भारत छोडो आंदोलन का दौर था। असम में आजादी के वीरसपूतों द्वारा 20 सितंबर, 1942 के दिन तेजपुर (असम) से 82 मील दूर गहपुर थाने पर तिरंगा फहराया जाना था। आंदोलनकारियों का जत्था ‘भारत माता की जय’ बोलता थाने की ओर बढ़ रहा था। तिरंगा थामे १८ वर्षीय नवयुवती जुलूस के आगे आगे चल रही थी। युवती का नाम था ‘कनकलता बरुआ’…।
थाने का प्रभारी पी एम सोम जुलूस को रोकने के लिए सामने आ खड़ा हुआ। कनकलता ने उससे कहा- “हमारा रास्ता मत रोकिए। हम आपसे संघर्ष करने नहीं आए हैं। हम तो थाने पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्रता की ज्योति जलाने आए हैं। उसके बाद हम लौट जायेंगे।” थाने के प्रभारी ने भीड को डांटते हुए कहा कि यदि तुम लोग एक इंच भी आगे बढ़े तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे।
इसपर वो युवती कनक शेरनी के समान गरज उठी – “हम युवतियों को अबला समझने की भूल मत कीजिए। आत्मा अमर है, नाशवान है तो मात्र शरीर। अतः हम किसी से क्यों डरें ?” हमारी स्वतंत्रता की ज्योति बुझ नहीं सकती। तुम गोलियां चला सकते हो, पर हमें कर्तव्य विमुख नहीं कर सकते।”
फिर वो ‘करेंगे या मरेंगे’ ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’, जैसे नारे से आकाश को गुंजाती हुई थाने की ओर बढ चलीं। पीछे से जुलूस के गगनभेदी नारों से आकाश गूंजने लगा। इसपर पुलिस ने जुलूस पर गोलियों की बौछार कर दी। पहली गोली उस कनकलता ने अपनी छाती पर झेली। दूसरी गोली मुकुंद काकोती को लगी, जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। इन दोनों की मृत्यु के बाद भी गोलियां चलती रहीं। परिणामतः हेमकांत बरुआ, खर्गेश्वर बरुआ, सुनीश्वर राजखोवा और भोला बरदलै गंभीर रूप से घायल हो गए।
कनकलता गोली लगने पर गिर पड़ी, किंतु उसके हाथों का तिरंगा झुका नहीं। उसकी साहस व बलिदान देखकर युवकों का जोश और भी बढ गया। फिर भी जत्थे के सदस्यों में थाने पर झंडा फहराने की होड-सी मच गई थी। हर एक व्यक्ति सबसे पहले झंडा फहराने को बेचैन था। इसके कारण गोलियों की परवाह न करते हुए वे लोग आगे बढते गए।
कनकलता के हाथ से तिरंगा लेकर गोलियों के सामने सीना तानकर वीर बलिदानी युवक आगे बढ़ते गये। एक के बाद एक गिरते गए, किंतु झंडे को न तो झुकने दिया न ही गिरने दिया। उसे एक के बाद दूसरे हाथ में थामते गए और अंत में रामपति राजखोवा ने थाने पर झंडा फहरा दिया गया।
अपने इस अप्रतिम साहस व् बलिदान के नाते ‘असम की लक्ष्मीबाई’ कही जाने वाली कनकलता बरुआ का जन्म ’22 दिसंबर, 1924′ को असम के बांरगबाड़ी गांव में कृष्णकांत बरुआ और कर्णेश्वरी देवी के घर में हुआ था। कनकलता बचपन में ही अनाथ हो गई थी। कनकलता के पालन–पोषण का दायित्व उनकी नानी को संभालना पड़ा। इन सबके बावजूद कनकलता का झुकाव राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की ओर होता गया।
जब मई 1931 में गमेरी गांव में रैयत सभा आयोजित की गई, उस समय कनकलता केवल सात वर्ष की थी। फिर भी सभा में अपने मामा देवेन्द्र नाथ और यदुराम बोस के साथ उसने भी भाग लिया। सभा के अध्यक्ष प्रसिद्ध नेता ज्योति प्रसाद अगरवाला थे।
ज्योति प्रसाद अगरवाला असम के प्रसिद्ध कवि थे और उनके द्वारा असमिया भाषा में लिखे गीत घर–घर में लोकप्रिय थे। अगरवाला के गीतों से कनकलता भी प्रभावित और प्रेरित हुई। इन गीतों के माध्यम से कनकलता के बाल–मन पर राष्ट्र–भक्ति का बीज अंकुरित हुआ। फिर वही बीज पल्लवित पुष्पित होता हुआ त्याग और बलिदान की मिसाल कायम करता हुआ कनकलता बरुआ को भारतीय वीरांगनाओं की लंबी कतार में खड़ा कर देता है।
महज़ 18 वर्षीय कनकलता अन्य बलिदानी वीरांगनाओं से उम्र में छोटी भले ही रही हों, लेकिन त्याग व बलिदान में उनका कद किसी से कम नहीं।
ऐसी वीरांगनाओं के कारण ही आज हम स्वतंत्र हवा में सांस ले पा रहे है इसलिए उनके प्रति अभिवादन !
स्त्रोत : मेकिंग इण्डिया