हममें से अधिकतर लोग देवता के दर्शन हेतु देवालय जाते हैं । दर्शन का सर्वाधिक लाभ मिले इस हेतु व्यक्ति को देवता की परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए । हाथों को नमस्कार मुद्रा में रख गर्भ गृह के बांए से सामान्य गति से भगवान का नामजप करते हुए परिक्रमा करना चाहिए । प्रदक्षिणा के उपरांत कृतज्ञता व्यक्त करने के उपरांत ही अगली परिक्रमा करें ।
१. परिक्रमा करने का महत्त्व
अ. परिक्रमा करने से देवता के सर्व ओर से प्रक्षेपित विभिन्न स्पंदनों को भक्त ग्रहण कर सकता है ।
आ. परिक्रमा करने से जीव को गर्भगृह की सत्त्वतरंगों का अत्यधिक लाभ होना
देवालय के गर्भगृह में विद्यमान सत्त्वतरंगें गर्भगृह में एवं उसके आसपास गोलाकार दिशा में घूमती रहती हैं । देवालय में प्रवेश करने पर इन तरंगों का जीव पर सूक्ष्म से परिणाम होने लगता है । देवता के दर्शन करने पर जीव की सुषुम्नानाडी जागृत होने लगती है । देवता की परिक्रमा करने पर इन तरंगों का प्रभाव परिक्रमा करनेवाले पर होता है तथा उसे इन सत्त्वतरंगों का विपुल मात्रा में लाभ मिलता है ।
इ. मांत्रिकों का जीव के आस-पास निर्मित काली शक्ति का आवरण परिक्रमा करने से नष्ट होना
‘साधारणतः मांत्रिक (बलवान आसुरी शक्ति) जीव के मन तथा बुद्धि को केंद्रबिंदु कर उसके आस-पास अचक्राकार पद्धति से (परिक्रमा की विपरीत दिशा में) काली शक्ति का आवरण उत्पन्न करते हैं तथा उस आवरण को उत्तरोत्तर बढाते जाते हैं । इस कारण जीव को ईश्वरीय ऊर्जा मिलना बंद हो जाता है । जीवद्वारा चक्राकार पद्धति से परिक्रमा करने पर देवता के आस-पास विद्यमान ऊर्जा जीव के आस-पास चक्राकार दिशा में गतिमान होना आरंभ होती है ।
इसलिए जीव के सर्व ओर आया काली शक्ति का आवरण एवं ईश्वरीय शक्ति में युद्ध होता है तथा काली शक्ति का विघटन होकर वह आवरण नष्ट होता है ।’
र्इ. परिक्रमा करने से जीव के आस-पास सात्त्विक क्षेत्र
निर्मित होने पर जीव के सप्तचक्रों की बाधाएं दूर होकर उनकी जागृति में सहायता होना
‘जीवद्वारा चक्राकार पद्धति से परिक्रमा करने से जीव की ओर ऊध्र्वदिशा से ईश्वरीय चैतन्य आता है । परिक्रमा करने से जीव को देवता के चित्र अथवा मूर्ति से प्रक्षेपित ऊर्जा प्राप्त होती है । इससे जीव के आस-पास सात्त्विक क्षेत्र का निर्माण होता है । इससे जीव के सप्तचक्र में आई बाधाएं दूर होती हैं तथा उनकी जागृति में सहायक होती है ।’
उ. परिक्रमा के कारण जीव के सर्व ओर सुरक्षा-कवच का निर्माण होना
‘देवता के दर्शन से प्राप्त सगुण चैतन्य से एक बार देह की शुद्धि हो जाए, तो परिक्रमा उपरांत देवता से आज्ञा लेकर ही लौटते हैं । इससे जीव के सर्व ओर सुरक्षा-कवच निर्मित होता है, उसकी देह में चैतन्य दीर्घकालतक बना रहता है तथा अनिष्ट शक्तियों से उसकी रक्षा होती है ।’
२. परिक्रमाकी पद्धति
अ. परिक्रमासे पूर्व देवतासे प्रार्थना करना
परिक्रमा से पूर्व देवता से आत्र्तता से यह प्रार्थना करें ।
१. यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानिच ।
तानि तानि विनश्यन्ति प्रदक्षिण पदे पदे ।।
अर्थ : ‘(हे ….. (देवता का नाम लें), आपकी कृपा से) परिक्रमा करते हुए प्रत्येक पग उठाते समय मेरे पूर्वजन्म के भी पाप भस्म हो जाने दें ।’
२. ‘(हे ….. (देवता का नाम लें), आपकी कृपा से) आप से प्रक्षेपित चैतन्य को मैं अधिकाधिक ग्रहण कर पाऊं ।’
आ. देवता की दाहिनी ओर से बार्इं ओर, घडी की सुइयों की दिशा में परिक्रमा करने का महत्त्व
नित्य परिक्रमा की पद्धति है – देवता की दाहिनी ओर से बार्इं ओर परिक्रमा करना । इस पद्धति को ‘दक्षिणावर्त पद्धति’ कहते हैं ।
१. ‘परिक्रमा सदैव देवता की दाहिनी ओर से बार्इं ओर करने से परिक्रमा करनेवाले की सूर्यनाडी जागृत होती है तथा सूक्ष्म-देह की सत्त्वतरंगें एवं देवता से प्रक्षेपित अति सूक्ष्म-तरंगें ग्रहण करने की क्षमता उसमें बढती है ।’
२. परिक्रमामार्ग की इच्छा एवं क्रिया तरंगों के संक्रमण की दिशा घडी के सुइयों की दिशा में होने के कारण, परिक्रमा उसी दिशा में करना उचित : ‘परिक्रमा मार्ग में कार्यरत ब्रह्मांड की इच्छा एवं क्रिया तरंगों के संक्रमण की दिशा घडी के सुइयों की दिशा में होने के कारण परिक्रमा की पद्धति भी हमारी बार्इं ओर से दाहिनी ओर ही होती है । इसके विपरीत दिशा में परिक्रमा करने से इच्छा एवं क्रिया तरंगों के प्रवाह के विपरीत दिशा में जाने के कारण सिर का भारी होना, अस्वस्थता, अचानक स्वेद (पसीना) छूटना, थकान जैसे कष्ट होते हैं ।’
इ. नमस्कार करते हुए परिक्रमा करना
‘देवालय में परिक्रमा करते समय हाथों को नमस्कार की मुद्रा में अनाहतचक्र पर रखें । इससे देवालय की परिक्रमा-कक्षा में कार्यरत चैतन्य १० प्रतिशत अधिक ग्रहण होता है व उसके मनोमयकोष के शुद्धिकरण में सहायक है । नमस्कार करते समय आंखें मूंद लें ।’
र्इ. देवालय में परिक्रमा से पूर्व देवता के दर्शन करने के लिए गर्भगृह के बाहरी भाग के वाम (बाएं) भाग में खडे रहें तथा परिक्रमा के उपरांत कुश (दाहिने) भाग से दर्शन करें !
‘देवालय में सभामंडप के वाम भाग की ओर से प्रवेश करने पर जीव गर्भगृह के बाहर वहां से सर्वप्रथम देवता के दर्शन कर, परिक्रमा प्रारंभ करे । परिक्रमा हो जाने पर जीव गर्भगृहके बाहर कुश भागमें खडे होकर दर्शन करे । इस प्रकार देवताके दर्शनसे ईश्वरके तारक एवं मारक, दोनों रूपों की उपासना होती है एवं जीव ईश्वरीय चैतन्य सहजतासे एवं अधिक मात्रामें ग्रहण कर पाता है ।’
३. देवता की कितनी परिक्रमा करनी चाहिए ?
अ. देवता की परिक्रमा की संख्याके संदर्भ में सामान्य नियम एवं कारण
परिक्रमा की संख्याके संदर्भ में सामान्य नियम यह है कि देवताओं की परिक्रमा सम संख्या में (उदा. २, ४, ६, ८) एवं देवी की परिक्रमा विषम संख्या में (उदा. १, ३, ५, ७) करनी चाहिए । इसलिए कि शून्य अर्थात ब्रह्म, अर्थात विश्व का निर्माण करनेवाले ईश्वर । शून्य से १’का (माया का) अर्थात विश्व का निर्माण हुआ । माया स्त्रीवाचक है एवं १’अंक विषम है, अतः देवी की परिक्रमा विषम संख्या में होनी चाहिए । समसंख्या शून्य से संबंधित है; अतएव देवताओं की परिक्रमाएं समसंख्या में करनी चाहिए ।
आ. उपरोक्त नियम को प्रमाणित करनेवाला सूक्ष्म-स्तरीय प्रयोग
प्रथम शून्य से संबंधित (अर्थात ०, २, ४ ऐसे किसी भी सम) अंक का नामजप २ मिनट करके देखें । तत्पश्चात १ की संख्या से संबंधित (अर्थात १, ३, ५ ऐसे किसी भी विषम) अंक का नामजप २ मिनट करके देखें । तत्पश्चात् प्रयोग का अगला भाग पढें ।
सम अंक के नामजप से आनंद अथवा शांति की अनुभूति होती है । इसके विपरीत विषम अंक के नामजप से शक्ति की अनुभूति होती है । देवता अधिकतर आनंद या शांति से, जबकि देवी अधिकतर शक्ति से संबंधित हैं । उपरोक्त प्रयोग से इस बात का प्रत्यय होता है कि शून्य से संबंधित अंक देवताओं से संबंधित हैं, जबकि १ की संख्या से संबंधित अंक देवियों से जुडे हैं । इसलिए देवताओं की सम संख्या में एवं देवियों की विषम संख्या में परिक्रमा लगाएं ।
इ. सप्तदेवताओं की परिक्रमाओं की विशिष्ट संख्या एवं उसके आधारभूत कारण
सप्तदेवताओं में से प्रत्येक देवता की परिक्रमा की विशिष्ट संख्या है । (सप्तदेवता हैं – श्री गणेश, शिवजी, श्रीराम. हनुमानजी, दत्त, श्रीदुर्गा तथा श्रीकृष्ण ।)
विभिन्न विचारधाराओं के अनुसार देवता की मूर्ति की परिक्रमा-संख्याएं भिन्न होती हैं, इसके कुछ उदाहरण आगे दिए हैं । देवता के प्रकट-अप्रकट, तारक-मारक रूपानुसार एवं परिक्रमा के उद्देश्यानुसार परिक्रमा की संख्या परिवर्तित होती है । संख्याशास्त्रानुसार भी देवताओं के विभिन्न नामों के अनुसार उनसे संबंधित अंक निराले रहते हैं, फलस्वरूप परिक्रमा की संख्या निराली रहती है । जितने व्यक्ति, उतनी प्रकृतियां और उतने ही साधनामार्ग, हिन्दूधर्मशास्त्र के इस महत्त्वपूर्ण सिद्धांत अनुसार परिक्रमाओं की संख्या भी समान न होकर भिन्न है ।
अधोलिखित सारणी में विशिष्ट देवताओं की न्यूनतम परिक्रमा-संख्या दी है । यदि अधिक परिक्रमाएं करनी हों, तो न्यूनतम परिक्रमाओं के अनुपात में ही करें ।
सप्तदेवता | परिक्रमाओंकी संख्या | कारण |
---|---|---|
शिव | ० (टिप्पणी १) | सुप्त एवं अप्रकट निर्गुण शक्ति का प्रतीक |
श्री दुर्गादेवी | १ | द्वैत अंतर्गत सगुण प्रकट शक्ति का प्रतीक |
श्रीकृष्ण | ३ | इच्छा, क्रिया एवं ज्ञानके तीन स्तरों पर समानांतर कार्य करनेवाले पूर्णावतार |
श्रीराम | ४ | ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम एवं संन्यासाश्रम, इन चार आश्रमों का पालन आदर्श पद्धति से करनेवाले राजा |
हनुमान | ५ | पंचतत्त्वों के अधिपति |
दत्त | ७ | देह के सात चक्रों के शुद्धिकरण से जीव की आध्यात्मिक उन्नति साध्य करवानेवाले |
श्री गणपति | ८ | आठ दिशाओं के अधिपति |
उपरोक्त सर्व देवताओं के उपरूपों के लिए भी यही नियम लागू होता है ।
टिप्पणी १ : शिवपिंडी की परिक्रमा
शिवपिंडी की परिक्रमा चंद्रकला के समान अर्थात ‘सोमसूत्री’ है । अरघा से उत्तर दिशा की ओर, अर्थात सोम की दिशा की ओर, मंदिर के आंगन के कोने तक जो सूत्र (अर्थात नाली) जाती है, उसे ‘सोमसूत्र’ कहते हैं । परिक्रमा बार्इं ओर से आरंभ करते हैं एवं अभिषेक की जलप्रणालिका (अरघाका आगे निकला हुआ भाग) की दूसरी छोरतक जाकर, उसे न लांघते हुए मुडते हैं एवं पुनः प्रणालिकातक विपरीत दिशा में आकर परिक्रमा पूर्ण की जाती है । अरघा के स्रोत को लांघते नहीं, क्योंकि वहां शक्तिस्रोत होता है । उसे लांघते समय पैर फैलते हैं तथा वीर्यनिर्मिति एवं पांच अंतस्थ वायुओं पर विपरीत परिणाम होता है । इससे देवदत्त एवं धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट उत्पन्न हो जाती है । लांघते समय यदि स्वयं को संकुचित कर लें, अर्थात नाडियों को भींच लें, तो नाडियों पर दुष्परिणाम नहीं होता । संक्षेप में, सामान्य मनुष्य को जलप्रणालिका का स्रोत लांघने से उसे शक्ति का कष्ट न हो; इसके लिए कहा है कि ‘जलप्रणालिका का स्रोत न लांघें ।’ ‘बुद्धिवादियों को लगता है कि जलप्रणालिका लांघते समय पैर की मैल उसमें गिर सकती है, जिससे उस जल को तीर्थ समझकर पीनेवाले श्रद्धालुओं को रोग हो सकता है । इसलिए, जलप्रणालि का नहीं लांघते’ !
यह नियम केवल मानवस्थापित अथवा मानवनिर्मित शिवलिंग पर ही लागू होता है; स्वयंभू लिंग अथवा चल (पूजाघर के) लिंग पर नहीं । जिस प्रकार अन्य देवताओं की पूर्ण परिक्रमा लगाई जाती है, वैसी शिवपिंडी की पूर्ण परिक्रमा नहीं लगाई जाती; इसलिए परिक्रमाओं की संख्या शून्य होती है ।
र्इ. स्वयंभू देवालय में कितनी परिक्रमाएं करनी चाहिए ?
‘स्वयंभू देवालय में जागृत शक्ति सर्वसामान्य जीव सह नहीं पाता, अतः उसके लिए एक ही परिक्रमा करना इष्ट है । ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर के आगे का उन्नत जीव अपने भाव के अनुसार कितनी भी परिक्रमाएं कर सकता है । उसके लिए परिक्रमा का बंधन नहीं है ।
४. परिक्रमा में गति कैसी होनी चाहिए ?
अ. मध्यमगति से परिक्रमा करना
१. ब्रह्मांड में देवता की तारक-मारक संयुक्त तरंगों की गति मध्यम होती है, इसलिए उनसे साधम्र्य दर्शानेवाली (मध्यम) गति से ही परिक्रमा करने से जीव को सगुण के साथ ही निर्गुण अर्थात दोनों तत्त्वों का लाभ प्राप्त होता है ।
२. तारक-मारक संयुक्त तरंगों में इच्छा, साथ ही क्रिया तरंगों की साम्यावस्था होने से मध्यमगति से परिक्रमा करने पर वायुमंडल में व्याप्त देवता का सगुण-निर्गुण तत्त्व एक समान अनुपात में जीव को प्राप्त होता है । फलस्वरूप उसके प्राणमयकोष एवं मनोमयकोष की शुद्धि होती है ।
३. जीव की देह में तारक-मारक संयुक्त तरंगों के संक्रमण के कारण, अनिष्ट शक्तियों से लडने की क्षमता में वृद्धि होती है तथा जीव चैतन्य भी ग्रहण कर पाता है । उक्त कारणों से सामान्य व्यक्ति को परिक्रमा मध्यमगति से करनी चाहिए ।
संदर्भ – सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘देवालयमें दर्शन कैसे करें ? (भाग १)‘ एवं ‘देवालयमें दर्शन कैसे करें ? (भाग २)‘