१. कुदृष्टि उतारने से पूर्व कुदृष्टिग्रस्त व्यक्ति और
कुदृष्टि उतारनेवाले व्यक्ति को प्रार्थना क्यों करनी चाहिए ?
अ . प्रार्थना का महत्त्व
‘ईश्वर से की गई प्रार्थना के बल पर कुदृष्टि उतारने से कुदृष्टि उतारनेवाले को कष्ट नहीं होता और कुदृष्टिग्रस्त व्यक्ति का कष्ट भी शीघ्र घट जाता है ।
आ. प्रार्थना के लाभ
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प्रार्थना के कारण देवता के आशीर्वाद से कुदृष्टिग्रस्त व्यक्ति की देह के भीतर और बाहर के कष्टदायक स्पंदन अल्पावधि में कार्यरत होकर कुदृष्टि उतारने हेतु उपयुक्त घटकों में घनीभूत होकर, तदुपरांत अग्नि की सहायता से अल्पावधि में नष्ट किए जाते हैं ।
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देवता की कृपा के कारण दोनों जीवों के सर्व ओर सुरक्षा-कवच निर्मित होकर भविष्य में होनेवाले अनिष्ट आक्रमणों से उनकी रक्षा होती है ।’
२. कुदृष्टिग्रस्त व्यक्ति को दोनों
हथेलियां ऊपर की (आकाश की) दिशा में क्यों खुली रखनी चाहिए ?
अनिष्ट शक्तियां पाताल से बडी मात्रा में काली शक्ति प्रक्षेपित करती हैं । हथेली के पृष्ठीय भाग की अपेक्षा, (जिस पर रेखाएं रहती हैं, वह) अभ्युदरीय भाग शक्ति ग्रहण और प्रक्षेपित करने में अधिक संवेदनशील होता है । दोनों हथेलियां ऊपर की दिशा में खुली रखने से पाताल से आनेवाली काली शक्ति सीधे हाथ में प्रवेश नहीं कर सकती । साथ ही शरीर में विद्यमान काली शक्ति को हथेलियोंद्वारा कुदृष्टि उतारने के घटक में आकर्षित करना सहज हो जाता है ।
३. कुदृष्टिग्रस्त व्यक्ति के सर्व ओर कुदृष्टि उतारने के घटक से क्यों उतारना चाहिए ?
‘ओइंछना (उतारना), इस रजोगुणात्मक गतिविधि से कुदृष्टि उतारते समय प्रयुक्त घटक में कार्यसदृश तरंगों को गति प्राप्त करवाना ही घटक से ओइंछने का उद्देश्य है ।
४. किसी की कुदृष्टि उतारने के उपरांत पीछे मुडकर क्यों नहीं देखना चाहिए ?
कुदृष्टि उतारने के उपरांत उतारनेवाले व्यक्ति का पीछे मुडकर देखना अशुभ माना जाता है; क्योंकि कुदृष्टि उतारने हेतु प्रयुक्त वस्तुओंद्वारा रज-तमात्मक स्पंदन खींचे जाते हैं । इसलिए जिस मार्ग से हम जाते हैं, वह भी रज-तमात्मक स्पंदनों से दूषित होने के कारण अनिष्ट शक्तियों के पीछे लगने की प्रबल संभावना होती है । पीछे मुडकर देखने से अशुभ स्पंदनों में हमारा मन अटक सकता है । इससे हम उसी अशुभ मार्ग से आनेवाली अनिष्ट शक्तियों के आक्रमणों की बलि चढ सकते हैं । इसलिए कहा जाता है कि ‘किसी की कुदृष्टि उतारने के उपरांत मनमें नामजप करते हुए आगे चलते रहना चाहिए ।’
५. कुदृष्टि उतारने के पश्चात कुदृष्टि उतारनेवाला व कुदृष्टिग्रस्त व्यक्ति,
दोनों को ही किसी से बात न कर मन में नामजप करते हुए शेष कर्म क्यों करने चाहिए ?
अ. कुदृष्टि उतारने के उपरांत की प्रक्रिया और देह पर उसका दुष्परिणाम
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कुदृष्टि उतारनेवाले की देह भी कुछ मात्रा में रज-तमात्मक स्पंदनों से प्रभावित होना :‘कुदृष्टिग्रस्त व्यक्ति की कुदृष्टि उतारने वाले पर रज-तमात्मक स्पंदनों का प्रभाव होने से उसकी देह भी इन स्पंदनों से कुछ मात्रा में दूषित हो जाती है ।
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भावनात्मक संभाषण के कारण रज-तमात्मक स्पंदनों को अपनी ओर आकर्षित करने से व्यक्ति की हानि होना : इस कालावधि में नामजप के अतिरिक्त किसी से कुछ बोलना प्रायः भावनात्मक होता है । इसलिए उसके सूक्ष्म नाद स्पंदनों की ओर देह में फैले रज-तमात्मक स्पंदन अधिक मात्रा में आकर्षित होकर मुख, नाक, आंख और कानों से होते हुए पूरे शरीर में संक्रमित हो सकते हैं ।
आ. नामजप में विद्यमान दैैवी स्पंदनों से देह का रज-तमात्मक आवरण नष्ट होना तथा जीव को होनेवाले अन्य लाभ
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देह पर रज-तमात्मक स्पंदनों का आवरण रहता है । अनावश्यक बोलकर उसे और सघन बनाने की अपेक्षा नामजप करते हुए आगे का कर्म करना चाहिए । इससे नामजप में विद्यमान दैवी सात्त्विक स्पंदनों के कारण देह पर आया रज-तमरूपी आवरण नष्ट होता है ।
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देह के सर्व ओर सुरक्षा-कवच निर्मित होने से बाह्य वायुमंडल से अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण होने की आशंका घट जाती है ।
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मायासंबंधी भावनात्मक संभाषण करने की अपेक्षा नामजप करते हुए रज-तमात्मक स्पंदनों का देह पर आया आवरण दूर कर देहशुद्धि करना अधिक श्रेष्ठ है ।
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कुदृष्टि उतारे जाने के पश्चात कुदृष्टिग्रस्त व्यक्ति के लिए भी नामजप करना आवश्यक है, अन्यथा उस पर अनिष्ट स्पंदनों के आक्रमण की आशंका बढ जाती है ।
६. कुदृष्टि उतारने के पश्चात, कुदृष्टि उतारनेवाला और कुदृष्टिग्रस्त
व्यक्ति, दोनों को हाथ-पैर धोकर ही अगला काम क्यों आरंभ करना चाहिए ?
अ. कुदृष्टि उतारना और कुदृष्टि उतरवाना, इन दोनों प्रक्रियाओं में
रज- तमात्मक स्पंदनों का बडी मात्रा में आदान-प्रदान होना तथा इसके दुष्परिणाम
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कुदृष्टि उतारने एवं कुदृष्टि उतरवाने की प्रक्रिया में रज-तमात्मक स्पंदनों का आदान-प्रदान बडी मात्रा में होता है ।
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कुदृष्टि उतारने से पूर्व देवता से प्रार्थना करते समय अल्प भाववाले व्यक्ति के लिए अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण की आशंका बढ जाती है ।
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इस प्रक्रिया में दोनों व्यक्ति समानरूप से अशुभ कर्म में सहभागी होते हैं, जिससे अनिष्ट शक्तियों के उन दोनों पर खीझकर आक्रमण करने की आशंका रहती है । अतः इस प्रक्रिया में दोनों जीवों पर अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण का भय सदा बना रहता है ।
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वास्तवमें यह प्रक्रिया ही रज-तमात्मक है । शरीर के अन्य अवयवों की तुलना में, पाताल से ऊर्ध्व दिशा में प्रक्षेपित अनिष्ट तरंगों के पैरों के माध्यम से देह में संक्रमित होने की आशंका प्रबल रहती है । इसलिए कि ऐसी दशा में पैर भूमि से अधिक संलग्न होते हैं । ऐसी तरंगों से देह पूरित होने पर हाथों के माध्यम से संपूर्णदेह में अर्थात मस्तकतक भी तरंगों का प्रादुर्भाव हो सकता है ।
आ. पानी से हाथ-पैर धोने के लाभ
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कुदृष्टि उतर जाने के पश्चात बाह्य वायुमंडल के रज-तमात्मक स्पंदनों से तुरंत ही प्रभावित होनेवाले हाथ-पैरों को पानी से धो लेना चाहिए ।
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पानी के सर्वसमावेशक स्तरीय कार्य के कारण वह किसी भी प्रकार के रज-तमात्मक पापजन्य तरंगों को अपने में समाविष्ट कर देह की शुद्धि करता है; इसलिए इस प्रक्रियाके उपरांत हाथ-पैर धोना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है ।’
७. कष्ट की तीव्रताके अनुसार प्रत्येक घंटे कुदृष्टि उतारना क्यों आवश्यक है ?
‘संभव हो और तीव्र कष्ट हो, तो प्रत्येक घंटे कुदृष्टि उतारनी चाहिए; अन्यथा कुदृष्टि उतारने का परिणाम बने रहने की कालावधि में ही व्यक्ति को पुनः कष्ट होने की आशंका रहती है । प्रत्येक घंटे कुदृष्टि उतारने से पुनः-पुनः संचित होनेवाली काली शक्ति की मात्रा थोडी घट जाती है ।’
संदर्भ ग्रंथ : सनातन का सात्विक ग्रंथ ‘कुदृष्टि (नजर) उतारने की पद्धतियां (भाग १) (कुदृष्टिसंबंधी अध्यात्मशास्त्रीय विवेचनसहित)?’