पुष्पों में विविध तत्त्व एकत्र होते हैं । देवता का तत्त्व, उनकी सात्त्विक तरंगें एवं चैतन्य, हमें पुष्प और पुष्पमाला से सुगन्ध, स्पर्श एवं देखने मात्र से भी मिलता है । देवता की प्रतिमा पर चढाई मालाओं में वह देवतातत्त्व पूजा के माध्यम सेे आकर्षित होता है । हमें देवता को जो अर्पित करना है, वह सदा सर्वोत्तम होना चाहिए । अर्पित की गई वस्तु को देवता सूक्ष्म रूप से ग्रहण करते हैं एवं तत्पश्चात प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं । इसलिए देखते है, देवताओं को विशिष्ट पुष्प, विशिष्ट संख्या तथा रचना में क्या अर्पित करते है, पुष्प कैसे अर्पित करें, कलियां एवं सूखे अथवा पेडसे झडे पुष्प देवता को क्यों नहीं चढाए, इत्यादी…
किस देवता को कौन से पुष्प अर्पित करें ?
देवता | अर्पित पुष्प | देवता | अर्पित पुष्प |
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१. ब्रह्मा | तगर | ७. श्री महालक्ष्मी | गुलदाउदी |
२. श्रीराम | जाही | ८. श्री महाकाली | कनेर |
३. हनुमान | चमेली | ९. श्री दुर्गादेवी | मोगरा |
४. शिव | रजनीगन्धा | १०. श्री गणपति | गुडहल |
५. श्री सरस्वती | स्वस्तिक | ११. दत्त | जूही |
६. श्री लक्ष्मी | कमल / गेंदा | १२. श्रीकृष्ण | कृष्णकमल |
देवताओं को पुष्प विशिष्ट संख्या तथा रचना में अर्पित करने का शास्त्रीय आधार क्या है ?
देवता से प्रक्षेपित तरंगें, देवता का तत्त्व दर्शानेवाली पुष्प-संख्या और उस तत्त्व से सम्बन्धित पुष्पों की विशिष्ट रचना के कारण, देवता की कार्यरत तरंगें उन पुष्पों के आकृतिबन्ध में संजोकर आवश्यकतानुसार पुष्पों के गन्धकणों से सहज प्रक्षेपित होती हैं । इन पुष्पों की विशिष्ट संख्या की ओर (संख्याब्रह्म) विशिष्ट देवता का तत्त्व शीघ्र आकर्षित होता है । यही सिद्धान्त ईश्वर हमें आगे की सारणी में दी गई पुष्पों की संख्या से सिखाते हैं ।
सप्तदेवताओं को चढाने योग्य पुष्पों की संख्या तथा उनकी रचना (आकार)
सप्तदेवता | अर्पित पुष्पों की संख्या | अर्पित पुष्पों की रचना (टिप्पणी १) |
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१. शिव | शून्य, दस | भरा हुआ गोला (सुप्त शक्ति) |
२. श्री दुर्गादेवी (टिप्पणी २) | एक अथवा नौ | खोखला गोल (कार्यरत शक्ति) |
३. श्रीकृष्ण | तीन | खोखला लम्बगोलाकार |
४. श्रीराम | चार | खोखला लम्बगोलाकार |
५. हनुमान | पांच | खोखला लम्बगोलाकार |
६. दत्त | सात | खोखला विषम कोन |
७. श्री गणपति | आठ | खोखला विषम कोन |
टिप्पणी १ – इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान की तरंगें आकृष्ट करनेवाले सम्बन्धित आकृतिबन्धों में (उदा. ज्ञानतरंगें गोल की ओर तथा
क्रियातरंगें लम्बगोल की ओर आकृष्ट होती हैं) पुष्प चढाने से सम्बन्धित देवता के तत्त्व का लाभ अधिक मिलती है ।
टिप्पणी २ – शून्य अर्थात कुछ भी न चढाना
टिप्पणी ३ – सूत्र ‘१. किस देवता को कितने पुष्प चढाएं ?’ इसमें श्री सरस्वती, श्री लक्ष्मी, श्री महालक्ष्मी एवं श्री महाकाली देवी को कौनसा पुष्प चढाएं, यह दिया है । ये देवियां आदिशक्ति श्री दुर्गादेवी के ही रूप हैं, अतएव जिस संख्या एवं रचना में श्री दुर्गादेवी को पुष्प चढाते हैं, उसी के अनुसार इन देवियों को भी चढाएं । ‘ब्रह्मा’ उपास्यदेवता नहीं हैं, इसलिए इस देवता को चढाए जानेवाले पुष्पों की संख्या एवं रचना का उल्लेख नहीं किया गया है ।
पुष्प का डण्ठल देवता की ओर कर क्यों रखते हैं ?
डण्ठल देवता की ओर तथा पुष्पदल को अपनी ओर कर, पुष्प चढाएं । पुष्प के डण्ठल से ग्रहण देवताओं की तरंगों में निर्गुण तरंगें अधिक होती हैं । इनका प्रवाह जब पुष्प के अंकुर और पंखुडियों में प्रवेश करता है, तब पंखुडियों और अंकुर के गन्ध तथा रंग कणों की गतिविधियों के कारण इन निर्गुण तरंगों के स्रोत का रूपान्तर, पृथ्वी तथा आप तत्त्वों की सहायता सेे सगुण तरंगों में किया जाता है । और ये सगुण तरंगें गन्ध तथा रंग कणों के माध्यम से जीव की ओर प्रक्षेपित की जाती हैं । जीव की स्थूलदेह पृथ्वी तथा आप तत्त्वों की सहायता से बनी है । अतः रंग तथा गन्ध कणों के माध्यम से प्रक्षेपित तरंगें जीव द्वारा शीघ्र ग्रहण होती हैं । पृथ्वी तथा आप तत्त्वों से सम्बन्धित इन तरंगों से कष्ट न होकर, इनके द्वारा जीव विशिष्ट देवता का सगुण चैतन्य सम्पूर्णतः ग्रहण करता है ।
पुष्पों में विविध तत्त्व एकत्र होते हैं । इनमें पृथ्वीतत्त्व होने के कारण सुगन्ध है तथा तेजतत्त्व होने के कारण ये स्थूल रूप से दिखाई देते हैं । पुष्पों में वायुतत्त्व के कारण इन्हें हाथों से स्पर्श कर सकते हैं । इस प्रकार देवता का तत्त्व, उनकी सात्त्विक तरंगें एवं चैतन्य, हमें पुष्प और पुष्पमाला से सुगन्ध, स्पर्श एवं देखने मात्र से भी मिलता है ।
देवता की प्रतिमा पर चढाई मालाओं में वह देवतातत्त्व पूजा के माध्यम सेे आकर्षित होता है । यह तत्त्व तथा चैतन्य सामान्यतः ३ दिन तक रहता है । तदुपरान्त हम उसे निर्माल्य के रूप में जल में विसर्जित करते हैं ।
देवता को पुष्प चढाते समय उसका डण्ठल देवता की प्रतिमा की दिशा में रखने के सूक्ष्म स्तरीय लाभ
१. डण्ठल देवता की ओर रखने से देवता से प्रक्षेपित होनेवाले स्पन्दन उस डण्ठल में आते हैं । प्रत्येक वृक्ष के मूल में (बीज रूप में) ईश्वरीय तत्त्व कार्यरत रहता है । वहां से ईश्वरीय तत्त्व पुष्प की डण्ठल तथा डण्ठल से पंखुडियों के माध्यम से पूजक की ओर प्रक्षेपित होता है; उदा. पंखे की घूमती पत्तियों से (ब्लेड्स्से) वायु का प्रसरण सर्वत्र होता है । यहां भी ठीक उसी प्रकार से पुष्प की पंखुडियों से ईश्वरीय तत्त्वका कार्य होता है ।
- डण्ठल में देवता-तत्त्वों की उत्पत्ति होती है ।
- पुष्पों के मध्य में देवताओं के तत्त्व कार्यरत होते हैं ।
- पुष्प की पंखुडियों से देवता-तत्त्व का प्रक्षेपण होता है ।
२. पुष्पों से पूजक को सुगन्ध के रूप में शक्ति की तरंगें प्राप्त होती हैं ।
३. देवता की प्रतिमा से अथवा मूर्ति से उच्च स्तर के स्पन्दन प्रक्षेपित होते हैं; परन्तु पूजा के उपकरणों में अथवा वस्तुओं में देवताओं के उच्चतम स्पन्दनों को ग्रहण कर पूजक को प्रदान करने की क्षमता अल्प ही होती है । (भावयुक्त पूजक इन स्पन्दनों को सहजता से ग्रहण करता है ।)
४. देवता को अर्पित पुष्पों से २-३ घण्टे ही स्पन्दनों का प्रक्षेपण होता है । पुष्पों का कुम्हलाना आरम्भ होने पर उनसे स्पन्दनों का प्रक्षेपण घटता जाता है ।
देवता के चरणों में और सिर पर पुष्प चढाना, दोनों पद्धतियां वर्तमान में प्रचलित हैं । चरणों में पुष्प चढाने का कृत्य देवता के प्रति शरणागत-भाव की निर्मिति में सहायक होता है । इस प्रकार के भाव की निर्मिति पूजक की आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती है । इसलिए सर्वसाधारण पूजक के लिए देवता के चरणों में पुष्प चढाना अधिक उचित सिद्ध होता है ।
देवता को अर्पित किए जानेवाले फूल कैसे तोडें ?
फूलों की पंखुडियों से संलग्नता दर्शानेवाले नलीयुक्त भाग को ‘डण्ठल’, तथा इस डण्ठल के पीछे के जडत्वधारी भाग को ‘बाह्य दल’ कहते हैं । बाह्य दल में छुपा नाद जडत्वधारी अर्थात आघातात्मक होता है, जबकि डण्ठलकी रिक्ति में विद्यमान नाद सुषिर अर्थात वायुधारणा से संलग्न होता है । इसलिए वह चैतन्य का वहन करने में अग्रसर होता है । फूल से संलग्न डण्ठल अथवा फूल की डण्डी कभी न तोडें; क्योंकि उसे तोडने पर कभी-कभी फूलकी पंखुडियां बिखर जाती हैं एवं फूल द्वारा चैतन्य ग्रहण और प्रक्षेपित करने की क्षमता घटने लगती है । कुछ फूलों में उनकी पंखुडियों से संलग्न डण्ठल के अतिरिक्त एक छोटा-सा हरा भाग डण्ठल के नीचे जुडा रहता है । उस बाह्य दल को अवश्य तोडें । टसरैया, तगर आदि फूलोंकी डण्डियों के नीचे ऐसे छोटे बाह्य दल पाए जाते हैं । उन्हें अवश्य तोडें; क्योंकि ये बाह्य दल डण्ठल की ओर संक्रमित वताके चैतन्य में बाधा बनते हैं । ये बाह्य दल जडत्वधारी अर्थात पृथ्वीधारकता से संलग्न होते हैं । इसलिए उनकी चैतन्य वहन करने की क्षमता अत्यल्प होती है । यदि उन्हें फूलों के साथ रहने दिया जाए, तो वे अपने पृथ्वीतत्त्वात्मक स्पर्श से डण्ठल के चैतन्यवहन की कार्यरतता भी न्यून (कम) करते हैं । इससे पूजक को देवता से प्रक्षेपित चैतन्य का आवश्यक लाभ नहीं हो पाता; अतः ये बाह्य दल तोडकर ही फूल देवता को अर्पित करें ।
कलियां एवं सूखे अथवा पेडसे झडे पुष्प देवता को क्यों नहीं चढाने चाहिए ?
हमें देवता को जो अर्पित करना है, वह सदा सर्वोत्तम होना चाहिए । अर्पित की गई वस्तु को देवता सूक्ष्म रूप से ग्रहण करते हैं एवं तत्पश्चात प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं । कली’ (अविकसित रूप) की अवस्था में पुष्प में गन्धकण तथा रंगकण अप्रकट होते हैं । कली के पुष्प में रूपान्तरित होने की प्रक्रिया में पुष्प के रजो- कणों की (रजोगुण के कणों की) गतिविधियों को वेग प्राप्त होता है । इस वेग के कारण निर्मित घर्षणयुक्त तथा उष्म ऊर्जा-तरंगों के कारण कली पुष्प बनती है । इससे पुष्प के रंगकण तथा गन्धकण प्रकट अवस्था में आते हैं, अर्थात सक्रिय होेते हैं । रजोकणों की गतिविधियों के कारण गन्ध तथा रंग के कणों से वातावरण में प्रक्षेपित तरंगों द्वारा विशिष्ट देवता का तत्त्व ब्रह्माण्ड से पुष्प की ओर आकर्षित होता है । देवता के चैतन्य से पूरित खिले पुष्प देवताओं को चढाने से देवता प्रसन्न होते हैं और जीव को चैतन्य प्रदान करते हैं । इसके विपरीत जब पुष्प सूखता है, तब उसके रजोकणों की गतिविधि मन्द होती है व उसकी सजीवता का लय होने लगता है । इसलिए उसके गन्ध तथा रंग कणों की कार्यक्षमता भी घट जाती है और वे मृत हो जाते हैं । इसलिए ऐसे सूखे या पेडसे झडे पुष्प और कलियों के रंगकण तथा गन्धकण की अकार्यक्षमता के कारण, वे ब्रह्माण्ड में विद्यमान विशिष्ट देवता की चैतन्य तरंगों को आकर्षित करने में असमर्थ सिद्ध होते हैं । इसलिए उनपर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की अथवा काले आवरण की परत बनने की सम्भावना सर्वाधिक होती है । देवताओं को ऐसे चैतन्यरहित पुष्प अर्पित करने से जीव को चैतन्य का लाभ अत्यल्प होता है । इसलिए कलियां तथा सूखे अथवा पेडसे झडे पुष्प देवता को अर्पित न करें ।
देवता को अर्पित किए जानेवाले पुष्प क्यों न सूंघें ?
पुष्पों में देवताओं का तत्त्व आकर्षित तथा प्रक्षेपित करने की क्षमता होती है । जब जीव पुष्प सूंघता है, तब जीव की गन्धरूप वासना से सम्बन्धित इच्छाशक्ति उच्छवास के द्वारा पुष्प की सूक्ष्म कक्षा में प्रविष्ट हो जाती है । इससे पुष्प की कार्य करने की क्षमता मन्द हो जाती है । सूंघे गए पुष्प में प्राकृतिक रूपसे विद्यमान सत्त्व भी न्यून हो जाता है । ऐसे पुष्प मूर्ति पर चढाने से मूर्ति रज-तमसे आवेशित होने की आशंका रहती है । इसलिए भक्तों के लिए मूर्ति में आकृष्ट चैतन्यकणों के प्रक्षेपण में बाधा आती है । परिणामस्वरूप समष्टि में (समाज में) चैतन्य का अल्प प्रक्षेपण होता है । इसी कारण देवताओं को चढाए जानेवाले पुष्प सूंघना एक प्रकार का अपराध सिद्ध होता है ।
सूर्यास्त के उपरांत कलियां क्यों नहीं तोडते ?
ब्राह्ममुहूर्त पर (सूर्योदयसे ३ घंटे पूर्वकी अवधि) देवताओं के पवित्रक पृथ्वी पर अधिक मात्रा में प्रक्षेपित होते हैं । जिन पुष्पों में जिस देवता के पवित्रक आकर्षित करने की क्षमता होती है, उन्हीं पुष्पों की ओर ये पवित्रक अधिक मात्रामें आकर्षित होते हैं । सूर्यके तेजके कारण वातावरण में विद्यमान रज-तम कणों का विघटन होता रहता है । इसलिए सूर्यास्त से पूर्व का वातावरण सूर्यास्त के उपरांत के वातावरण की तुलना में अधिक सात्त्विक होता है । सूर्यास्त के उपरांत वायुमंडल में विद्यमान रज-तम की मात्रा बढती है, जिससे अनिष्ट शक्तियों का वातावरण में संचार बढता है एवं वातावरण दूषित होता है । इसलिए सूर्यास्त के उपरांत कलियां रज-तम कणों से आवेशित होती हैं एवं देवताओं के पवित्रक आकर्षित करने की उनकी क्षमता अल्प हो जाती है । इसलिए सहसा सूर्यास्त के उपरांत कलियां नहीं तोडते ।
मोगरा (बेला), जाही (एक प्रकार की चमेली), रजनीगंधा इत्यादि पुष्पों में ऐसी लगन होती है कि देवताओं के पवित्रक अधिकाधिक उनकी ओर आकर्षित हों । उन पुष्पों की कलियां सूर्यास्त से खिलना आरंभ होकर ब्राह्ममुहूर्त की आतुरता से प्रतीक्षा करती हैं । उनकी लगन के कारण देवताओं के पवित्रक उनकी ओर अधिक मात्रा में आकर्षित होते हैं । इसलिए उनकी सुगंध भी अन्य पुष्पों की तुलना में अधिक होती है एवं मन को संतुष्ट करती है ।
कुछ पुष्प (उदा. श्वेत एवं गुलाबी रंगके अडहुलके पुष्प) सूर्योदय के उपरांत भी खिलते रहते हैं । ऐसे पुष्पों में देवताओं के पवित्रक अल्प अथवा ना के बराबर होते हैं; उनमें सुगंध भी नहीं होती । देवता को ऐसे पुष्प चढाना कागद के (कागज के) पुष्प चढाने समान ही है । ऐसे पुष्प चढाने से पूजक को अधिक लाभ नहीं होता ।
तुलसी (मंजिरी), गेंदा, गुलाब, केवडा आदि पुष्प प्रतिदिन थोडे-थोडे खिलते हैं एवं वृक्ष पर अधिक दिन नवनूतन (तरो-ताजा) रहते हैं । ऐसे पुष्पों की सुगंध मंद होती है और उनमें गुरुतत्त्व को आकर्षित करने की क्षमता अधिक होती है । जहां गुरुतत्त्व कार्यरत अथवा प्रगट होता है, वहां इन पुष्पों की सूक्ष्म सुगंध पुष्पों का अस्तित्व न होते हुए भी दूरतक फैलती रहती है ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ. ‘पंचोपचार एवं षोडशोपचार पूजनका अध्यात्मशास्त्रीय आधार’ एवं ‘पूजासामग्रीका महत्त्व’