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दीपप्रज्वलन

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        हिन्दू धर्म में दीपक का अत्यधिक महत्त्व है ।

१. ‘दीपप्रज्वलन का भावार्थ

अ. दीपप्रज्वलन अर्थात अपने में विद्यमान आत्मशक्ति को जागृत करना ।

आ. दीप के चारों ओर विद्यमान शांत प्रभामंडल हमारे आत्मप्रकाश का प्रतीक है तथा दीप का रजोगुणी प्रकाश हमारे आत्मतेज का ।

२. दीपप्रज्वलन का महत्त्व

अ. ईश्वरीय संकल्पशक्ति का कार्यरत होना

दीप प्रज्वलित कर जब हम कोई कार्य आरंभ करते हैं, तब अपनी आत्मज्योति के बल पर किए गए पूजनद्वारा हम ब्रह्मांड के विशिष्ट देवता के तत्त्व का आवाहन करते हैं एवं दैविक तरंगों से कार्यस्थल पर आने हेतु प्रार्थना करते हैं । इससे हमारे कार्य के लिए ईश्वरीय संकल्पशक्ति कार्यरत होती है एवं मनोवांछित कार्य सिद्ध होता है ।

आ. कार्यस्थल के चारों ओर सुरक्षा-कवच की निर्मिति

ज्योतिद्वारा प्रक्षेपित रजोगुणी-कणों की गतिविधियों के कारण, ब्रह्मांड में विद्यमान ईश्वरीय निर्गुण कार्यतरंगों का रूपांतरण, सगुण रजोगुणी कार्यतरंगों में होता है । ईश्वरीय क्रियाशक्ति के बल पर कार्यस्थल के चारों ओर इन कार्यतरंगों का सुरक्षा-कवच निर्मित होता है । दीप प्रज्वलित कर हम एक प्रकार से कार्यस्थल की शुद्धि ही करते हैं । सुरक्षा-कवचद्वारा प्रक्षेपित किरणरूपी गतिमान एवं वलयित तेजतरंगों के कारण उच्च स्तर की (अधिक क्षमतायुक्त) अनिष्ट शक्तियां कार्यस्थल में प्रवेश नहीं कर पातीं एवं देवता के आशीर्वाद के कारण हमारा कार्य निर्विघ्न संपन्न होता है ।

३. व्यासपीठ पर दीपप्रज्वलन के संदर्भ में कृतियों का अध्यात्मशास्त्र

अ. दीपप्रज्वलन से पूर्व दीप के नीचे अक्षत क्यों रखें ?

अक्षत में विद्यमान पृथ्वी एवं आप तत्त्वों के कणों की प्रबलता के कारण दीपद्वारा प्रक्षेपित तरंगें ग्रहण की जाती हैं । आपकणों की प्रबलता से वे आवश्यकतानुसार प्रवाही बनती हैं और वातावरण में भूमि की ओर प्रक्षेपित की जाती हैं । ये संचारी तरंगें अधोगामी होती हैं, इसलिए भूमि की ओर आकर्षित होती हैं । दीपद्वारा प्रक्षेपित तरंगें आकाश की ओर आकर्षित होती हैं, इसलिए उनका संचार ऊर्ध्वगामी दिशा में होता है । इस प्रकार कार्यस्थल पर दीप के माध्यम से वातावरण के ऊपरी पट्टें में सूक्ष्म-छत तथा अक्षत के माध्यम से भूमि पर सूक्ष्म-आच्छादन तैयार होता है, जिसका रूपांतरण कुछ समय उपरांत गुंबदाकार सुरक्षा-कवच में होता है ।

आ. दीपप्रज्वलन के लिए प्रयुक्त दीपस्तंभ में घी की अपेक्षा तेल डालना अधिक योग्य क्यों है ?

दीपप्रज्वलन के लिए प्रयुक्त दीपस्तंभ में तेल का प्रयोग करें । तेल रजोगुणी तरंगों के तथा घी सात्त्विक तरंगों के प्रक्षेपण का प्रतीक है । किसी भी कार्य को गति प्रदान करने हेतु रजोगुणी क्रियातरंगें आवश्यक होती हैं । तेल की ज्योति ब्रह्मांड में विद्यमान देवताओं की क्रियातरंगों को जागृत कर उन्हें कार्यरत रखती है; इसलिए दीपप्रज्वलन हेतु प्रयुक्त दीपस्तंभ में तेल का प्रयोग श्रेयस्कर है ।

इ. दीपप्रज्वलन मोमबत्ती से नहीं, अपितु तेल के दीप (सकर्ण दीप) से क्यों करें ?

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मोमबत्तीद्वारा प्रक्षेपित तरंगें तम-रजयुक्त होती हैं । मोमबत्तीद्वारा दीप प्रज्वलित करने पर दीपस्तंभ के चारों ओर तमकणों का मंडल तैयार होता है । इस कारण दीपस्तंभ की ज्योति की ओर आकृष्ट ब्रह्मांड में विद्यमान देवता की क्रियातरंगें बाधित होती हैं । इसके विपरीत, तेल रजोगुण का प्रतीक है । तेल की ज्योति ब्रह्मांड में विद्यमान देवताओं की क्रियातरंगों को जागृत कर कार्यरत करने में सहायक होती है; इसलिए दीपप्रज्वलन हेतु प्रयुक्त तेल के दीप (सकर्ण दीप)का प्रयोग श्रेयस्कर है ।

४. व्यासपीठ पर दीपप्रज्वलन संतों अथवा सात्त्विक व्यक्तियोंद्वारा क्यों करवाएं ?

अ. दीप ज्ञानज्योति का प्रतीक है, इस कारण दीपप्रज्वलन के लिए सर्वज्ञानी एवं तेजोमयी संतों के अतिरिक्त योग्य कोई व्यक्ति नहीं; इसलिए दीपप्रज्वलन का सम्मान संतों को देना अधिक योग्य है ।

आ. संत उपलब्ध न हों, तो सात्त्विक व्यक्ति के हाथों दीपप्रज्वलन करवाना योग्य है । दीप से प्रक्षेपित तरंगें जीव की ईश्वर के प्रति भाव ऊर्जा की मात्रा के अनुसार कार्य करती हैं । सात्त्विक व्यक्ति में ईश्वर के प्रति भाव अधिक एवं अहं अल्प होता है । ऐसे व्यक्ति के करकमलोंद्वारा दीप प्रज्वलित किए जाने पर ब्रह्मांड के उच्च देवताओं की सूक्ष्मतर तरंगें अधिक कार्यरत होती हैं । इन सूक्ष्मतर तरंगों का परिणाम वातावरण में जीवों पर होता है एवं जीवों की सूक्ष्मदेह की शुद्धि में सहायता मिलती है ।’

– पूजनीया (श्रीमती) अंजली गाडगीळ

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘पारिवारिक धार्मिक व सामाजिक कृतियोंका आधारभूत अध्यात्मशास्त्र