आजकल के भाग दौड वाले जीवन में मनुष्य समय पर अनेक दिनचर्या के नियमों का पालन नहीं कर पाता, जिसका परिणाम उसे अनेक रोगों का ग्रास बनकर भुगतना पड रहा है। जिस प्रकार प्रातःकाल उठने से और रात्रि में सोने से शारीरिक एवं मानसिक शांतिसंबंधी अनेक लाभ होते हैं, उसी प्रकार, आध्यात्मिक स्तर पर भी यह है । आइए, इस लेख को पढकर हम और जानकारी प्राप्त कर अपने निजी जीवन में इसका उपयोग करें ।
१. रात्रि शीघ्र सोना उपयुक्त
सूर्यास्त से काल गतिचक्र विपरीत दिशा में गतिमान होना आरंभ होता है । इस कारण जीव के क्रियमाण कर्म के कारण प्राप्त फल की मात्रा भी अल्प होनी आरंभ होती है । रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्त होकर द्वितीय प्रहर आरंभ होने पर जीवद्वारा किए जा रहे आध्यात्मिक कर्म का फल मिलना भी घटने लगता है और तृतीय प्रहर से जीवद्वारा किए जा रहे सर्व कर्मों का फल न्यूनतम होता है । रात्रि के अंतिम प्रहर का आरंभ होने पर पुनः जीव को क्रियमाण कर्म का फल मिलना आरंभ होता है; इसलिए द्रष्टा ऋषि-मुनियों ने विश्राम के लिए रात्रि का चयन किया । इससे अधिक क्रियमाण वाले काल में साधना सहजता से करना सरल होता है ।
२. प्रातःकाल शय्या पर न लेटे रहें
प्रातःकाल लेटे रहना अर्थात सवेरे की सात्त्विक तरंगों के संक्रमण का लाभ न उठाकर एवं नामजप न कर, निद्रा के अधीन होना । यह पाप कर्म ही माना गया है ।
३. रात्रिमें सोकर प्रातः शीघ्र उठकर काम करनेके लाभ
अ. रात्रि में सोने के कारण वायुमंडल में बढे तमो-गुण के लिए पूरक कृत्य होकर गहरी नींद लगना
रात्रि के समय सूर्यदेवता का अस्तित्व न होने के कारण वायुमंडल में विद्यमान रज-तम तरंगें नष्ट नहीं होतीं; अपितु उनकी प्रबलता बढती है । इससे वायुमंडल की सात्त्विकता एवं चैतन्य की मात्रा घटती है । रात्रि के समय बढे तमो-गुण के कारण अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण बडी मात्रा में होते हैं । वायुमंडल में बढे तमो-गुण का परिणाम शरीर एवं मन पर होता है तथा रात्रि के समय साधना अथवा शुभ कर्म करने में सात्त्विक शक्ति का अधिक व्यय होता है । साधना एवं शुभ कर्मों का विरोध भी अधिक मात्रा में होने के कारण जीव को अधिक कष्ट हो सकता है । शरीर को २४ घंटों में कुछ घंटे विश्राम देना शरीर धर्म के लिए एवं आरोग्य के लिए आवश्यक होता है । रात्रि के समय सोने के कारण वायुमंडल में बढे तमो-गुण के लिए पूरक कृत्य होकर गहरी नींद लगती है । इस कारण शरीर को भी विश्राम मिलता है । रात्रिकाल में बढे हुए तमोगुण के कारण मन के कार्यरत रहने की क्षमता घट जाती है । रात्रि में सोने के कारण कोई भी कर्म न होकर मन अकार्यरत रहता है ।
आ. प्रातःकाल से सवेरे ११ बजे तक का वातावरण साधना एवं शुभ कर्म करने के लिए सर्वाधिक पोषक होना
सूर्य किरणों के माध्यम से सूर्यदेवता की सूक्ष्मतर स्तर की शक्ति एवं चैतन्य, वायुमंडल में फेंलते हैं । इस कारण प्रातःकाल से सवेरे ११ बजे तक वायुमंडल सात्त्विक एवं चैतन्य से पूरित होता है । इससे स्थूल-देह एवं मनो-देह की प्राणशक्ति में वृद्धि होती है; फलस्वरूप उनकी कार्यक्षमता में भी वृद्धि होती है । यह वातावरण साधना एवं शुभ कर्म के लिए सर्वाधिक पोषक होता है । प्रातः शरीर एवं मन सहजता से कार्यरत होकर व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक क्षमता में वृद्धि होती है । इसलिए प्रातः उठकर ईश्वर का स्मरण एवं शुभ कर्म करने से वे कृत्य उचित पद्धति से पूर्ण हो सकते हैं । इसीलिए धर्म ने ‘रात्रि सोना एवं प्रातः शीघ्र उठना’, इस प्रकार दिनचर्या का पालन करने के लिए कहा है ।
४. दिन में क्याे नहीं सोना चाहिए ?
अ. प्रातः सोकर रात्रि में साधना एवं शुभ कर्म करने से जीव को
विविध प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का सामना करना पडना
प्रातः सोकर रात्रि साधना एवं शुभ कर्म करने से उन कृत्यों का प्रभाव न्यून हो जाता है एवं व्यक्ति को अधिक ऊर्जा व्यय करनी पडती है । इस कारण कालांतर में व्यक्ति के शरीर एवं मन पर तनाव आता है और उसकी क्षमता अल्प होने लगती है । साथ ही जीव को विविध प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का सामना करना पडता है । ऐसा दीर्घकाल तक होने से व्यक्ति की आयु घट जाने की आशंका रहती है ।
आ. दिन का काल साधना के लिए अनुकूल होने के कारण यथासंभव दिन में नहीं सोना चाहिए ।
आरोहणं गवां पृष्ठे प्रेतधूमं सरित्तटम् ।
बालातपं दिवास्वापं त्यजेद्दीर्घं जिजीविषुः ।।
– स्कन्दपुराण, ब्राह्मखण्ड, धर्मारण्यमाहात्म्य, अध्याय ६, श्लोक ६६
अर्थ : जो दीर्घकाल तक जीवित रहना चाहता है, वह गाय-बैल की पीठ पर न चढे, अपने शरीर को चिता के धुएं का स्पर्श न होने दे, (सायंकाल गंगा के अतिरिक्त अन्य) नदी के तट पर न बैठे, उदयकालीन सूर्य की किरणों का स्पर्श शरीर को न होने दे तथा दिन में न सोए । (इस श्लोक से संबंधित अधिक विवरण सनातन के ‘दिनचर्या से संबंधित आचार एवं उनका अध्यात्म शास्त्रीय आधार’ ग्रंथ में दिया है ।)
१. दिन का समय साधना के लिए अनुकूल तथा रात्रि का समय साधना के लिए प्रतिकूल होना : दिन और रात्रि, ये दो मुख्य काल हैं । इन दोनों में अनिष्ट शक्तियों का संचार रात्रि की अपेक्षा दिन में अल्प होता है । इसलिए ‘दिन में अधिकाधिक साधना कर, उस साधना का रात के समय चिंतन करना तथा दिनभर में हुई त्रुटियों को दूर करने का संकल्प कर, पुनः दूसरे दिन परिपूर्ण साधना करने का प्रयास करना’, यह ईश्वर को अपेक्षित होता है । इसलिए दिन में सोने से बचें । रात्रि के समय साधना करने में अधिक मात्रा में शक्ति का व्यय होता है; क्योंकि इस काल में वातावरण में अनिष्ट शक्तियों का संचार बढता है । इसलिए यह काल साधना के लिए प्रतिकूल है । यह काल मांत्रिकों के लिए (मांत्रिक अर्थात बलवान आसुरी शक्ति) पोषक होता है; इसलिए सभी मांत्रिक इस तमो-गुणी काल में साधना करते हैं । इसके विपरीत, सात्त्विक जीव सात्त्विक काल में अर्थात दिन के समय साधना करते हैं ।
२. दिन में निद्रा आ रही हो, तो कौनसे उपाय करने चाहिए ? : ‘अगस्त २००७ में मुझे दिनभर, एवं आध्यात्मिक उपायों के समय भी निरंतर नींद आ रही थी । उस समय ईश्वर ने मुझे आगे दिए हुए उपाय सुझाए ।
अ. आंखों पर विभूति का जल लगाना
आ. ईश्वर से प्रार्थना कर पैरों के तलुए, सिर तथा आंखों पर विभूति लगाना
इ. हाथों की उंगलियों के पोर एक-दूसरे पर घिसना
ई. पैर का अंगूठा दबाना एवं अंगूठे का नख खुजलाना
उ. कान के पिछले भाग पर दबाव देकर नामजप करना
ऊ. स्वयं पर आया काली शक्ति का आवरण निकालना (टिप्पणी १) उपरोक्त पद्धति से उपाय करने पर निद्रा आने की मात्रा तुरंत न्यून होकर मेरा उत्साह बढ गया एवं मुझे कष्ट देने वाले मांत्रिक को अधिक मात्रा में कष्ट होकर वह प्रकट होने लगा ।’ – कु. महेश्वरी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.
अनिष्ट शक्तियों द्वारा काली शक्ति प्रक्षेपित किए जाने के कारण व्यक्ति के मन एवं बुद्धि के सर्व ओर कष्टदायी स्पंदनों का सूक्ष्म-आच्छादन बन जाता है । इस आच्छादन को ‘काली शक्ति का आवरण’ कहते हैं । नामजप करते हुए अपने हाथों से देह पर आया काली शक्ति का आवरण हटाना अथवा नमक के पानी में दोनों पैर १५ मिनट डुबोए रखना, ऐसे आध्यात्मिक उपायों द्वारा यह आवरण दूर करना होता है ।
५. सायंकाल के समय नहीं सोना चाहिए
‘सोना’ इस प्रक्रिया में व्यक्ति के शरीर में विद्यमान आंतररिक्तियों, तथा अन्य कोशिकाओं एवं रक्तसंचार प्रणाली की कार्यक्षमता अत्यल्प हो जाती है । ऐसे में मनुष्य की जागृतावस्था समाप्त होकर सुप्तावस्था आरंभ होती है । निद्रा की स्थिति में देह के उपप्राणों के वहन को गति प्राप्त होती है । देह की अंतःस्थ त्याज्य वायु कार्यरत होती हैैं एवं उनका अधोगामी अर्थात नीचे की ओर वहन आरंभ होता है । परिणामस्वरूप पाताल से प्रक्षेपित कष्टदायी स्पंदन जीव की स्थूल-देह की ओर आकर्षित होते हैं । सायंकाल में वायुमंडल में विद्यमान रज-तमात्मक कणों की गति दिन के अन्य प्रहरों की अपेक्षा अधिक होती है । इस गति का लाभ उठाकर अनिष्ट शक्तियां वायुमंडल में सहजता से प्रवेश करती हैं । दूषित वायुमंडल के प्रभाववश रजतमात्मक तरंगें अल्पावधि में व्यक्ति की स्थूल-देह से प्राण-देह की ओर संक्रमित होती हैं । इस कारण जीव को दु:स्वप्न आना, हडबडाकर निद्रा टूटना, शरीर में कंपन होना अथवा बिजली का झटका लगने जैसे कष्ट होते हैं, तथा व्यक्ति की देह में किसी अनिष्ट शक्ति के प्रविष्ट होने की आशंका भी रहती है । इसीलिए अन्य प्रहरों की तुलना में रज-तमात्मकता के दर्शक ‘सायंकाल’में नहीं सोना चाहिए ।
संकलनकर्ता : ‘आंतरिक रिक्तियों’से क्या तात्पर्य है ? ‘आंतरिक रिक्तियां’ अर्थात देह की प्रत्येक दो ग्रंथियों के बीच बना रिक्त स्थान । ग्रंथी अर्थात स्थूल-देह का पोषण, तथा पालन कर उस प्रत्येक स्तर पर कार्य संभालनेवाले यकृत, अग्न्याशय, हृदय जैसे अंतर्-अंगों के अंश।
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का गंथ, ‘शांत निद्रा के लिए क्या करें ?’