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भेंट (उपहार) देना

‘भेंट’ अर्थात जिस वस्तु को कोई छीन न सके ।

१. भेंट कैसी हो ?

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आजकल कीमती वस्तुएं भेंटस्वरूप देने को उपहार मानते हैं; परंतु वास्तव में यह भावनावश किया गया कर्म है । ‘भेंट’ दूसरे जीव की आध्यात्मिक उन्नति हेतु पोषक होनी चाहिए । इसके कुछ उदाहरण हैं, ईश्वरप्राप्ति हेतु साधना सिखानेवाले ग्रंथ, भक्तिभाव बढानेवाले देवताओें के सात्त्विक चित्र एवं नामजप-पट्टियां ।

२. भेंट देते समय भाव कैसा हो ?

आजकल भेंट देते समय यह जताया जाता है कि मैं कोई बडा व्यक्ति हूं । यह अनुचित है । भेंट सदैव अहंरहित एवं निरपेक्ष भावना से देनी अपेक्षित है; अन्यथा लेनदेन का हिसाब निर्मित होता है । भेंट स्वीकारनेवाले जीव में भी यह भाव होना आवश्यक है कि ‘भेंट’ ईश्वर से प्राप्त वस्तुरूपी प्रसाद है ।

३. ‘भेंट’ पर हलदी-कुमकुम क्यों लगाते हैं ?

भेंट दी जानेवाली वस्तु पर हलदी-कुमकुम लगाने से हलदी-कुमकुम की ओर ब्रह्मांडमें कार्यरत ईश्वरीय चैतन्य की तरंगें आकर्षित होती हैं । इस कारण जीव को भेंट के साथ इस चैतन्य का भी लाभ प्राप्त होता है ।

४. सर्वोच्च भेंट कौनसी है और वह कौन दे सकता है ?

ईश्वर ही सर्वोच्च दाता हैं । इसलिए ईश्वर का साक्षात सगुण रूप अर्थात संत अथवा गुरु ही भेंट देने के अधिकारी होते हैं । गुरु शिष्य की ऐहिक एवं पारलौकिक उन्नति करवाते हैं । गुरुद्वारा सिखाई गई साधना ही कोई नहीं छीन सकता; क्योंकि साधक पर गुरुकृपा अर्थात ईश्वरीय कृपा का छत्र होता है । साधना का अवसर प्राप्त होना एवं ईश्वरीय कृपा होना ही जीव के लिए ईश्वर से प्राप्त सर्वोच्च भेंट है ।’ – पूजनीया (श्रीमती) अंजली गाडगीळ २२.२.२००५ एवं २२.१.२००५

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘पारिवारिक धार्मिक व सामाजिक कृतियोंका आधारभूत अध्यात्मशास्त्र