ताम्रपात्र, पूजा की थाली, नीरांजन, घण्टी, दीपस्तम्भ इत्यादि देवता पूजन के लिए आवश्यक उपकरण हैं । पूजाविधि से देवता की कृपा प्राप्त
करने में ये एक महत्त्वपूर्ण सेतु हैं । देवता पूजन आरम्भ करने से पूर्व इन उपकरणों की संरचना विशिष्ट पद्धति से करने पर, तदुपरान्त पूजाविधि से देवता के तत्त्व का लाभ अधिक मात्रा में क्यों एवं कैसे मिलता है, इसका भी अध्यात्मशास्त्रीय विश्लेषण इस लेख में किया गया है ।
१. देवता पूजन के घटक एवं उपकरणों की संरचना का आधारभूत तत्त्व
देवता पूजन में उपकरणों की अथवा अन्य घटकों की रचना पंचतत्त्वों के स्तर पर आधारित है । वह जीव की, ‘माया से ब्रह्म’ एवं पृथ्वी से
आकाश तक के पंचतत्त्वों से संबंधित यात्रा दर्शाती है ।
पूजाघरकी संरचना का स्तर |
संरचनाके घटक / उपकरण | संबंधित तरंगें | सूक्ष्म तरंगों का स्तर | किस का प्रतीक ? |
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प्रथम | १. नैवेद्य का पत्ता
२. पूजा की थाली |
पृथ्वी एवं आप | स्थूल सगुण | जीवदशा |
द्वितीय (मध्य भाग) | १. कलश
२. जलपात्र एवं आचमनी |
आप | सगुण | जीवदशा से जीवात्मा-दशा की ओर जीव की यात्रा |
तृतीय | १. नीरांजन व अगरबत्ती
२. घीका दीप ३. कर्पूर- आरती ४. नारियल |
तेज | सगुण-निर्गुण | जीवात्मा-दशा |
चौथा | १. शंख (मारक नादशक्ति)२. घण्टी (तारक नादशक्ति) |
वायु एवं आकाश | निर्गुण-सगुण | शिवदशा |
पांचवा | १. दीपस्तम्भ
२. पूजाघर |
आकाश एवं तेज | निर्गुण-सगुण | शिवदशा |
उक्त सम्पूर्ण रचना ब्रह्माण्ड में कार्यरत सगुण पंचतत्त्वों का स्तर दर्शाती है ।
टिप्पणी १ – आकाश तत्त्व में सर्व तत्त्वों का एकत्रीकरण होता है । अतएव पूजाघर के ऊपरी नुकीले भाग से प्रक्षेपित तरंगें जीव की आवश्यकता अनुसार विशिष्ट पंचतत्त्वों की सहायता से प्रकट होकर जीव के लिए कार्य करती हैं ।
उपर्युक्त संरचना एवं आकृति में नैवेद्य का पत्ता दर्शाया गया है, जो केवल जीव की दशा के प्रतीक स्वरूप है । प्रत्यक्ष संरचना में नैवेद्य का पत्ता न रखें । पूजा के उपरान्त ही नैवेद्य निवेदित किया जाता है । उक्त संरचना कर लेने पर प्रत्यक्ष पूजा आरम्भ करते समय पूजा की थाली को सरकाकर पंचपात्र-आचमनी को उसकी दाहिनी ओर रखें । इससे पूजा करना अधिक सुविधाजनक होता है ।
२. देवता पूजन के घटक एवं उपकरणों की संरचना का स्तर (नीचे से ऊपर पूजाघर की दिशा में)
अ. प्रथम स्तर (नैवेद्य का पात्र एवं पूजा की थाली)
१. केले के पत्ते पर परोसा नैवेद्य (भोग प्रसाद) : यह जीव की प्रत्यक्ष स्थूलदशा अर्थात जीवदशा का द्योतक है । पूजाविधि में अन्तिम उपचार है, नैवेद्य अर्पण करना । इस समय देवता के प्रति जीव पूर्णतः शरणागत होता है । इस कारण नैवेद्य की थाली को अधोदिशा में स्थान दिया गया है । देवता को नैवेद्य अर्पित करने से उच्च देवता, वास्तु देवता एवं स्थान देवताओं को शीघ्र सन्तुष्ट करना सम्भव होता है ।
२. पूजा की थाली : उपास्यदेवता की मूर्ति के सामने मध्य में थाली रखें ।
अ. थाली में जीव (पूजक)की दाहिनी ओर हलदी कुमकुम (रोली) और बार्इं ओर बुक्का (अभ्रक धातु का चूर्ण), गुलाल तथा सिन्दूर रखें ।
आ. थाली में सामने इतर की (इत्रकी) शीशी, चन्दन की थाली एवं पुष्प, दूर्वा एवं पत्री रखें; क्योंकि इतर, चन्दन एवं पुष्पों के गन्ध-कणों की ओर तथा दूर्वा एवं पत्री के रंग-कणों के माध्यम से देवताओं की सूक्ष्म तरंगें कार्यरत होती हैं ।
इ. थाली की अधोदिशा में पान-सुपारी तथा दक्षिणा रखें; क्योंकि पान-सुपारी देवताओं की तरंगों के प्रक्षेपण का प्रभावशाली माध्यम है ।
र्इ. सबसे मध्य में सर्वसमावेशक अक्षत (अखण्डित चावल) रखें । अक्षत थाली का केन्द्र बिन्दु है, इसलिए उनकी ओर शिव, श्री दुर्गादेवी, श्रीराम, श्रीकृष्ण एवं श्री गणेश, इन पांच उच्च देवताओं की तत्त्वतरंगें आकृष्ट होती हैं तथा आवश्यकतानुसार थाली में चारों ओर गोलाकार में स्थापित कुमकुम, हलदी आदि घटकों की ओर प्रक्षेपित होती हैं ।
आ. द्वितीय स्तर – जल से सम्बन्धित उपकरण – कलश, जलपात्र एवं आचमनी
ये उपकरण मध्य भाग में रखें; क्योंकि जल निर्मल एवं शुद्ध होता है, इसलिए देवता की निर्गुण तरंगों को अधिकाधिक ग्रहण कर सकता है । इसीको ‘पूजारचना की सगुण मध्यनाडी अर्थात सुषुम्ना’ कहते हैं; क्योंकि कलश में रखा जल पूजाविधि के पंचतत्त्वों का उचित सन्तुलन
बनाए रखता है । सामान्यतः मध्य में ताम्रपात्र रखकर उसमें जीव की बार्इं ओर जल का कलश (प्रत्यक्ष देवता की कार्यरत शक्ति, दाहिनी नाडी) एवं जीव की दाहिनी ओर प्रत्यक्ष विधि में प्रयुक्त जलपात्र, आचमनी इत्यादि उपकरण रखें ।
इ. तृतीय स्तर
१. नीरांजन एवं अगरबत्ती : जीव की दाहिनी ओर रखें ।
२. घी का दीप : जीव की बार्इं ओर रखें ।
३. कर्पूर-आरती : घी के दीप के पास रखें । कर्पूर-आरती द्वारा प्रक्षेपित मारक गन्ध-तरंगों के कारण वातावरण की शुद्धि होती है; इसलिए कर्पूर-आरती का स्थान जीव की बार्इं ओर अर्थात देवता की दाहिनी ओर (मारक तत्त्व) है ।
४. नारियल : देवता के बिलकुल समीप एवं सामने, मध्यभाग में नारियल रखें । नारियल की शिखा आकाश की दिशा में हो । इससे पूजा विधि द्वारा कार्यरत हुई, ब्रह्माण्ड में विद्यमान देवता की तरंगें नारियल की शिखा की ओर आकृष्ट होती हैं । तत्पश्चात वातावरण में फुवारे के समान प्रक्षेपित किए जाने के कारण, वे वातावरण के शुद्धीकरण में सहायक होती हैं ।
र्इ. चतुर्थ (चौथा) स्तर
१. शंख (देवता की कार्यरत मारक शक्ति, देवता की दाहिनी नाडी) : जीव की बार्इं ओर शंख रखें ।
२. घण्टी (देवता की कार्यरत तारक शक्ति, देवता की बार्इं नाडी) : जीव की दाहिनी ओर घण्टी रखें । (टिप्पणी – प्रचलित धर्मशास्त्रानुसार जीव की दाहिनी ओर शंख एवं बार्इं ओर घण्टी रखें । – संकलनकर्ता)
उ. पंचम (पांचवां) स्तर
१. दीपस्तम्भ : पूजाघर के दोनों ओर समान लम्बाई के दीपस्तम्भ रखें । उनमें यथाक्षमता तिल का तेल डालें । घी की अपेक्षा तिल के तेल में रजोगुण अधिक होता है । यह देवता की सक्रिय क्रियाशक्ति का दर्शक है । ये दीपस्तम्भ देवता की चन्द्र एवं सूर्यनाडी के प्रतीक हैं ।
देवता तेजतत्त्व से अधिक सम्बन्धित होने से उनके प्रतीकस्वरूप पूजाघर के दोनों ओर दीपस्तम्भ रखते हैं ।
२. पूजाघर : इस विषय में जानकारी इस लेख में दिए गए हैं ।
३. देवता पूजन के घटकों व उपकरणों की संरचना पंचतत्त्वों के स्तरानुसार किए जाने से संभावित लाभ
१. पंचतत्त्वों का उचित सन्तुलन एवं नियमन किया जाता है तथा जीव को देवताओं द्वारा प्रक्षेपित सगुण एवं निर्गुण तरंगों का अधिकाधिक लाभ मिल पाता है ।
२. पूजापूर्व प्रार्थना कर देवताओं के आवाहन से ब्रह्माण्ड में विद्यमान उस विशिष्ट देवता की कार्यरत तरंगों के लिए, पंचतत्त्वों की सहायता से सगुण स्वरूप धारण करना सरल होता है । देवताओं की कार्य-तरंगें विशिष्ट पंचतत्त्वसम्बन्धी पूजा के घटकों की ओर आकृष्ट होती हैं । इसलिए पूजाविधि का प्रत्येक घटक, देवताओं के आवश्यक विशिष्ट पंचतत्त्वसम्बन्धी तरंगों से पूरित होता है । इन आवेशित घटकों के कारण पूजा स्थल के आसपास का वायुमण्डल भी शुद्ध होता है । वायुमण्डल की कक्षा में खडे जीव की देह भी इन तरंगों के कारण सात्त्विक बनती है । पहले से ही जीव के सात्त्विक बनने तथा पूजा के सर्व उपकरण भी सात्त्विक तरंगों से युक्त हो जाने के कारण प्रत्यक्ष पूजा विधि द्वारा देवता से प्रक्षेपित तरंगों का जीव को अधिकाधिक लाभ मिलता है ।
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘पूजाघर एवं पूजाके उपकरण’