनःशक्ति स्वप्न के माध्यम से अथवा जागृत अवस्था में आभास दृश्यों के माध्यम से कार्य करती है । इसलिए इस मुद्रा में जीव को आभास होने की अथवा नींद में स्वप्न आने की मात्रा अधिक होती है ।
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का ग्रंथ, ‘शांत निद्रा के लिए क्या करें ?’