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अनंत चतुर्दशी

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सारणी


१. अनंत चतुर्दशी व्रत कथा

एक बार युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया । उस समय यज्ञ मंडप का निर्माण सुंदर तथा अद्भुत था । वह यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि, जल व स्थल की भिन्नता प्रतीत ही नहीं होती थी । जल में स्थल तथा स्थल में जल की भांति प्रतीत होती थी । बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति उस अद्भुत मंडप में धोखा खा चुके थे ।

एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया । द्रौपदी ने यह देखकर ‘अंधों की संतान अंधी’ कह कर उनका उपहास किया । इससे दुर्योधन क्रोधित हो गया ।

यह बात उसके हृदय में बाण समान लगी । उसके मन में द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली । उसके मस्तिष्क में उस अपमान का बदला लेने के लिए विचार उपजने लगे । उसने बदला लेने के लिए पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हरा कर उस अपमान का बदला लेने की सोची । उसने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया ।

पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भुगतना पड़ा । वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे । एक दिन भगवान कृष्ण जब मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख कहा और दुख दूर करने का उपाय पूछा । तब श्रीकृष्ण ने कहा- ‘हे युधिष्ठिर ! तुम विधिपूर्वक भगवानविष्णु का व्रत करो, इससे तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा ।’

इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने उन्हें एक कथा सुनाई –

प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक तपस्वी ब्राह्मण था । उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था । उसकी एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी । जिसका नाम सुशीला था । सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई ।

पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया । सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया । विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांध कर दे दिए ।

कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए । परंतु रास्ते में ही रात हो गई । वे नदी तट पर संध्या करने लगे । सुशीला ने देखा- वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा पर रही थीं । सुशीला के पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई । सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई ।

कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी । उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान विष्णुजी का अपमान हुआ । परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे । उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई । इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं ।

पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए । वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े । तब अनंत भगवान प्रकट होकर बोले- ‘हे कौंडिन्य ! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा । तुम दुखी हुए । अब तुमने पश्चाताप किया है । मैं तुमसे प्रसन्न हूं । अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो । चौदह वर्षोंतक व्रत करनेसे तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा । तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे । कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।’

श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनंत भगवान का व्रत किया जिसके प्रभाव से पांडव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे ।

२. भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी अर्थात अनंत चतुर्दशीका महत्त्व

अनंतका भावार्थ है, ऐसी चैतन्यरूपी शक्ति जिसका कोई अंत नहीं है । भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी अर्थात श्री गणेश चतुर्थीसे अनंत चतुर्दशीतकके कालमें श्री गणेशजीद्वारा अधिक मात्रामें शक्ति प्रक्षेपित होती है । यह शक्ति अनंत चतुर्दशीके दिन अधिक प्रमाणमें  कार्यरत रहती है एवं अधिक समय तक रहती है । साथही इस कालावधिमें अन्य दिनोंकी तुलनामें इस दिन ब्रह्मांडमें गणेशतत्त्व भी १० प्रतिशत अधिक प्रमाणमें  प्रक्षेपित होते हैं । गणेशभक्तोंको इसका लाभ मिलता है ।

३. अनंत चतुर्दशीके दिन करनेयोग्य कृत्य एवं उनसे प्राप्त लाभके प्रमाण

२.१ गणेशतत्त्व आकृष्ट करनेवाली रंगोली बनानेसे १० प्रतिशत लाभ होते हैं।

२.२ देवतापूजनमें अष्टगंधके उपयोगसे ३० प्रतिशत

२.३ गुडहल जैसे लाल रंगके फूलोंसे १० प्रतिशत

२.४ दूर्वाके उपयोगसे १० प्रतिशत

२.५  देवताको धूप-दीप दिखानेसे २० प्रतिशत एवं

२.६ मोदकका नैवेद्य निवेदित करनेसे २० प्रतिशत लाभ होता है । इन सबका कुल योग है १०० प्रतिशत ।

यहां एक सूत्र ध्यानमें रखना होगा, कि इस सारिणीमें बताई वस्तुओंका उपयोग करते समय व्यक्तिका भाव जितना अधिक होगा,  उसे गणेशतत्त्वका मिलनेवाला लाभ भी उतना अधिक होता है ।

४. अनंतव्रत का उद्देश्य

अनंत व्रत एक काम्य व्रत है । व्यावहारिक इच्छापूर्तिके उद्देश्यसे किए जानेवाले व्रतको ‘काम्य व्रत’ कहते हैं । श्रद्धाभावसे किया गया व्रत व्यक्तिको संतुष्टि प्रदान करता है एवं आगे व्रती निष्कामताकी ओर बढने लगता है । मुख्यतः गतवैभव पुनः प्राप्त करनेके लिए यह व्रत करते हैं । अनंत चतुर्दशीके दिन ब्रह्मांडमें श्रीविष्णुकी क्रियाशक्तिरूपी तरंगें क्रियाशील रहती हैं । ये तरंगें पृथ्वी, आप एवं तेज इन स्तरोंकी होती हैं । इन तरंगोंके कारण मनुष्यकी देहमें विद्यमान चेतनाशक्तिका नियमन होता है एवं क्रियाशक्ति कार्यरत रहनेमें सहायता मिलती है । इस दिन इन तरंगोंको आकृष्ट कर उन्हें ग्रहण करना सामान्य जनोंके लिए सहज संभव होता है । इसीलिए इन तरंगोंका लाभ प्राप्त करनेके लिए हिंदु धर्ममें अनंतव्रतका महत्त्व  है । संक्षेपमें कहें तो, अनंतपूजन करना अर्थात श्रीविष्णुकी क्रियाशक्तिकी तरंगें ग्रहण कर देहमें विद्यमान क्रियाशक्तिको कार्यरत करना । अनंतव्रतके संदर्भमें पूर्णिमायुक्त चतुर्दशी अर्थात जिस दिन चतुर्दशी तिथिके साथ पूर्णिमा तिथि भी आती है, ऐसी चतुर्दशी हो तो अधिक लाभदायक है । अनंत व्रतके प्रधान देवता हैं अनंत; अर्थात भगवान श्रीविष्णु । श्रीविष्णुजीके साथ श्री यमुनाजी एवं शेषनाग ये देवी-देवता भी हैं ।

५. अनंतव्रतकी कालावधि के बारेमें

अनंत व्रतकी अवधि चौदह वर्षकी होती है । चौदह वर्षके उपरांत व्रतका उद्यापन किया जाता है । यह व्रत अपनी इच्छानुसार नहीं करते । किसीके बतानेपर अथवा अनंतका डोरा सहज प्राप्त होनेपर ही इस व्रतको आरंभ करनेका विधान है ।

६. अनंतव्रतकी प्रत्यक्ष पूजनविधि

  • व्रतपूजन आरंभ करनेसे गत सुखसंपदा प्राप्त होनेके लिए यह पूजन करनेका संंकल्प करते हैं ।
  • संंकल्पके उपरांत श्री यमुनापूजन करते हैं । इसमें श्री यमुनाजीका षोडशोपचार पूजन किया जाता है ।
  • शास्त्रके अनुसार श्री यमुनापूजन नदीके तटपर करना होता है ; परंतु संभव न हो तो कलशके जलमें प्रत्यक्ष श्री यमुनादेवी विद्यमान हैं ऐसा भाव रखकर पूजन कर सकते हैं ।
  • प्रथम श्री यमुनाजीको आसन देने के लिए अक्षत अर्पित करते हैं ।
  • श्री यमुनाजीrको पाद्य उपचार अर्पण किया जाता है ।
  • तदुपरांत अर्घ्य दिया जाता है ।
  • तदुपरांत पंचामृत स्नानका उपचार किया जाता है ।
  • अभिषेक किया जाता है ।
  • यजमान स्त्रियां श्री यमुनाजी को हलदी अर्पित करती हैं ।
  • यजमान स्त्रियां श्री यमुनाजी को कुमकुम अर्पित करती हैं ।
  • उपरांत श्री यमुनाजीकी अंगपूजा की जाती है ।
  • उसके उपरांत धूप, दीप, आरती, नैवेद्य इत्यादि उपचार कर पूजाका समापन किया जाता है ।

अबतक हमने श्री यमुनादेवीके पूजनकी विधि देखी । श्री यमुनाजीमें भगवान श्रीकृष्णने कालियारूपी रज-तमात्मक आसुरी तरंगोंका नाश किया था । श्री यमुनाजीके जलमें कृष्णतत्त्वकी मात्रा अधिक है । अनंत व्रतके पूजनमें कलशमें भरे जलमें यमुनाजीका आवाहन करनेसे सूक्ष्मस्तरपर क्या प्रक्रिया होती है, इसे समझ लेते हैं ।

श्री यमुनाजीका आवाहन कर जलमें विद्यमान कृष्णतत्त्वस्वरूप तरंगोंको जागृत किया जाता है । ये तरंगें पूजक को प्राप्त होती हैं तथा पूजककी देहमें विद्यमान कालियारूपी गोल वलयांकित रज-तमात्मक तरंगोंका नाश करती हैं । इससे पूजककी देहकी शुद्धि होती है । शुद्ध देहद्वारा किया गया पूजन अधिक लाभ प्रदान करता है । श्री यमुनापूजनके उपरांत ताम्रपात्रमें रखे चावलके पुंजपर देवताओंका आवाहन किया जाता है एवं उनका अर्थात पीठस्थ देवताओंका पूजन किया जाता है।

७. शेषनागका पूजन

इसमें शेषनागके प्रतीकस्वरूप दर्भके अंकुरोंसे बने सात फनवाले नागका पूजन करते हैं ।

  • प्रथम शेषनाग देवताका आवाहन करते हैं ।
  • शेषनागको आसन अर्पित करनेका उपचार किया जाता है । इसके उपरांत षोडशोपचार पूजनसे पाद्य, अर्घ्य इत्यादि उपचार किए जाते हैं ।
  • शेषनाग देवताकी अंगपूजा की जाती है ।
  • उनके सात फनोंका पूजन किया जाता है ।
  • उपरांत शेषदेवताके विविध नामोंका उच्चारण कर तथा शेषदेवताकी प्रतिमापर अक्षत डालकर नामपूजा की जाती है ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘धार्मिक उत्सव एवं व्रतों का अध्यात्मशास्त्रीय आधार