१८८६ में कोलकाता में संपन्न हुए कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में २५ वर्ष के मदन मोहन मालवीय ने वक्तव्य दिया था । उनके उस वक्तव्य से अध्यक्ष दादाभाई नवरोजी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ये उद्गार निकाले, कि ‘उस समय मालवीयजी के मुख से साक्षात भारतमाता ही वक्तव्य दे रही थीं ।’
स्वतंत्रताके यज्ञमें अनेक समिधाएं अर्पण होती हैं, हम भी उनमेंसे एक हैं, इसका आनंद उन्हें प्राप्त होता था । ऐसे प्रयत्न करनेवाले इस देशमें बहुत थे; किंतु शत्रुके घरमें रहकर भी स्वतंत्रता हेतु प्रयत्न करनेवाले कुछ गिनेचुने ही निर्भय क्रांतिकारी थे और पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा उनमेंसे ही एक थे ।
स्वामी श्रद्धानंद एक ऐसे हिंदू नेता थे । राष्ट्रको स्वतंत्र करवाना स्वामी श्रद्धानंदका अमूल्य संकल्प था । हिंदू धर्मपर कांग्रेसमें अन्याय हो रहा था । जब उन्हें सत्यका पता लगा, उन्होंने त्वरित कांग्रेसका त्याग किया एवं पं. मदन मोहन मालवीयकी सहायतासे ‘हिंदू महासभा’ की स्थापना की ।
हिंदु धर्मके उद्धारके लिए अहर्निश (दिन-रात) चिंता करनेवाले तथा इस उद्धारकार्यके लिए तन, मन, धन एवं प्राण अर्पण करनेवाले कुछ नवरत्न भारतमें हुए हैं । उनमेंसे एक दैदीप्यमान रत्न थे स्वामी विवेकानंद । धर्मप्रवर्तक, तत्त्वचिंतक, विचारवान एवं वेदांतमार्गी राष्ट्रसंत इत्यादि विविध रूपोंमें विवेकानंदका नाम सर्व जगतमें विख्यात है ।
मुंबईके संघशाखाकी स्थिति अत्यंत दयनीय हुई थी । अत्यधिक परिश्रम कर गुरुजीने मुंबईके कार्यको नई गति प्रदान की । उन्होंने कार्यकर्ताओंके मनमें विद्यमान विकल्पोंको दूर किया ।