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पूजाघर में देवताओं की संरचना कैसे करें ?

ईश्वरप्राप्ति के लिए भक्तिमार्ग से उपासना करनेवालों की दृष्टि से ‘देवतापूजन’ महत्त्वपूर्ण है; ऐसे में पूजाघर अनिवार्य है । अध्यात्म में प्रत्येक कृत्य के विशिष्ट पद्धति के पीछे कुछ शास्त्र होता है अर्थात उस प्रकार करने से आध्यात्मिक लाभ अधिक मिलता है । इसीलिए प्रस्तुत लेख में पूजाघर में देवताओं की संरचना इत्यादि के सन्दर्भ में अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी दी है ।

१. शंकु समान संरचना

पूजाघर में देवताओं की रचना शंकु के आकार में करें । पूजक के सामने शंकु की नोक पर अर्थात बीच में श्री गणेश की मूर्ति रखें । पूजक की दार्इं ओर स्त्रीदेवताओं की रचना करें । उसमें कुलदेवी का रूप प्रथम एवं उपरान्त उच्च देवताओं के उपरूप हों, तो रखें । उसके उपरान्त उच्च देवता की स्थापना करें ।

इसी क्रम के अनुसार पूजक की बार्इं ओर पुरुषदेवता अर्थात प्रथम कुलदेव रखें । तदुपरान्त उच्च देवताओं के उपरूप तथा उसके उपरान्त उच्च देवता रखें ।

अ. सात उच्च देवता एवं उनके उपरूप

देवता देवताके उपरूप
१. श्री गणपति
२. श्रीराम
३. मारुति पंचमुखी मारुति (प्रकट क्रियाशक्ति), दासमारुति (इच्छाशक्ति), वीरमारुति (अप्रकट क्रियाशक्ति)
४. शिव वेताल (क्रियाशक्ति)
५. शक्ति श्री दुर्गादेवी के नौ रूप (क्रियाशक्ति)
६. दत्त
७. श्रीकृष्ण बालकृष्ण (इच्छाशक्ति), बलराम (क्रियाशक्ति)

आ. प्रधानता अनुसार उच्च देवताओं की रचना का क्रम

सात उच्च देवताओं में से ब्रह्मा (इच्छा), विष्णु (क्रिया) एवं महेश (ज्ञान), इस क्रमानुसार उत्पत्ति, स्थिति एवं लयसंबंधी देवताओं से पहले, शेष देवताओं को इच्छा, क्रिया व ज्ञान तरंगों की संलग्नता अनुसार स्थान दें ।

इ. शंकु समान की गई रचना की विशेषता एवं महत्त्व

अ. शंकु की रचना शंकु की नोक अर्थात सगुण रूप धारण करने पर कार्यरत शक्ति तथा उसके उपरान्त निर्गुण रूप अर्थात आनन्द एवं शान्ति दर्शाती है । श्री गणेश एवं देवताओं के उपरूप और उसके उपरान्त उन देवताओं के मूल उच्च देवता, क्रमानुसार सगुण से निर्गुणतक जीव की
यात्रा दर्शाते हैं । शंकु का बढते जानेवाला भाग निर्गुण की व्याप्ति दर्शाता है ।

आ. मध्यस्थान पर श्री गणेश हैं । मनुष्य की भाषा नादभाषा होती है । श्री गणेश नादभाषा समझते हैं; इसलिए वे शीघ्र प्रसन्न होनेवाले देवता कहलाते हैं । श्री गणेश नाद को प्रकाश में एवं प्रकाश को नाद में रूपान्तरित करनेवाले देवता हैं । अन्य देवता अधिकतर प्रकाशभाषा ही समझ सकते हैं । श्री गणेश इच्छातरंगों से भी संबंधित हैं । इसलिए भक्त की इच्छा अथवा देवताओं के चरणों में भक्त की याचना को वे शीघ्र कुलदेवी अथवा कुलदेवतक पहुंचाते हैं । इसके परिणामस्वरूप कुलदेवी अथवा कुलदेव उस जीव की सहायता के लिए शीघ्र दौडे आते हैं तथा प्रत्यक्ष कुलदेव अथवा कुलदेवी जीव की कामनापूर्ति के लिए उच्च देवताओं से याचना करते हैं । इस कारण उच्च देवताओं के तत्त्व शीघ्र ही
जीव के लिए कार्यरत हो जाते हैं ।

२. कुछ व्यावहारिक सूचनाएं

अ. किसी व्यक्ति के पूजाघर में देवताओं की संख्या अल्प हो, उदा. देवता का उपरूप हो तथा उच्च देवता का रूप न हो, तो शंकु की रचना में दिए अनुसार क्या उच्च देवता का नया चित्र अथवा मूर्ति लाएं ? : देवता की नई प्रतिमा लाने की आवश्यकता नहीं । घर में जो चित्र अथवा मूर्तियां हैं, उन्हींको शंकु की रचना अनुसार पूजाघर में रखें । प्रधानतः श्री गणेश, कुलदेवी एवं कुलदेव हों, तो अति उत्तम; क्योंकि अन्य देवताओं की तुलना में अपने कुल के देवता के प्रति भावजागृति शीघ्र होने में जीव को सहायता मिलती है । उक्त नियम कर्मकाण्ड से संलग्न है एवं देवताओं के प्रत्यक्ष सगुण रूपों से अधिक मात्रा में सम्बन्धित है । सगुण साधना करते समय अनेक से एक की ओर अर्थात अद्वैत की ओर जाना महत्त्वपूर्ण होता है । देवताओं की सगुण मूर्ति के माध्यम से विशिष्ट देवताओं के सगुण-निर्गुण रूपी अनेक तत्त्वों की ओर हमें जाना है । आगे उन सर्व तत्त्वों को स्वयं में समा लेनेवाले तथा पूर्णतः निर्गुण से सम्बन्धित ईश्वर तक हमें पहुंचना है ।

आ. किसी व्यक्ति के पूजाघर में देवताओंकी संख्या अधिक हो, उदाहरणार्थ देवताके दो उपरूप हों, तो दोनों उपरूप रखें अथवा उनमेंसे एक रखें ? : जीवकी दृष्टि से यह उचित है कि दो में से एक ही उपरूप रखें । प्रत्येक समय यह ध्यान रहे कि हमें अनेक से एककी ओर जाना है । उसके अनुरूप ईश्वर के प्रति हमारी श्रद्धा निर्मित हो, यही उद्देश्य रहे तो सगुण साधना से निर्गुण साधना में प्रवेश करना जीव के लिए सरल होता है ।

इ. यदि कोई श्री गणेश का उपासक है, तो उसके लिए देवता का उपरूप एवं मूल रूप अलग से रखने की आवश्यकता है अथवा नहीं, यदि है तो कौनसा रूप रखें ? : आवश्यकता नहीं है । श्री गणेश के प्रति अधिक श्रद्धा हो, तो केवल श्री गणेश ही रखें; परन्तु किसी विशिष्ट देवता के तत्त्व में स्वयंको न बांधें । निर्गुण ईश्वर की ओर ही जाने का प्रयास करें ।’

र्इ. कभी-कभी देवताओं के चित्रों में देव शक्तिसहित होते हैं, उदाहरणार्थ सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण इत्यादि । जब चित्र में देवता के बार्इं ओर देवी हों, तब वे अपने स्वामी के साथ अपने भक्तों को आशीर्वाद देती हैं । बार्इं बाजू चंद्रनाडी की होती है तथा चन्द्रनाडी शीतल एवं आनंददायी
होती है । यह शक्ति का तारक रूप है । ऐसे में पुरुषदेवता को ही प्रधानदेवता मानकर, चित्र को श्री गणेश के दार्इं ओर रखें । कुछ चित्रों में देवता के दार्इं ओर देवी दर्शाई जाती हैं । दाहिना भाग सूर्यनाडी का होता है । सूर्यनाडी तेजतत्त्व से सम्बन्धित एवं शक्तिदायी होती है । यह शक्ति का मारक रूप है । ‘कालीविलासतंत्र’में बताया गया है कि काली शिव के हृदय पर खडी होकर नृत्य करती हैं । यहां शिव की अपेक्षा शक्ति प्रबल है । चित्र में देवता के दार्इं ओर देवी हो, तो देवी क्रियाशील होती हैं । ऐसे में, उन्हींको प्रधानदेवता मानकर चित्र को श्री गणेश के बार्इं ओर रखें ।

उ. देवताओं की सामूहिक चित्रपट्टियां / नामजपपट्टियां कहां लगाएं ? : विशिष्ट समयपर जीव के लिए आवश्यक देवतातत्त्व का आलम्बन करना सरल हो, इसलिए देवताओं के सामूहिक चित्रों का प्रयोग सुविधाजनक होता है । साथ ही वस्त्रालंकार से सुशोभित देवता का रूप नेत्रों के सामने हो, तो उसपर मन सहज एकाग्र हो जाता है । देवताओं की सामूहिक चित्रपट्टी को पूजाघर में पीछे की ओर ऐसे लगाएं जहां सहज ध्यान आकर्षित हो । अपनी प्रकृतिनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए देवता की मूर्ति पर अथवा देवताओं के सामूहिक चित्रपर आलंबन करना सहज सम्भव होता है । पूजाघर ऊंचे स्थान पर हो, तो उसी कमरे में अथवा दूसरे कमरे में देवताओं की सामूहिक चित्रपट्टी को रख सकते हैं । उसे किसी भी स्थान पर अव्यवस्थित रख देने से उसमें विद्यमान देवत्व का अनादर होता है, इसलिए सावधानी बरतना आवश्यक है । देवताओं के नामजप की एकत्रित पट्टी हो, तो उसके लिए भी उक्त नियम का पालन आवश्यक है ।

३. अनुभूति

पूजाघर में देवताओं की उचित रचना करने पर दस वर्षों से बिस्तर पर पडी बीमार मां उठ खडी होना : मैं खारपट्टी गांव (जनपद रायगड, महाराष्ट्र)में अपने मित्र के घर गया था । उसके पूजाघर में देवताओं की रचना उचित नहीं थी । मैंने कहा, ‘‘श्याम, ये क्या ? देवताओं की अनुचित रचना के कारण तुम्हारे घर में आध्यात्मिक कष्ट का अनुभव हो रहा है । देवताओं की न्यूनतम प्रतिमाएं संख्या रख उनकी उचित संरचना करो । अतिरिक्त देवताओं को प्रवाहित करो ।’’ उसने तुरन्त ही अपने पूजाघर की रचना में परिवर्तन कर दिया । तत्पश्चात दस वर्ष से बिस्तर पर पडी उसकी रुग्ण मां भीत की (दीवार की) सहायता से खडी होने लगी ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘पूजाघर एवं पूजाके उपकरण