१. देवताके प्रति भक्तिभाव जगानेका सरल मार्ग है ‘आरती’
उपासकके हृदयमें भक्तिदीपको तेजोमय बनानेका व देवतासे कृपाशीर्वाद ग्रहण करनेका सुलभ शुभावसर है `आरती’ । संतोंद्वारा रचित आरतियोंको गानेसे ये उद्देश्य नि:संशय सफल होते हैं । कोई कृति हमारे अंत:करणसे तब तब होती है, जब उसका महत्त्व हमारे मनपर अंकित हो । इसी उद्देश्यसे आरतीके अंतर्गत विविध कृतियोंका आधारभूत अध्यात्मशास्त्र यहां दे रहे ।
२. प्रात: व सायंकाल, दोनों समय आरती क्यों करनी चाहिए ?
`सूर्योदयके समय ब्रह्मांडमें देवताओंकी तरंगोंका आगमन होता है । जीवको इनका स्वागत आरतीके माध्यमसे करना चाहिए । सूर्यास्तके समय राजसी-तामसी तरंगोंके उच्चाटन हेतु जीवको आरतीके माध्यमसे देवताओंकी आराधना करनी चाहिए । इससे जीवकी देहके आस पास सुरक्षाकवच निर्माण होता है।
३. आरतीकी संपूर्ण कृति
१. आरतीके पूर्व तीन बार शंख बजाएं ।
शंख बजाना प्रारंभ करते समय गर्दन उठाकर, ऊर्ध्व दिशाकी ओर मन एकाग्र कर शंख बजाएं ।
शंख बजाते समय ऐसा भाव रखें कि, `ईश्वरीय तरंगोंको जागृत कर रहे हैं’ ।
हो सके तो पहले श्वाससे छाती भरकर, एक ही श्वासमें शंख बजाएं ।
शंखको धीमे स्वरमें आरंभ कर, स्वर बढाते जाएं व उसे वहींपर छोड दें ।
२. शंखनाद हो जानेपर आरतीगायन आरंभ करें ।
इस भावसे आरती करें कि, `ईश्वर प्रत्यक्ष मेरे समक्ष हैं व मैं उन्हें पुकार रहा हूं’ । अर्थको ध्यानमें रखते हुए आरती करें ।
अध्यात्मशास्त्रकी दृष्टिसे शब्दका योग्य उच्चारण करें ।
३. आरती गाते समय ताली बजाएं । घंटी मधुर स्वरमें बजाएं व उसका नाद एक लयमें हो । साथमें मंजीरा, झांझ, हारमोनियम व तबला जैसे वाद्योंका भी तालबद्ध प्रयोग करें ।
४. आरती गाते हुए देवताकी आरती उतारें ।
आरतीकी थालीको देवताके सामने घडीकी सइयोंकी दिशामें पूर्ण गोलाकार घुमाएं । देवताके सिरके ऊपरसे आरती उतारनेकी अपेक्षा, उनके अनाहतचक्रसे आज्ञाचक्रतक उतारें ।
५. आरती उतारनेपर `कर्पूरगौरं करुणावतारं’ मंत्रका उच्चारण करते हुए कर्पूर-आरती करें ।
६. कर्पूर-आरतीके उपरांत देवताओंके नामका जयघोष करें ।
७. आरती ग्रहण करें, अर्थात् दोनों हथेलियोंको ज्योतिपर रखकर, तदुपरांत दाहिना हाथ सिरसे लेकर पीछे गर्दनतक घुमाएं ।
८. आरती ग्रहण करनेके उपरांत `त्वमेव माता, पिता त्वमेव’ प्रार्थना बोलें ।
९. प्रार्थनाके उपरांत मंत्रपुष्पांजलि बोलें ।
१०. मंत्रपुष्पांजलिके उपरांत देवताके चरणोंमें फूल व अक्षत अर्पण करें ।
११. तदुपरांत, देवताकी परिक्रमा लगाना सुविधाजनक न हो, तो एक जगह खडे होकर, चारों ओर घूमते हुए तीन बार परिक्रमा लगाएं ।
१२. परिक्रमाके पश्चात् देवताको शरणागत भावसे नमस्कार करें व मानस-प्रार्थना करें ।
१३. तत्पश्चात् तीर्थ प्राशन कर, भ्रूमध्यपर (उदबत्ती अर्थात् अगरबत्तीकी) विभूति लगाएं ।
अ. देवताकी पूर्ण गोलाकार आरती ही क्यों उतारें ?
`पंचारतीके समय आरतीकी थालीको पूर्ण गोलाकार घुमाएं । इससे ज्योतिसे प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगें गोलाकार पद्धतिसे गतिमान होती हैं । आरती गानेवाले जीवके चारों ओर इन तरंगोंका कवच निर्माण होता है । इस कवचको `तरंग कवच’ कहते हैं । जीवका ईश्वरके प्रति भाव जितना अधिक होगा, उतना ही यह कवच अधिक समयतक बना रहेगा । इससे जीवके देहकी सात्त्विकतामें वृद्धि होती है और वह ब्रह्मांडकी ईश्वरीय तरंगोंको अधिक मात्रामें ग्रहण कर सकता है ।
आ. कर्पूर-आरतीके पश्चात् देवताओंके नाम का जयघोष क्यों करना चाहिए ?
`उद्घोष’ यानी जीवकी नाभिसे निकली आर्त्त पुकार । संपूर्ण आरतीसे जो साध्य नहीं होता, वह एक आर्त्त भावसे किए जयघोषसे साध्य हो जाता है ।
इ. विधियुक्त आरती ग्रहण करनेका अर्थ क्या है ?
देवताओंकी आरती उतारनेके पश्चात् दोनों हथेलियोंको दीपकी ज्योतिपर कुछ क्षण रखकर उनका स्पर्श अपने मस्तक, कान, नाक, आंखें, मुख, छाती, पेट, पेटका निचला भाग, घुटने व पैरोंपर करें । इसे `विधियुक्त आरती ग्रहण करना’ कहते हैं ।’
४. आरतीके उपरांतकी कृतियां
आरतीके उपरांत `त्वमेव माता, पिता त्वमेव’ प्रार्थना करें इससे साधकका देवता व गुरुके प्रति शरणागतिका भाव बढता है और मंत्रपुष्पांजलिके उच्चारण उपरांत देवताके चरणोंमें फूल व अक्षत चढाएं ।
आरतीके उपरांत देवताकी परिक्रमा लगाएं । सुविधाजनक न हो, तो एक ही स्थानपर खडे होकर अपने चारों ओर परिक्रमा लगाएं । आरतीके उपरांत वातावरणकी सात्त्विकता बढती है । अपने चारों ओर परिक्रमा लगानेसे वातावरणमें फैली सत्त्वतरंगें अपने चारों ओर गोल घूमने लगती हैं ।
परिक्रमा लगानेंके पश्चात् नमस्कार करनेसे क्या लाभ होता है ?
देवताको नमस्कार करनेसे देहकी चारों ओर बने कवचमें देवतासे प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगें दीर्घकालतक टिकी रहती हैं ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘आरती कैसे करें ? ( आरती उतारनेकी शास्त्रोक्त पद्धति !)’