अलंकारधारणा से अपेक्षित आध्यात्मिक लाभ होने हेतु अलंकारोें का सात्त्विक होना आवश्यक है । अलंकार का आकार एवं उसकी कलाकृति के साथ ही अलंकार धारण करनेवाला व्यक्ति सात्त्विक हो, तो अलंकार से सात्त्विकता एवं चैतन्य किसप्रकार प्रक्षेपित होता है, तथा नाक में पहनने वाले अलंकार से पहनने वाली स्त्री को किस प्रकार चैतन्य प्राप्त होता है एवंं अलंकार से प्रक्षेपित चैतन्य का क्या प्रभाव होता है, यह इस लेख में देखेंगे ।
१. नथ
आद्य शंकराचार्यजी के ‘त्रिपुरसुंदरीस्तोत्र’ में देवी से ऐसी प्रार्थना की है, ‘हे गिरिजा, मेरे द्वारा अर्पित यह नासिकाभूषण स्वीकार कीजिए’ । ऐसा कहा गया है कि नासिकाभूषण अर्थात ‘मोती’ । महाराष्ट्र में आज भी नथ मोतीजडित ही होती है ।
महत्त्व
१. साधना हेतु पूूरक :
-
‘नथ धारण करने से जीव की प्रकृति एवं प्रयत्नानुसार उसका अहंकार कुछ मात्रा में घटने में सहायता मिलती है ।
-
नथ धारण करने से जीव की अंतर्मुखता बढती है तथा वह अधिक स्व-परीक्षण करता है ।’
२. नथ के संपर्क में आकर नाक से होते हुए देह में प्रविष्ट होने वाली प्राणवायु को नथ के तेज का हल्का सा स्पर्श होने से स्त्री की देह पवित्र होना : ‘आम की गुठली समान नथ का आकार ब्रह्मांड की तेजरूपी शक्तिस्वरूप क्रिया धारणा से संबंधित होता है । नथ के संपर्क से नाक से देह में प्रविष्ट होनेवाली प्राणवायु को तेज का हल्का सा स्पर्श होने से स्त्री की देह पवित्र होती है । ऐसी शुद्धतत्त्वात्मक स्त्री तेजरूपी बलवर्धकता हेतु पोषक होती है; इसलिए नथ धारण की हुई स्त्री तेजस्वी एवं पवित्र दिखती है ।’
३. नाक के सर्व ओर चैतन्य का वलय निर्मित होना : ‘नथ में विद्यमान सात्त्विकता एवं चैतन्य के कारण नाक के सर्व ओर चैतन्य का वलय निर्मित होता है तथा नाक के सर्व ओर वायुमंडल शुद्ध होता है । इससे शुद्ध वायु श्वासमार्ग से नथ धारण की हुई स्त्री की देह में प्रवेश कर पाती है ।’
४. ईश्वरीय तरंगें बडी मात्रा में और सहजता से ग्रहण होना : ‘नथ धारण करने से स्त्रियों की चंद्रनाडी कार्यरत होती है । इसलिए वातावरण में विद्यमान चैतन्य ग्रहण करने में स्त्रियों की देह अधिक पोषक बनकर वह ईश्वरीय तरंगें बडी मात्रा में तथा सहजता से ग्रहण करती है ।’
५. अनिष्ट शक्तियों से रक्षा होना
-
‘नथ धारण करने से नाक के बिंदुओं पर दबाव पडता है तथा ‘बिंदुदाब उपाय (एक्यूप्रेशर)’ होने से वहां की काली शक्ति घटती है ।
-
नथ के कारण श्वसन मार्ग से आक्रमण करने का अवसर ढूंढ रही अनिष्ट शक्तियों से नाक एवं श्वसनमार्ग की रक्षा होती है ।’
‘जब स्त्री के तेज के लिए पोषक सूर्यनाडी कार्यरत होती है, तब नाक से होने वाली श्वासोच्छवास की वायुरूप प्रक्रिया भी गति धारण करती है । इस प्रक्रिया में अनेक तेजोमय कण उसके शरीर में प्रवेश करते हैं । इसी के साथ वे बाह्य दिशा में उत्सर्जित होते रहते हैं । नाक में धारण की हुई नथ के कारण अथवा उसके स्वर्ण की तार के कारण ये कण इस तार द्वारा ग्रहण होते हैं और तार पर बने गोलाकार भाग से बाह्य वायुमंडल में फुवारे के समान प्रक्षेपित होते हैं । इसलिए स्त्री की देह के सर्व ओर तेज का मंडल अथवा प्रभा वलय बनने में सहायता मिलती है । इस प्रभा वलय से अनिष्ट शक्तियां भी भयभीत होती हैं । नाक में धारण की गई तेजोमय लौंग (स्वर्ण की गोले जैसे आकार की) स्त्री में जागृत शक्तितत्त्व का प्रतिनिधित्व करती है; इसलिए देवताओं से अलंकार धारण करने की प्रक्रिया आरंभ हुई दिखाई देती है । हिंदू धर्म में जागृत स्त्री-तत्त्व के प्रतीक स्वरूप सभी ने इसे स्वीकारा है ।’
२. नथ मोतियों की क्यों होती है ?
मोती आपतत्त्व स्वरूप शीतल रूपी तारकता का प्रतीक होने के कारण नथ मोती की होना : आपतत्त्व स्वरूप शीतलरूपी तारकता के प्रतीक के रूप में मोती का उपयोग किया जाता है । नथ को श्वासोच्छवास के प्रमुखद्वार नासिका में स्थान दिया गया है । इससे नथ से प्रक्षेपित आपतत्त्वरूपी शीतल तरंगों की ओर ब्रह्मांड की शीतलता प्रदान करने वाली चैतन्यस्वरूप प्राणशक्तिदायी तरंगें आकर्षित होती हैं । प्राणशक्तिदायी तरंगें ग्रहण करने का मुख्यद्वार नासिकाद्वार है । अतः इस द्वार पर प्रमुख रूप से मोती की नथ की योजना की गई है । इन तरंगों के संयोग से देह में प्राणशक्तिरूपी तरंगों का संक्रमण होता है, जिससे जीव को निरंतर जागृत चेतना के रूप में सजगता एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है । इसीलिए प्राणशक्ति तत्त्वात्मक चेतना को श्वास के माध्यम से जागृत करने के लिए विशिष्ट स्तर पर आपतत्त्व की सहायता से प्राणशक्तिरूपी शीतल तरंगें आकर्षित करनेवाली मोती की नथ को नाक के निकट स्थान दिया गया है । जैसा उद्देश्य, वैसा कार्य तथा वैसा ही स्थान ।
३. नथ की ओर देखना
-
‘नथ की ओर देखने पर मेरी आंखों पर आया काला आवरण घट गया और आंखों में अच्छी संवेदनाएं अनुभूत हुर्इं ।
-
नथ के सर्वोच्च भाग का मोती (छायाचित्र में क्र. १) मंदिर के कलश समान कार्य करता प्रतीत हुआ । ऐसा लगा कि उस मोती पर स्थित स्वर्ण का गोल (छायाचित्र में क्र. २) ब्रह्मांड में विद्यमान देवताओं की तरंगें आकर्षित कर उस मोती में संक्रमित कर रहा है । इस नथ में देवीतत्त्व की तरंगें आ रही थीं ।
-
नथ में आया देवीतत्त्व, नथ के गोलाकार भाग के मध्य में स्थित स्वर्ण से जडे बडे आकार के लाल रंग के रत्न में (छायाचित्र में क्र. ३) सुप्तावस्था में स्थिर हो रहा था । इसलिए ऐसा प्रतीत हुआ कि उस रत्न में देवी की शक्ति बीजरूप में आ गई है । वह देवीतत्त्व उस लाल रत्न से उसके सर्व ओर लगे मोतियों में प्रसृत हो रहा था । इससे वे मोती देवीतत्त्व से संचारित हो रहे थे । तदुपरांत वह तत्त्व मोतियों से प्रक्षेपित होकर जीव के मुखमंडल एवं वातावरण में फैल रहा था । ऐसा लगा कि नथ में लगा लाल रंग का रत्न एवं जिसमें वह जडा था, दोनों मंदिर के गर्भगृह समान (ईश्वर की तरंगों के एकत्रीकरण का) कार्य कर रहे थे ।
-
नथ के बडे आकार के लाल रत्न के नीचे लगे छोटे लाल रंग के (छायाचित्र में क्र. ४) रत्न में देवता का अप्रकट तत्त्व संक्रमित होकर रत्न के निकट लगे ४ मोतियों से प्रकट स्वरूप में कार्यरत हो रहा था । ऐसा प्रतीत हुआ कि उन चार मोतियों में से नीचे के दो मोतियों के ऊपरी भाग में लगा छोटा मोती जीव को प्राणवायु एवं ऊर्जा की पूर्ति कर रहा है । इस स्वर्ण जडे छोटे लाल रत्न से प्रक्षेपित देवी का तत्त्व जीव के अनाहतचक्र पर निरंतर प्रक्षेपित होने से उस पर सुरक्षा-कवचनिर्मित होता प्रतीत हुआ । इससे अच्छा प्रभाव होकर जीव का मन संतुलित होता है । यह स्वर्ण में जडा लाल रत्न मंदिर के गर्भगृह के बाह्य भाग के समान प्रतीत हुआ ।
-
नथ के निचले भाग पर लगे चपटे लाल रत्न का (छायाचित्र में क्र. ५) रंग, ‘जीव के लिए क्षात्रभाव उत्पन्न करने का केंद्र है’, ऐसा प्रतीत हुआ ।
नथ के अंतिम भाग में लगा मोतियों का गुच्छा तथा उसमें विद्यमान लाल और नीला मणि (छायाचित्र में क्र. ६ एवं ७) :
अ. नथ में लगा मोतियों का गुच्छा प्राणवाय के लिए आवश्यक शक्ति प्रक्षेपित करता है ।
आ. मोतियों के गुच्छे में विद्यमान नीली मणि उत्पत्तिजन्य कार्य करने के लिए जीव को शक्तिकी पूर्ति करती है तथा लाल मणि क्षात्रयुक्त शक्ति का प्रक्षेपण करती है ।
-
नथ का आकार धनुष्यसमान होने के कारण उससे मारक तत्त्वकार्यरत होता है ।
-
नथ की ओर देखने पर ऐसा प्रतीत हुआ कि उसकी रचना, कार्य एवं लाभ मंदिर समान है । प्रयोग के पश्चात नथ के प्रति अपने-आप कृतज्ञता व्यक्त हुई ।
४. नथ धारण करना
पहली ही बार नथ धारण करने पर मुझे स्वयं में प्रतीत हुए परिवर्तन आगे दे रही हूं ।
१. नथ धारण करनेपर मेरी नाक एवं गाल की काली शक्ति घट गई एवं हल्कापन लगा । मुझे कष्ट देनेवाले मांत्रिक का प्रकटीकरण घट गया । मेरे सिर पर आया दबाव घट गया एवं ब्रह्मरंध्र पर अच्छी संवेदनाएं अनुभव होने लगीं । ऐसा लगा कि सिर पर अधिक मात्रा में आध्यात्मिक उपाय हो रहे हैं ।
२. मन के विचारों की मात्रा धीरे-धीरे घटती गई एवं मन स्थिर होकर आनंद का अनुभव हुआ । उस समय मुझे लगा कि मन की संवेदनक्षमता बढ रही है ।
३. मेरे मुखमंडलपर बडी मात्रा में देवीतत्त्व का प्रक्षेपण हो रहा था । उस समय मुझे अपने मुख के सर्व ओर सुनहरे कण दिखे । धीरे-धीरे उनका घनीकरण होकर मुखमंडल पर विरल स्वरूप में देवी का स्वर्णिम मुखौटा बनता प्रतीत हुआ । कुछ समय पश्चात मुझे अपने मुखमंडल पर देवी का स्वर्ण का मुखौटा दिखा ।
४. देवी का स्वर्ण का मुखौटा स्वयं के मुख पर निर्मित हुआ है, यह प्रतीत होने के उपरांत ऐसा लगा कि ‘मेरे मन का कार्य थम गया है’ । मेरा मन आवश्यकतानुसार कार्यरत होकर पुनः आत्मस्वरूप में विलीन होता प्रतीत हुआ। संगणक पर टंकण-सेवा (फीडिंग) करते समय आवश्यक विचार आते और पुनः मन निर्विचार होकर मेरा ध्यान लग जाता । ध्यान में मुझे दिव्यत्व प्रतीत हुआ तथा ऐसा लगा कि ‘आंखें मूंदकर उसी स्थिति में रहूं’ । पुनः टंकण करने का विचार आने पर मन उस स्थिति में न रहकर पुनः कार्यरत होकर अंतर्धान-सा हो रहा था । उस समय नथ के कारण देवीकी शक्ति प्रकट तथा अप्रकट अवस्था में कार्य करती प्रतीत हुई ।
५. मेरी नाक से शुद्ध देवीतत्त्वयुक्त वायु ग्रहण हो रही थी ।
६. नथ के नीचे मोतियों का गुच्छा लगा होता है । इससे नाक के नीचे तथा होंठ और ठोढीr पर निरंतर दैवी शक्ति का प्रक्षेपण होकर मुझ पर उपाय हो रहे थे । उस समय मुझे मुख पर आसुरी शक्ति का मुख मुखौटे के स्वरूप में आता हुआ दिखाई दिया । मेरे मुख पर सूक्ष्म से बने देवी के मुखौटे के कारण आसुरी शक्ति का मुखौटा नष्ट हो गया ।
७. मुझे अपनी छाती पर ढाल एवं उस पर दो तलवारें दिखाई दीं । वहां सूक्ष्मरूप में सुरक्षा-कवच निर्मित होने से मेरे मन को अच्छा लगा ।’
८. निष्कर्ष : मोतियों की नथ का आकार, उसमें जडे मोती तथा रंगीन मणियों से निर्मित सात्त्विक स्पंदनों से साधिका पर आध्यात्मिक उपाय हुए । उसके शरीर में विद्यमान काली शक्ति घट गई और उसे विविध अनुभूतियां हुर्इं, जबकि उसे पीडित करनेवाले मांत्रिक को कष्ट हुआ ।
५. लौंग (सात्त्विकता १ प्रतिशत)
स्वर्ण की लौंग धारण करनेके सूक्ष्म-स्तरीय लाभ दर्शानेवाला चित्र
सूक्ष्म-ज्ञानविषयक चित्र में अच्छी शक्ति की मात्रा : ४ प्रतिशत’- प.पू. डॉ. आठवले
‘सूक्ष्म-ज्ञानविषयक चित्र में स्पंदनों की मात्रा : आनंद १.५ प्रतिशत, चैतन्य ३ प्रतिशत एवं शक्ति २ प्रतिशत
अन्य सूत्र :
१. चैतन्य का देह पर प्रभाव
- चैतन्य संपूर्ण देह में प्रवाहित होता है ।
- चैतन्य के कारण कुंडलिनी सुचारु रूप से प्रवाहित होती है ।
- चैतन्य के कारण श्वास लेना सुलभ हो जाता है ।
२. चैतन्य के कारण देह की २ प्रतिशत एवं मन की १ प्रतिशत शुद्धि होती है ।
६. नाक में स्वर्ण की लौंग धारण कर किया गया सूक्ष्म-ज्ञानविषयक प्रयोग
‘१७.७.२००६ को मैंने नाक में प्रथम बार स्वर्ण की लौंग धारण की । लौंग धारण करने पर मुझे लगने लगा, ‘मैं अपना मुख दर्पण में न देखूं’ । प.पू. डॉक्टरजीने (प.पू. डॉ. आठवलेजीने) सूक्ष्म-ज्ञानविषयक प्रयोग कर देखने के लिए कहा । तदुपरांत दूसरे ही दिन मुझे अपने मुख पर सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देने लगा । मेरी नाक के आसपास की काली शक्ति घटती प्रतीत हुई । सर्दी घटने पर जिस प्रकार नाक में हल्कापन लगता है, उसी प्रकार मुझे लगने लगा । लौंग से श्वेत प्रकाश प्रक्षेपित हुआ । ऐसा प्रतीत हुआ कि उससे आंखों पर आया काला आवरण घट रहा है ।’
निष्कर्ष : लौंग का आकार तथा उसमें लगे श्वेत रत्न के कारण सात्त्विक स्पंदनों की निर्मिति होने से साधिका पर आध्यात्मिक उपाय हुए एवं उसके शरीर में विद्यमान काली शक्ति घट गर्ई ।
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का सात्विक ग्रंथ ‘मांगटीके से कर्णाभूषण तक के अलंकार’