जिस प्रकार आध्यात्मिक शास्त्र अन्य कार्यों की विधि समझाता है, उसी प्रकार सोने के भी कई नियम हैं जिनका पालन करने से हमें दैविक रक्षा उपलब्ध होती है । सोने के स्थान पर यदि हम ध्यान दें तो ऐसे कई स्थान हैं जहांँ सोना वर्जित है । आईए, इस लेख के माध्यम से हम ऐसे स्थानों से परिचित हो जाएं एवं वैसे स्थानाें में सोने से बचें ।
१. पूजा घर में नहीं सोना चाहिए ।
देवता की मूर्ति के ठीक सामने नहीं सोना चाहिए ।
देवता की मूर्ति द्वारा सामने की दिशा में देवता की शक्ति अधिक मात्रा में प्रक्षेपित होती है । सामान्य व्यक्ति की सात्त्विकता अल्प होने के कारण मूर्ति के सामने सोए व्यक्ति के लिए यह शक्ति सहना कठिन हो जाता है । इस कारण उस व्यक्ति को सिर भारी होना, उष्णता में वृद्धि होना आदि कष्ट हो सकते हैं । उसी प्रकार देवता की ओर पैर कर सोने से देवता का अपमान भी होता है ।
२. निर्जन घर में नहीं सोना चाहिए ।
(निर्जन घर में कष्ट दायी स्पंदनों का विचरण होता है, इसलिए वहां सोना निषिद्ध होना)
१. निर्जन घर में मानवीय वास्तव्य न होने के कारण तथा वहां कोई धार्मिक कार्य न होने के कारण ऐसे निर्जन स्थान पर अनिष्ट शक्तियां वास करती हैं ।
२. निर्जन घर में कष्टदायी स्पंदनों का वास एवं उनका घर्षणात्मक भ्रमण गति से होने के कारण इन कष्टदायी स्पंदनों के आश्रय से अनेक अनिष्ट शक्तियां वहां वास करती हैं ।
३. ऐसे स्थान पर सोने से उन स्पंदनों के कारण व्यक्ति को कष्ट होता है तथा अनिष्ट शक्तियों द्वारा देह में प्रवेश की मात्रा बढती है । अतः कहा जाता है कि यथासंभव निर्जन घर में नहीं सोना चाहिए ।
३. देवालय में नहीं सोना चाहिए ।
(देवालय का वायुमंडल सात्त्विक होने के कारण वहां तमो-गुणी निद्रा निषिद्ध होना)
१. देवालय में अत्यंत सात्त्विकता होती है । निद्रा तमो-गुणी है, इसलिए देवालय में निद्रा दर्शक तमो-गुणी कृत्य करने से उस वायुमंडल में तमो-गुणी स्पंदन प्रक्षेपित करने का पातक लग सकता है ।
२. सात्त्विक वायुमंडल में तमो-गुणी कृत्य करने से वहां का वायुमंडल असात्त्विक बनने लगता है । इस कारण उसका समष्टि पातक लगता है । अतः देवालय में तमो-गुणी निद्रा दर्शक कृत्य निषिद्ध मानी गई है । हिंदू धर्म के अनुसार सात्त्विक वायुमंडल में सात्त्विक कृत्य ही करनी चाहिए ।
४. आग के निकट नहीं सोना चाहिए ।
१. अग्नि एवं आग में अंतर : लकडी जलाने से अग्नि उत्पन्न होती है । चूल्हा जलाने एवं यज्ञ के लिए अग्नि का उपयोग किया जाता है । रद्दी वस्तुएं, सूखी पत्तियां इत्यादि एकत्र कर जलाने से आग उत्पन्न होती है । अग्नि का प्रदीपन सात्त्विक प्राकृतिक घटकों से निर्मित होता है और कूडा कचरा अथवा तामसिक घटकों के ज्वलनजलने से आग उत्पन्न होती है ।
२. आग के निकट सोने से अनिष्ट शक्तियों की पीडा की आशंका होना : आग के निकटवर्ती भाग में तेज रूपी तमो-गुणी सूक्ष्म स्पंदनों का वायुमंडल निर्मित होता है । यह वायुमंडल अनिष्ट शक्तियों को आकर्षित करता है । इसलिए कहा जाता है, ‘इस तमो-गुणी वायुमंडल में नहीं सोना चाहिए ‘।
३. छत के धरन (छत को आधार देने के लिए लगे लकडी के लट्ठ) के नीचे नहीं सोना चाहिए : ‘छत के धरन के कारण वास्तु में संचारित रजो- गुणी तरंगें प्रतिबंधित होती हैं । फलस्वरूप उनकी गति न्यून हो जाती है । वास्तु की गतिमान तरंगें उस धरन से वेग से टकराने से धरन के सर्व ओर के वायुमंडल में अधिक उष्णता उत्पन्न होती है । धरन के नीचे सोने से अथवा खडे रहने से इन उष्ण तरंगों के फलस्वरूप जीव के शरीर में विद्यमान पंचप्राणों के कार्य की गति घटती है । इससे जीव की कार्यक्षमता न्यून होती है । इसलिए धरन के नीचे सोने अथवा खडे होने से बचना चाहिए ।
५. रात्रि में पेडों को हाथ लगाने अथवा पेड के नीचे सोने से बचना चाहिए ।
१. रात्रिकाल में पेडों पर रहनेवाले ब्रह्मराक्षस, अन्य शापित अतिमानवीय योनि अथवा अनिष्ट शक्तियां कार्यरत दशा में होती हैं । इसलिए पेडों के आसपास का वायुमंडल, इन योनियों की देह से प्रक्षेपित कष्टदायी तरंगों से युक्त होता है । ऐसे में पेडों को हाथ लगाने से कष्टदायी तरंगें हाथ के माध्यम से हमारे शरीर में संक्रमित होती हैं । उस समय कभी-कभी हाथ को बिजली का झटका लगने जैसी संवेदना होती है । ये तरंगें रजो-गुणी होने के कारण उनका हमारे शरीर पर विपरीत परिणाम होता है, जैसे घुटन-लगना, चक्कर आना, आंखों के सामने अंधेरा छा जाना तथा वातावरण में प्रकाशमान गोले दिखाई देना इत्यादि कष्ट होते हैं । ये प्रकाशमान गोले अर्थात अनिष्ट शक्तियों की देहों से वृक्षों व आसपास के वायुमंडल में प्रक्षेपित गतिमान कष्टदायी तरंगों के कणों के घर्षण से उत्पन्न प्रकाशमान ऊर्जा ।
२. रात्रिकाल में पेड कर्बद्विप्रणील वायु (कार्बन डाइऑक्साईड) वायुमंडल में छोडते हैं । यह वायु रज-तमात्मक तरंगों से युक्त होती है । इस कारण पेडों के आसपास का वातावरण अनिष्ट शक्तियों की कष्टदायी तरंगों के प्रक्षेपण के लिए युक्त होता है; इसलिए रात्रि में पेडों को हाथ लगाने अथवा पेडों के नीचे सोने से बचना चाहिए ।
६. जूठा हाथ लेकर बैठना अथवा सोना नहीं चाहिए
जूठे हाथ लेकर बैठे अथवा सोए रहने के कारण हाथ से चिपके अन्नकणों की ओर वायुमंडल से जीव की उंगलियों से शरीर में संक्रमित होने की आशंका रहती है । कभी कभी अन्नकणों के माध्यम से किसी अनिष्ट शक्ति द्वारा जीव की देह में प्रवेश करने की आशंका के कारण जूठे हाथ लेकर बैठे अथवा सोए रहना, अथवा कुछ भी कर्म करने से बचना चाहिए । हाथ धोकर शुद्धि करने के पश्चात ही अगला कर्म आरंभ करना अधिक इष्ट होता है ।
७. नए वस्त्र पहनकर नहीं सोना चाहिए
रात्रि के समय अनिष्ट शक्तियों का संचार अधिक होता है । इनमें ऐसी भी अनिष्ट शक्ति हो सकती है, जिसे अच्छी वस्तुओं के प्रति आकर्षण हो । जो व्यक्ति नए कपडे पहनकर सोता है, उसकी ओर यह अनिष्ट शक्ति आकर्षित हो सकती है अथवा ऐसा व्यक्ति उस अनिष्ट शक्ति का आकर्षण बिंदु बनता है । इसलिए नए वस्त्र पहने उस व्यक्ति को कुदृष्टि (नजर) लगने के कारण अनिष्ट शक्ति की पीडा हो सकती है ।
८. रात्रि घर में अंधेरा कर नहीं सोना चाहिए
अ. अंधःकार तमो-गुणी होता है, इसलिए वह अनिष्ट शक्तियों को प्रिय है ।
आ. अंधःकार के कष्टदायी स्पंदनों के संचार में अनिष्ट शक्तियों का भ्रमण एवं वास अधिक मात्रा में होता है । इसलिए रात्रि के तमो-गुणी काल में गहरा (तमोगुणी कृत्यस्वरूप) अंधेरा कर नहीं सोना चाहिए ।
इ पूर्वकाल में तेल का अथवा घी का दीप भगवान के पास निरंतर जलाए रखने की पद्धति थी । इस दीप से प्रक्षेपित तेजतत्त्व रूपी तरंगों के कारण रात्रि के तमो-गुणी अंधःकार में भी अनिष्ट शक्तियों से सबकी रक्षा होती थी ।
४. सोए हुए व्यक्ति को लांघकर नहीं जाना चाहिए
सोए हुए जीव की देह से सूक्ष्म स्तर पर उसकी प्रकृति के अनुसार रज-तमात्मक स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं । परिणामस्वरूप उसके सर्व ओर का वायुमंडल भी रज-तम से प्रभारित होता है । नमस्कार करते हैं, तब इस कोषश में विद्यमान रज-तमात्मक तरंगें कार्यरत होती हैं एवं हमारी उंगलियों के माध्यम से हमारे आज्ञाचक्र में प्रवेश करती हैं । इस कारण हमें अनिष्ट शक्तियों से कष्ट की आशंका होती है ।
निद्राधीन व्यक्ति अनिष्ट शक्तियों से तीव्र पीडित हो, तो कभी-कभी उस जीव में प्रविष्ट अनिष्ट शक्ति हमारी उंगलियों के माध्यम से हमारी देह में प्रवेश कर सकती है । इसलिए सोए व्यक्ति को यथासंभव नमस्कार नहीं करना चाहिए ।
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का ग्रंथ, ‘शांत निद्रा के लिए क्या करें ?’