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देवता को नैवेद्य कैसे निवेदित करें ?

प्रत्येक देवता का नैवेद्य निर्धारित होता है । उस देवता को वह नैवेद्य प्रिय होता है, उदा. श्रीविष्णु को खीर अथवा सूजी का हलवा, गणेशजी  को मोदक, देवी को पायस इत्यादि । उस विशिष्ट नैवेद्य में उस विशिष्ट देवता की शक्ति अधिक आकर्षित होती है । तदुपरांत वह नैवेद्य, अर्थात प्रसाद हमारे द्वारा ग्रहण किए जाने पर उसमें विद्यमान शक्ति हमें प्राप्त होती है ।

१. देवता को नैवेद्य कैसे निवेदित करें ?

अ. नैवेद्य के पदार्थ बनाते समय मिर्च, नमक और तेल का प्रयोग अल्प मात्रा में करें और घी जैसे सात्त्विक पदार्थों का प्रयोग अधिक करें ।

आ. नैवेद्य केले के पत्ते पर परोसें ।

इ. नैवेद्य हेतु तैयार की गई थाली में नमक न परोसें ।

र्इ.  देवता को नैवेद्य निवेदित करने से पहले अन्न ढककर रखें ।

उ. नैवेद्य समर्पण में सर्वप्रथम इष्टदेवता से प्रार्थना कर देवता के समक्ष भूमि पर जलसे चौकोर मण्डल बनाएं तथा उसपर नैवेद्य का पत्ता (अथवा थाली) रखें । नैवेद्य के पत्ते का पिछला भाग (डण्ठल) देवता की ओर एवं अग्रभाग अपनी ओर रखें ।

ऊ. नैवेद्य समर्पण में थाली के सर्व ओर घडी के काण्टे की दिशा में एक ही बार (जल का मण्डल बनाएं ।) पुनः विपरीत दिशा में जल का मण्डल न बनाएं ।

ए. देवता के लिए बने नेवैद्य पर तुलसी के दो पत्तों से जल प्रोक्षण कर उनमें से एक पत्ता नैवेद्य पर रखें तथा दूसरा देवता के चरणों में चढाएं । तदुपरान्त बाएं हाथ का अंगूठा बाएं नेत्र पर तथा बाएं हाथ की अनामि का दाएं नेत्र पर रखकर नेत्र मून्द लें और पंचप्राणों से सम्बन्धित इस मन्त्र का उच्चारण करें – ‘ॐ प्राणाय स्वाहा । ॐ अपानाय स्वाहा । ॐ व्यानाय स्वाहा । ॐ उदानाय स्वाहा । ॐ समानाय स्वाहा । ॐ ब्रह्मणे स्वाहा ॥’ साथ ही नैवेद्य की सुगन्ध को दाएं हाथ की पांचों उंगलियों के सिरों से देवता की ओर प्रवाहित करें ।

एे.  तदुपरान्त ‘नैवेद्यमध्येपानीयं समर्पयामि ।’ बोलते हुए दाएं हाथ से ताम्रपात्र में अल्प मात्रा में जल छोडें तथा पुनः ‘ॐ प्राणाय…’, इस पंचप्राणों से सम्बन्धित मन्त्र का उच्चारण करें । उसके उपरान्त ‘नैवेद्यम् समर्पयामि, उत्तरापोशनम् समर्पयामि, हस्तप्रक्षालनम् समर्पयामि, मुखप्रक्षालनम् समर्पयामि’ बोलते हुए दाएं हाथसे ताम्रपात्र में जल छोडें ।

आे. नैवेद्य निवेदित करते समय ऐसा भाव रखें कि ‘हमारे द्वारा अर्पित नैवेद्य देवतातक पहुंच रहा है तथा देवता उसे ग्रहण कर रहे हैं ।’

आै. नैवेद्य निवेदित कर वह सारे अन्न में मिला दें । परिणाम स्वरूप इस अन्न को ग्रहण करनेवाले सभी लोगों को उसका लाभ होता है ।

२. नैवेद्य के लिए बनाया गया अन्न कैसे हो ?

अ. नैवेद्य की थाली में नमक क्यों नहीं परोसना चाहिए ?

नमक, पृथ्वी तथा आप तत्त्वों से सम्बन्धित है । इसलिए उसमें रज-तमात्मक तरंगें आकर्षित करने की क्षमता अधिक होती है । अतः नैवेद्य की थाली में नमक न परोसें ।

आ. नैवेद्य के लिए सात्त्विक पदार्थ क्यों बनाते हैं ?

नैवेद्य के पदार्थों में मिर्च, नमक और तेलका प्रयोग अल्प करें; क्योंकि ये पदार्थ राजसिक-तामसिक हैं । घी का प्रयोग अधिक करें; क्योंकि यह सात्त्विक है । इससे अन्य पदार्थ भी सात्त्विक बनते हैं । नैवेद्य के लिए बनाई गई थाली में अधिकाधिक सात्त्विक पदार्थ परोसें; क्योंकि ऐसे पदार्थों में देवताओं से आशीर्वादात्मक रूप में प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगें ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है ।

३. देवता को नैवेद्य चढाने के लिए केले के पत्ते का उपयोग क्यों करें ?

केले के पत्ते के रंगकणों से प्रक्षेपित सूक्ष्म तरंगों का संबंध आपतत्त्व से अधिक है । इन रंगकणों की सूक्ष्म गतिविधियों से उत्पन्न नाद, घंटी से उत्पन्न सूक्ष्म नाद से साधर्म्य दर्शाता है । ब्रह्मांड के आकाशतत्त्व से संबंधित आवश्यक विशिष्ट उच्च देवताओं की तत्त्व-तरंगें, सूक्ष्म नाद के कारण केले के पत्ते की ओर शीघ्र आकर्षित होती हैं । केले के पत्ते में विद्यमान आपतत्त्व से संबंधित रंगकण उच्च देवता के तत्त्व को प्रवाहित करते हैं एवं पत्ते पर परोसे नैवेद्य में देवता के उच्च तत्त्व को संक्रमित करते हैं । इस प्रकार चढाए गए नैवेद्य को ग्रहण करने से, जीव के प्राणदेह की तथा प्राणमयकोष की शुद्धि एक साथ होती है ।

४. देवता को नैवेद्य निवेदित करते समय नैवेद्य का पत्ता कैसे रखें और उसका क्या कारण है ?

देवता को केले के पत्ते पर नैवेद्य अर्पित करते हैं । केले के पत्ते के अग्रभाग में सात्त्विक तरंगें प्रक्षेपित करने की क्षमता डण्ठल की तुलना में अधिक होती है । पत्ते के अग्रभाग से सात्त्विक तरंगें फुहारे समान निकलती हैं । फुहारे समान प्रक्षेपित इन तरंगों के कारण जीव के आसपास के वातावरण में रज-तम की मात्रा अल्प होने में सहायता मिलती है । इसलिए देवता को नैवेद्य अर्पित करते समय नैवेद्य के पत्ते के डण्ठल को देवता की ओर तथा अग्रभाग को अपनी ओर रखते हैं ।

५. तुलसी दल से देवता को नैवेद्य क्यों अर्पित करते हैं ?

तुलसी वायुमण्डल में विद्यमान सात्त्विकता को खींचने में तथा उसे प्रभावी रूप से जीव की ओर प्रक्षेपित करने में अग्रसर होती है । ब्रह्माण्ड में विद्यमान कृष्णतत्त्व खींचने की क्षमता भी तुलसी में अधिक होती है । तुलसीदल से नैवेद्य दिखाने से सात्त्विक अन्न से प्रक्षेपित सूक्ष्म तरंगें तुलसीदल द्वारा ग्रहण की जाती हैं । तदुपरान्त सूक्ष्म तरंगों से युक्त तुलसीदल देवता को अर्पित करने से देवता का तत्त्व उन तरंगों को शीघ्र ग्रहण करता है । इस प्रकार हमारे द्वारा अर्पित अन्न तुलसीदल के माध्यम से देवता तक शीघ्र पहुंचता है तथा देवता को शीघ्र सन्तुष्ट करने में सहायक होता है ।

६. पूजा के समय अथवा भोजन से पहले नैवेद्य निवेदित करते

समय नैवेद्यपात्र के सर्व ओर जल कितनी बार, किस प्रकार तथा क्यों घुमाते हैं ?

नैवेद्य अर्पित करते समय थाली के सर्व ओर एक ही बार दक्षिणावर्त जल घुमाएं (मण्डल बनाएं) । विपरीत दिशा में जल न छिडकें; क्योंकि
इससे ब्रह्माण्ड में विद्यमान सुप्त तिर्यक् (रज-तम) तरंगें सक्रिय होती हैं । थाली के सर्व ओर इन कष्टदायक तरंगों का गतिमान कवच बनता है, जिससे प्रक्षेपित तरंगों के कारण जीवके प्राणमयकोष में तमोगुण बढता है तथा जीव अस्वस्थ हो जाता है ।

लाभ

अ. अतृप्त लिंगदेहों तथा कनिष्ठ अनिष्ट शक्तियों द्वारा नैवेद्य ग्रहण न कर पाना : देवता को नैवेद्य दिखाते समय जीव की मनःशक्ति की पर्याप्त जागृति न होने पर अन्न से प्रक्षेपित आकर्षण तरंगें जीव की मनःशक्ति की एकत्रित ऊर्जा के प्रक्षेपण के अभाव में आडी-तिरछी पद्धति से गतिमान होती हैं । जिन अतृप्त लिंगदेहों में अन्न की वासनात्मक इच्छा है, वे अन्न से प्रक्षेपित आकर्षणतरंगों के माध्यम से आकृष्ट होकर नैवेद्य ग्रहण करती हैं । ऐसे में अन्न तमकणों से आवेशित होने की आशंका रहती है । इससे बचने के लिए देवता को नैवेद्य निवेदित करते समय प्रथम जल सेे मण्डल बनाएं । यह दक्षिणावर्त बनाने से अन्न से प्रक्षेपित आकर्षणतरंगें इस मण्डल में गतिमान होकर आपतत्त्व के आच्छादनात्मक ऊर्ध्वगामी प्रक्षेपण से ऊपर की दिशा की ओर गतिमान होने लगती हैं । इससे कनिष्ठ अनिष्ट शक्तियों के लिए यह अन्न ग्रहण करना सहज सम्भव नहीं होता ।

आ. अन्न के माध्यम से अनिष्ट शक्तियों द्वारा सम्भावित कष्ट घट जाना : थाली के सर्व ओर बनाए मण्डल से प्रक्षेपित तरंगें थाली के नीचे केन्द्रबिन्दु की ओर प्रवाहित होती हैं, इसलिए केन्द्रबिन्दु में विद्यमान विशिष्ट देवता की अप्रकट शक्ति जागृत होती है तथा केन्द्रबिन्दु से पुनः वातावरण में प्रक्षेपित की जाती है । इससे थाली पर सूक्ष्म सात्त्विक तरंगों का आच्छादन बन जाता है और अन्न ग्रहण करते समय वातावरण की अनिष्ट शक्तियों द्वारा प्रक्षेपित काली तरंगों का अन्न के माध्यम से देह में फैलाव अवरुद्ध होता है । जल से प्रक्षेपित सात्त्विक
तरंगों से अन्न पर आया रज-तमात्मक तरंगों का काला आवरण भी अल्प-अधिक मात्रा में दूर होता है ।

इ. देह में सात्त्विकता शीघ्र फैल जाना : इस प्रकार हमें सात्त्विक अन्न ग्रहण करने का लाभ मिलता है । ऐसे सात्त्विक अन्न से प्रक्षेपित तरंगों से निर्मित सूक्ष्म वायु देह की कोशिकाओं द्वारा शीघ्र ग्रहण की जाती है । इस प्रकार अन्नग्रहण से निर्मित सात्त्विकता जीव की देह में शीघ्र फैल जाती है ।

७. देवता को नैवेद्य अर्पित करते समय नेत्र क्यों मून्द लें ?

अन्न देखने से उसे ग्रहण करने की वासना जागृत होती है । देवता को वासनारहित शुद्ध नैवेद्य अर्पित हो, इसके लिए देवता को नैवेद्य अर्पित करते समय नेत्र मूंद लें ।

८. देवता द्वारा नैवेद्य कैसे एवं कितने अवधि में ग्रहण किया जाता है ?

देवता प्रथम स्वयं में विद्यमान आकाशतत्त्व जागृत करते हैं; क्योंकि उससे अन्य तत्त्वों के जागृत होने में सहायता मिलती है । तत्पश्‍चात आवश्यकतानुसार वायु तथा तेज तत्त्व जागृत होते हैं । जागृत हुए इन तत्त्वों के माध्यम से देवता नैवेद्य ग्रहण कर पाते हैं ।

अ. प्रतिमा के सामने नैवेद्य रखने पर देवता उसे वायुतत्त्व द्वारा ग्रहण करते हैं ।

आ. यज्ञ-हवन के समय अग्नि प्रज्वलित होने से देवता उनमें जागृत हुए तेजतत्त्व की सहायता से नैवेद्य ग्रहण करते हैं ।
देवताओं के सूक्ष्म स्पर्श से नैवेद्य का रूपान्तरण प्रसाद में होता है ।

देवताओं को नैवेद्य ग्रहण करने में कुछ ही सेकण्ड लगते हैं ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ. ‘पंचोपचार एवं षोडशोपचार पूजनका अध्यात्मशास्त्रीय आधार’ एवं ‘पूजासामग्रीका महत्त्व