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देवता पूजन में प्रयुक्त उपकरणों का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व

ताम्रपात्र, पूजा की थाली, नीरांजन, घण्टी, दीपस्तम्भ इत्यादि देवता पूजन के लिए आवश्यक उपकरण हैं । देवता पूजन के उपकरण देवताओं की प्रत्यक्ष सगुण तरंगों को जीवों तक पहुंचाने का उत्तम माध्यम हैं । पूजाविधि से देवता की कृपा प्राप्त करने में ये एक महत्त्वपूर्ण सेतु हैं । देवता पूजन देवता पूजन के उपकरणों का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व समझ लेने पर उनके प्रति भाव उत्पन्न होने  में सहायता मिलती है । इसलिए इस लेख में देवतापूजन के उपकरणों का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व एवं विशेषताएं दी हैं ।

१. कलश

१. समुद्रमन्थन के समय श्रीविष्णु ने अमृत कलश धारण किया था । कलश में सर्व देवताओं का वास होता है, इसलिए पूजा में कलश की स्थापना की जाती है ।

२. कलश के विशिष्ट आकार के कारण उसके भीतर वायु-रिक्ति में एक विशिष्ट सूक्ष्म-नाद उत्पन्न होता है । इस सूक्ष्म-नाद के कम्पनों के कारण ब्रह्माण्ड में विद्यमान शिवतत्त्व कलश की ओर आकर्षित होता है । इस प्रक्रिया में कलश द्वारा प्रक्षेपित सूक्ष्म-नादतरंगों से
जीव को शिवतत्त्व का अधिक लाभ होता है ।

अ. देवताओं के लिए आसनस्वरूप प्रयुक्त कलश में जल ही क्यों भरें ?

जल शुद्ध है तथा ‘जितनी शुद्धि अधिक, ईश्वरीय तत्त्व आकर्षित करने की क्षमता भी उतनी ही अधिक’ । इस नियमानुसार कलश के जल में आसन के पर्ण में (कलश में रखने हेतु आम अथवा पान के पत्तों में) देवता का तत्त्व प्रचूर मात्रा में आकर्षित होता है । कलश के जल के कारण, देवता को बैठने के लिए दिया गया आसन देवता की प्राणप्रतिष्ठापना तक स्थायी रूप से शुद्ध ही रहता है । इसलिए प्रविष्ट देवता का तत्त्व दीर्घकाल तक वहां रह सकता है ।

आ. नारियल रखकर देवता को स्थापित करने हेतु प्रयुक्त कलश में सुपारी अथवा सिक्के क्यों रखते हैं ?

१. कलश में सुपारी रखना : जल में सुपारी डालने से सुपारी द्वारा प्रक्षेपित रजो-तरंगों के कारण जल सत्त्व-रजोगुणी बनता है । इससे जल की देवता के सगुण तत्त्व को प्रक्षेपित करने की क्षमता बढती है । सुपारी में पृथ्वीतत्त्व से संबंधित कण, जल के निर्गुण तत्त्व से संबंधित
सत्त्वकणों को बांधने में सहायक होते हैं । स्वाभाविक ही जल की सात्त्विकता अधिक समयतक बनी रहती है ।

२. कलश में पंचरत्न एवं स्वर्ण रखना : पंचरत्नों में ब्रह्माण्ड के विशिष्ट पांच उच्च देवताओं के सगुण तत्त्व को ग्रहण तथा प्रक्षेपित करने की क्षमता अधिक होती है । स्वर्ण सात्त्विक (सत्त्वगुणी) है, इसलिए उसमें भी सत्त्वकणों को आकृष्ट एवं प्रक्षेपित करने की क्षमता अधिक होती है । पंचरत्न एवं स्वर्ण के कारण जीव को ब्रह्माण्ड के पांच उच्च देवताओं के सगुण तत्त्वों का लाभ एक ही समय प्राप्त होने में सहायता मिलती है ।

३. कलश में तांबे की मुद्रा रखना : तांबा धातु में सात्त्विक तरंगें प्रक्षेपित करने की क्षमता अधिक होती है । इस कारण कलश के जल की तरंगें तांबे की मुद्रा के माध्यम से वातावरण में प्रक्षेपित होने में सहायता मिलती है । उसी प्रकार कलश में मुद्रा डालने के माध्यम से धन का त्याग होकर जीव के मन में विद्यमान धन सम्बन्धी आसक्ति घटकर पूजाकर्म से जीव को अधिक सात्त्विकता प्राप्त होती है । कालानुसार अब पंचरत्न एवं तांबे का प्रयोग घट गया है और अल्प लाभदायी मिश्रधातु का प्रयोग होने लगा है ।

ई. कलश पर नारियल रखना : कलश पर नारियल रखने से नारियल की शिखा द्वारा ब्रह्माण्ड में विद्यमान विशिष्ट उपास्यदेवता का तत्त्व आकृष्ट होता है एवं वह नारियल द्वारा कलश के जल में संक्रमित होता है । इस संक्रमण-प्रक्रिया में कलश के जल में देवताओं की तरंगों की लहरें एक नियमित लयमें उठती हैं । ये लहरें अति सूक्ष्म होती हैं । प्रचूर निर्मलता एवं शुद्धि के कारण देवता की तरंगों के सत्त्वकणों को जल अधिकाधिक ग्रहण करता है; परन्तु रजोगुण की मात्रा अल्प होने के कारण सगुण तत्त्व प्रक्षेपित करने की क्षमता उसमें अल्प होती है ।

इ. देवताओं के लिए रखे आसन स्वरूप कलश के जल को तुलसी में क्यों डालते हैं और वास्तु में क्यों छिडकते हैं ?

अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण के शुद्ध स्पन्दन आकृष्ट करने की क्षमता अधिक होती है । शुद्ध अर्थात सत्त्वगुण अधिक । साथ ही तुलसी चौबीसों घण्टे वातावरण में शुद्ध स्पन्दन ही प्रक्षेपित करती है । कलश के चैतन्य से आवेशित जल को तुलसी में डालने से तुलसी जल के साथ देवताके तत्त्वको भी सोख लेती है । तुलसीद्वारा अपनी सात्त्विकताके साथ देवताके चैतन्यका भी वातावरणमें प्रक्षेपण होता है । इसलिए देवता के लयकारी (लयबद्ध) स्पन्दनों के मण्डल बनते हैं एवं वास्तु तथा वास्तु के परिसर की शुद्धि बनी रहती है । एक प्रकार से यह ईश्वर का सुरक्षा-कवच ही होता है । उसी प्रकार कलश के जल को वास्तु में सर्वत्र छिडकने से वास्तु में देवता के स्पन्दन अधिक मात्रा में प्रक्षेपित होते हैं तथा वास्तु का शुद्धीकरण भी होता है ।

२. थाली

नीरांजन रखने हेतु प्रयुक्त आरती की थाली अपने शरीर के पंचप्राणों का प्रतीक है । आरती करते समय जीव का भाव ऐसा हो कि पंचप्राणों की सहायता से वह ईश्वर की आरती उतार रहा है ।

३. घण्टी

अ. घण्टीनाद (एवं शंखनाद का) महत्त्व

घण्टी के लोलक एवं विशिष्ट आकार के कारण लोलक की ओर भूमि-तरंगें आकृष्ट होती हैं । ये तरंगें विशिष्ट आकारमें घनीभूत होती हैं । जब घण्टीनाद किया जाता है, तब घण्टी में घनीभूत वायुमण्डल की तरंगों में कम्पन निर्मित होते हैं एवं इनसे उत्पन्न नादशक्ति की ओर ब्रह्माण्ड का शिवतत्त्व आकृष्ट होता है । इस प्रकार घण्टी के नाद से ब्रह्माण्ड में विद्यमान शिवतत्त्व जागृत होता है । शिवतत्त्व से सम्बन्धित इन रजोगुणी मारक नाद-तरंगों के कारण पाताल से प्रक्षेपित कष्टदायक तरंगों में विद्यमान रज-तम कणों का विघटन होता है ।घण्टीनाद के कारण भूमि के आसपास, अधोगामी दिशा में कार्यरत वायुमण्डल की शुद्धि होती है, जबकि शंखनाद से ऊध्र्वदिशा में कार्यरत वायुमण्डल की तरंगों का शुद्धिकरण होता है । इसलिए पूजाविधि में शंखनाद एवं घण्टीनाद का अत्यन्त महत्त्व है । घण्टीनाद और शंखनाद के कारण जीव के आसपास का वायुमण्डल उसकी साधना के लिए सात्त्विक बनता है । इसके परिणाम स्वरूप देवता से प्रक्षेपित होनेवाली सात्त्विक तरंगें जीव द्वारा अधिकाधिक मात्रा में ग्रहण की जाती हैं ।

आ. घण्टीनाद के समय सूक्ष्म से होनेवाले लाभ

१. ईश्वर की पूजा में आकृष्ट स्पन्दन निर्गुण स्वरूप में होते हैं । घण्टीनाद से देवता के ये स्पन्दन सगुण-निर्गुण स्वरूप में परिवर्तित होकर श्रद्धालुओं को प्राप्त होते हैं ।

२. वातावरण में कष्टदायक शक्तियों द्वारा निर्मित तमोगुणी तरंगें घण्टीनाद से दूर होते हैं । साथ ही, चैतन्य का स्त्रोत सूर्यप्रकाश के समान श्रद्धालुओं की ओर आता है ।

३. घण्टी के हिलने से वायुतत्त्व, तथा उसके नाद से आकाशतत्त्व कार्यरत होता है ।

४. घण्टीनाद से ‘णं’ यह बीजमन्त्र सुनाई देता है ।

५. व्यक्ति द्वारा भावपूर्ण घण्टीनाद किए जाने पर उससे सत्त्वप्रधान स्पन्दन तथा भावपूर्ण घण्टीनाद न करने पर सत्त्वप्रधान घण्टी से भी रजोगुणी स्पन्दन प्रक्षेपित हो सकते हैं ।

४. शंख

अ. शंख का महत्त्व

अ. पूजा एवं आरती के पूर्व शंखनाद करते हैं । शंखनाद के लिए बाएं शंख का प्रयोग करते हैं । (शंख पर विद्यमान कुण्डलों के अनुसार शंख के दो प्रकार होते हैं – दाहिना (वामवर्त) एवं बायां (दक्षिणावर्त) ।)

आ. देवता पूजन के पूर्व और कलश की पूजा उपरान्त शंख पूजा कर उसपर चन्दन, पुष्प, तुलसीपत्र चढाते हैं एवं तदुपरान्त पुष्प से शंखोदक स्वयं (पूजक) पर तथा पूजासामग्री पर छिडकते हैं । शंख के जल को गंगाजल समान पवित्र माना जाता है । शंखोदक का उपयोग
देवताओं के अभिषेक में भी किया जाता है ।

इ. शंख, ईश्वर की प्रकट मारक शक्ति का द्योतक है ।

आ. शंख की परीक्षा कैसे करें ?

शंख बजाए बिना कानसे लगाने पर, सुनाई देनेवाली मधुर ध्वनि के आधार पर शंख की वास्तविकता को परखा जा सकता है ।

इ. पूजा में रखे शंख का संकीर्ण भाग देवता की ओर क्यों होना चाहिए ?

‘शंख में संकीर्ण होते गए रिक्त स्थान में देवताओं से प्रक्षेपित शक्ति का संचय होने में सहायता मिलती है । जीव के भाव अनुसार, जब देवताओं से प्रक्षेपित सगुण शक्ति का संचय प्रकट होता है, उस समय शक्ति-संचय की तरंगों का रूपान्तर वेगवान एवं किरणरूपी मारक तरंगों में होता है । यह मारक शक्ति शंख की दूसरी ओर से बाहर निकलती है तथा वातावरण में इन किरणों का रूपान्तर वलयित तरंगों में होता है, जिनकी व्याप्ति एवं वातावरण में प्रभाव की अवधि किरणों की तुलना में अधिक होती है । किरणों के रूप में निकलनेवाली ऊर्जा में मारक तत्त्व अधिक होता है । जीवों को इस ऊर्जा से कष्ट न हो, इसलिए पूजा में शंख के संकीर्ण भाग को देवता की ओर रखते हैं । इससे आवश्यकता के अनुसार शंख के छेद से निकलनेवाली वलयित तरंगों द्वारा घर में ईश्वरीय मारक चैतन्य की मात्रा के बने रहने में सहायता मिलती है । शंख से प्रक्षेपित इस मारक ऊर्जा के कारण अनिष्ट शक्तियां शंख से कांपती हैं ।

र्इ. पूजाविधि में शंखनाद क्यों महत्त्वपूर्ण है ?

शंखनाद से निर्गमित (निकलनेवाली) नादशक्ति के द्वारा ऊध्र्व (ऊपरकी) दिशा से प्रक्षेपित ब्रह्माण्ड की सूक्ष्मतर तरंगें जागृत होती हैं तथा अल्पावधि में वातावरण में विद्यमान रज-तम कणों का विघटन होता है । इससे ऊध्र्वदिशा में कार्यरत वायुमण्डल की तरंगों का शुद्धिकरण होता है । घर में शंखनाद करने से वातावरण शुद्ध एवं पवित्र बनता है । उसी प्रकार शंखनाद से जीव के आसपास का वायुमण्डल उसकी साधना के लिए सात्त्विक बनाया जाता है । इससे देवता से प्रक्षेपित होनेवाली सात्त्विक तरंगें जीव के द्वारा अधिकाधिक मात्रा में ग्रहण करने में सहायता मिलती है ।

५. दीप एवं नीरांजन

नीरांजन की ज्योति हमारी आत्मज्योति का प्रतीक है । जीव में ऐसा भाव होना आवश्यक है कि ‘मेरे शरीर में विद्यमान पंचप्राणों की सहायता से यह आत्मज्योत मुझमें प्रज्वलित है तथा ऐसी ज्योति से मैं देवता की आरती उतार रहा हूं ।’

पांच दलयुक्त नीरांजन पंचप्राणों का आत्मज्योति से सम्बन्ध दर्शाता है । पंचप्राणों सहित की गई ईश्वर को गुहार अर्थात पंचारती’ ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘पूजाघर एवं पूजाके उपकरण