ईश्वरप्राप्ति के लिए भक्तिमार्ग से उपासना करनेवालों की दृष्टि से ‘देवता पूजन’ महत्त्वपूर्ण है; ऐसे में पूजाघर अनिवार्य है । आजकल अधिकांश घरों में सुविधानुसार अथवा शोभा हेतु, शास्त्रीय दृष्टिकोण का विशेष विचार किए बिना पूजाघर बनाया जाता है । अध्यात्म में प्रत्येक कृत्य के विशिष्ट पद्धति के पीछे कुछ शास्त्र होता है अर्थात उस प्रकार करने से आध्यात्मिक लाभ अधिक मिलता है । इसीलिए प्रस्तुत लेख में पूजाघर की दिशा, रंग, रूप तथा आकार के सन्दर्भ में अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी दी है ।
१. पूजाघर किससे बना हो ?
यदि सम्भव हो, तो पूजाघर चन्दन का अथवा सागौन का बनाएं । सबके लिए चन्दन का पूजाघर बनाना सम्भव नहीं होता । अन्य
लकडियों की तुलना में सागौन में सात्त्विक तरंगें संजोए रखने एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता अधिक होती है । ईश्वर के प्रति जीव के भाव के कारण, पूजाघर के ऊपरी नुकीले भाग की ओर देवताओं की तरंगें आकर्षित होती हैं एवं आवश्यकतानुसार वास्तु में प्रक्षेपित की जाती हैं ।
२. पूजाघरका रंग कैसा होना चाहिए ?
आजकल अधिकांश घरों में सजावट के लिए पूजाघर विभिन्न रंग के बनाए जाते हैं । वास्तव में पूजाघर लकडी के रंग का अर्थात भूरे रंग का होना श्रेष्ठ है । इसका कारण आगे दिए अनुसार है । ईश्वर के दो तत्त्व हैं – सगुण तत्त्व एवं निर्गुण तत्त्व । भूरा रंग सगुण तत्त्व तथा निर्गुण तत्त्व की सीमारेखा का अर्थात सगुण से निर्गुण की ओर जाने के स्थित्यन्तर का दर्शक है । पंचतत्त्वों से बना मनुष्य जीव ‘सगुण’ है, तथा निराकार ईश्वर ‘निर्गुण’ हैं । देवतापूजन जैसे धार्मिक कृत्य द्वारा ईश्वरोपासना से जीव को सगुण से निर्गुण की ओर अर्थात द्वैत से अद्वैत की ओर बढने में सहायता मिलती है । स्वाभाविक ही पूजाघर का भूरा रंग, इस यात्रा के लिए पूरक होता है ।
३. पूजाघर का आकार कैसा हो ?
त्रिमितीय वस्तु का आकार दर्शा ते समय ‘लम्बाई x चौडाई x ऊंचाई’, इस प्रकार दर्शाया जाता है । आगे पूजाघर का आकार आध्यात्मिक दृष्टि से कैसे हो, इसके तीन प्रारूप दिए हैं । नाप समझ में आए, इसलिए ये उदाहरण दिए हैं । उसमें दिए नाप के अनुसार पूजक की सुविधा अनुसार छोटे-बडे आकारों में पूजाघर बनाया जा सकता है ।
अ. सामान्य व्यक्ति तथा शक्ति-उपासक द्वारा उपयोगमें लाया जानेवाला पूजाघर
१. प्रारूप क्रमांक १
इस पूजाघर की लम्बाई २ फुट, चौडाई १ फुट एवं ऊंचाई ४ फुट मानकर, इस अनुपात में अन्य नाप दिए हैं । ‘२ : १ : ४’, केवल ‘लम्बाई x चौडाई x ऊंचाई’ का अनुपात है ।
* नाप की परिभाषा – २’ : २ फूट, ८’’ : ८ इंच, १’ २’’ : १ फुट २ इंच * पूजाघर के दो खम्भों के बीच का अन्तर, खम्भों के मध्यबिन्दु से लिया गया है ।
२. प्रारूप क्रमांक २ : पूजाघर का आकार (अनुपात – २ : १.२५ : ३)
उपरोक्त क्र. १ और २ के प्रारूप साधारण व्यक्ति के लिए (पूजकोें के लिए) उपयुक्त हैं । क्र. २ के प्रारूप के अनुसार बनाया पूजाघर खडे रहकर पूजा करने की दृष्टि से अधिक सुविधाजनक है ।
३. प्रारूप क्र. ३
पूजाघर का आकार (अनुपात – २ : १ : ३) इस प्रारूप के पूजाघर की चौडाई छोडकर अन्य नाप ‘प्रारूप क्र. २’ के पूजाघर के समान ही हैं ।
केवल चौडाई १ फुट है । शक्ति-उपासकों के (देवी- उपासकों के) लिए यह प्रारूप लाभदायक है ।
४. क्या पूजाघर दोनों ओर से खुला रखना उचित है ?
पूजाघर इसलिए बनवाते हैं कि देवता पूजन से पूजक को अधिकाधिक चैतन्य प्राप्त हो । पूजाघर के संवृत भाग के कारण चैतन्य के प्रक्षेपण में बाधा न हो तथा पूजक को चैतन्य सीधे प्राप्त हो, इस हेतु पूजाघर के दोनों भाग खुले रखना उपयुक्त है । सामान्यतः (घर के) जिस कक्ष में सदस्यों का विचरण होता है, वहां सभी के लिए बने एकत्रित पूजाघर के सन्दर्भ में यह लागू है । यदि दम्पति के कक्षमें स्वतन्त्र पूजाघर हो, तो उसके दोनों भाग आगे दिए गए कारणों से आच्छादित रखना अधिक उचित है । माहवारी के समय स्त्रियों का मन्दिर जाना उचित नहीं;
क्योंकि वहां की सात्त्विकता से उन्हें कष्ट हो सकता है । उसी प्रकार स्त्रियों को पूजाघर से प्रक्षेपित चैतन्य से भी कष्ट हो सकता है । पूजाघर के दोनों भाग आच्छादित हों,तो पूजाघर से प्रक्षेपित चैतन्य की मात्रा तुलनात्मक रूप से अल्प होती है; इसलिए ऐसा पूजाघर दंपति के कक्ष के लिए उचित है । केवल ५० प्रतिशत से अधिक (आध्यात्मिक) स्तर की स्त्रियों के लिए यह लागू नहीं होता ।
५. क्या पूजाघर पर कलश रखना उचित है ?
कलश का कार्य है, वातावरण की चैतन्यतरंगों को आकर्षित कर उन्हें दूरतक प्रक्षेपित करना । साधारण व्यक्तियों में अधिक भक्तिभाव नहीं होता । देवतापूजन से जो थोडाबहुत चैतन्य निर्मित होता है, वह कलश द्वारा दूरतक प्रक्षेपित न हो; अपितु उसका लाभ पूजक को मिले, इस
हेतु पूजाघर पर कलश न होना ही उचित है । जिनका स्तर ५० प्रतिशत से अधिक है, उनमें भक्तिभाव अधिक होता है, इसलिए उनके द्वारा किए गए देवता पूजन से चैतन्यनिर्मिति भी अधिक होती है । ऐसे लोगों के पूजाघर में कलश रखने से कलश के द्वारा चैतन्य दूरतक प्रक्षेपित होता है तथा उसका लाभ अन्यों को भी मिलता है । साथ ही वातावरण की शुद्धि भी अधिक मात्रा में होती है । इस प्रक्रिया में व्यष्टि के (व्यक्ति के) साथ ही समष्टि के (समाज के) कल्याण का व्यापक हित साध्य होता है । देवालय के कलश की तुलना में पूजाघर का कलश छोटासा एवं गुम्बदाकार नोंकयुक्त होना क्यों आवश्यक है, इसका मूलभूत शास्त्र आगे दिए अनुसार है ।
पूजाघर का ऊपरी भाग शंक्वाकार होने से वह वास्तु की सगुण तरंगों को ग्रहण एवं प्रक्षेपित करने हेतु पर्याप्त है, इसलिए उसपर देवालय के समान निर्गुण चैतन्य ग्रहण करनेवाले कलश की आवश्यकता न होना : पूजाघर की संरचना वास्तु के मर्यादित क्षेत्र में ही सीमित रहती है । इसलिए वह परिमाणबद्धता के नियमानुसार ही स्वयं को उचित स्वरूप में व्यक्त करती है । देवालय प्रत्यक्ष आकाश रिक्ति से सम्बन्धित है, जबकि पूजाघर वास्तुरूपी अवकाशरिक्ति में समाविष्ट है । अतः विशिष्ट कनिष्ठ स्तर की सगुण तरगों को ग्रहण एवं प्रक्षेपित करने हेतु पूजाघर का ऊपरी भाग शंक्वाकार बनाया जाता है । विशिष्ट आकार की तरंगों को ग्रहण करने में विशिष्ट आकार से सम्बन्धित परिमाणबद्धता ही पोषक है, अतः वह मर्यादित क्षेत्र में ही चैतन्य का लाभ प्राप्त करवाती है ।
देवालय का मूल दृष्टिकोण ही व्यापक स्तर के आकाश से सम्बन्धित निर्गुण चैतन्य ग्रहण करना है । इस स्थिति के लिए विशिष्ट देवालय पर पूरक कलश की संरचना की जाती है । अधिक व्याप्ति अर्थात रिक्तियुक्त कलशरूपी आकार निर्गुण चैतन्य ग्रहण कर सकता है, जबकि पूजाघर की नोंक अपने सीमित तथा अल्प रिक्तियुक्त आकार के कारण सगुण चैतन्य ग्रहण कर मर्यादित वास्तु के कार्यक्षेत्र में अधिक कार्य कर सकती है; इसलिए पूजाघर पर देवालय के समान कलश नहीं रखते । विशिष्ट घटना के परिणाम हेतु पूरक आकारबद्धता का नियोजन करने से ही उससे फलप्राप्ति भी सहज साध्य होती है ।
६. पूजाघर किस दिशा में हो ?
पूजाघर सदा पूर्व-पश्चिम दिशा में हो । पूजाघर का द्वार पूर्व दिशा की ओर करने से उस दिशा में रिक्त स्थान तैयार होता है । इस रिक्त स्थान में विद्यमान क्रियाशक्ति (ब्रह्माण्ड की तीन शक्तियां हैं – इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति एवं क्रियाशक्ति), देवताओं से प्रक्षेपित तरंगों को गतिमान करती है । इससे देवता की निर्गुण अप्रकट तरंगों का रूपान्तरण प्रकट सगुण तरंगों में होता है । जब देवताओं से प्रक्षेपित तरंगों द्वारा पूर्व-पश्चिम दिशाओं से संलग्न क्रियाशक्ति प्रकट होती है, तब वह अधिक ऊध्र्वगामी (ऊपर की ओर संचार करनेवाली) बनती है । अधोगामी (नीचे की ओर संचार करनेवाली) तरंगों की अपेक्षा ऊध्र्वगामी तरंगों का प्रभाव वातावरण में अधिक कालतक बना रहता है । इसलिए देवताओं से प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगों के प्रभाव को दीर्घकालतक बनाए रखने के लिए पूजाघर की दिशा पूर्व-पश्चिम हो । इसके विपरीत, दक्षिण-उत्तर दिशाओं में सम्पुटित हुई इच्छाशक्ति कार्यरत होने पर, उसका संचार अधिक अधोगामी होता है । इस संचार के फलस्वरूप वातावरण में विद्यमान तिर्यक (कष्टदायक रज-तम) तरंगें भी कार्यरत होती हैं । इस कारण देवता से प्रक्षेपित सात्त्विकता में बाधा उत्पन्न होती है और जीव (पूजक)को पहले की अपेक्षा अल्प लाभ होता है ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘पूजाघर एवं पूजाके उपकरण’