अलंकार हिन्दू संस्कृति की अनमोल धरोहर है । इस धरोहर को संजोए रखने हेतु कितनी ही पीढियों से साभिमान प्रयास हुए । अलंकार मात्र प्रदर्शन या सुख पाने की वस्तुएंं नहीं हैं, अपितु अलंकार पहनने से ईश्वरीय शक्ति एवं चैतन्य प्राप्त होते हैं, शरीर की काली (अनिष्ट) शक्ति घटकर अनिष्ट शक्तियों से हमारी रक्षा होती है, अलंकार पहने हुए अंगों पर ‘सूचीदाब (एक्यूप्रेशर)’ उपाय होते हैं । आइये यह समझ लेते हैं की शिशुओं को विशिष्ट अलंकार पहनाने से उन्हें क्या आध्यात्मिक लाभ होते हैं ।
१. शिशुओं को अलंकार पहनाने के कारण
शिशुओं की सूक्ष्म कर्मेंद्रियां (संस्कार अल्प होने के कारण निर्विचार) अकार्यक्षम (अल्पसक्षम) होने के कारण उन पर होने वाले सूक्ष्म आक्रमणों को रोकने तथा उनके सर्व ओर सुरक्षा-कवच की निर्मिति हेतु उन्हें बाले तथा कडे पहनाए जाना : ‘शिशु का जन्म होने पर उसकी सूक्ष्म-ज्ञानेंद्रियां अल्प मात्रा में कार्यरत रहती हैं; परंतु कर्मेंद्रियां अकार्यरत ही होती हैं । शिशु की आयु बढने के साथ ही उसकी सूक्ष्म-कर्मेंद्रियां भी जागृत होने लगती हैं । उच्च आध्यात्मिक स्तर के शिशु को बचपन से ही आध्यात्मिक वातावरण प्राप्त होता है । ऐसे में उसकी सूक्ष्म-कर्मेंद्रियां भी जागृत होने लगती हैं । अच्छे आध्यात्मिक स्तर के किसी बालक को यदि बचपन से ही आध्यात्मिक वातावरण मिले, तो उसकी सूक्ष्मकर्मेंद्रियां शीघ्र जागृत होने की संभावना रहती है । शिशुओं की कर्मेंद्रियां अकार्यक्षम होने के कारण उन पर होने वाले सूक्ष्म आक्रमण रोकने तथा उनके सर्व ओर ईश्वरीयचैतन्य के सुरक्षा-कवच की निर्मिति हेतु शिशु को बाले, कटि में सिकडी, पैरों में छडे आदि अलंकार पहनाए जाते हैं । शिशु के विकास के साथ उसकी सूक्ष्म-कर्मेंद्रियों का भी विकास होता है । ऐसे में पुरुषों को सर्व अलंकार धारण करने की आवश्यकता नहीं होती ।’
२. गले में तेजरूपी मारकत्व का प्रतीक
बघनखा पहनाने से अनिष्ट शक्तियों से शिशुओं की रक्षा
अनिष्ट शक्तियों से शिशुओं की रक्षा हेतु उनके गले में तेजरूपी मारकत्व का प्रतीक बघनखा पहनाना : बघनखा (‘बाघनख’) तेजरूपी मारकत्व का प्रतीक है । शिशुओं में संस्कारों की मात्रा अल्प होने से उनकी देह में वायुमंडल से सूक्ष्म तरंगें ग्रहण करने की क्षमता भी वयोवृद्धों की तुलना में अधिक होती है । इसके अतिरिक्त शिशु स्वयं साधना करने में असमर्थ होते हैं । शिशुओं की अतिसंवेदनशीलता के कारण उन्हें वयस्कों की अपेक्षा वायुमंडल में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों का कष्ट तुरंत होने की आशंका रहती है । अतः उनकी रक्षा के लिए उनके गले में तेजरूपी मारक तरंगों का प्रक्षेपण करने वाला बघनखा पहनाया जाता है । इससे उनके सर्व ओर तेजरूपी संरक्षक वायुमंडल निर्मित होता है, जिससे वे वातावरण में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों के संचाररूपी भय से मुक्त रह सकते हैं ।’
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का सात्त्विक ग्रंथ ‘स्त्री-पुरुषों के अलंकार’